(गाँधी-इरविन समझौते,1931 को लेकर) महात्माजी को उधर लार्ड इरविन के साथ उसके प्रत्येक शब्द पर विचार करना पड़ता और इधर हम लोगों के साथ भी। लार्ड इरविन और महात्माजी, दोनों ही, बहुत ही सहिष्णुता और धीरज के साथ, समझौते के मसविदे को अंतिम रूप दे चुके थे। जब हम लोगों से बातें हुईं तो एक वाक्य उसमें ऐसा था कि महात्माजी उसमें असत्य की गंध देखने लगे। लार्ड इरविन के साथ बातें करते समय उनको उन शब्दों का वह अर्थ नहीं सूझा था। जब हम लोगों से बातें होने लगी तो हममें से किसी ने उस वाक्य का यह नया अर्थ लगाकर कुछ चर्चा की। सुनते महात्माजी के कान खड़े हो गये। उन्होंने गौर से फिर पढ़ा और कहा कि यह अर्थ भी सकता है; पर यदि यह अर्थ है तो वाक्य असत्य है। इस बीच में लार्ड इरविन ने विलायत से समझौते की उसी रूप में मंजूरी मंगा ली। जब महात्माजी ने जाकर यह बात उनसे कही तो लार्ड इरविन भी मुश्किल में पड़ गये। महात्माजी किसी तरह उस रूप में उसको स्वीकार नहीं कर सकते थे; क्योंकि उसमें असत्य की गंध थी।
अंत में लार्ड इरविन ने उस वाक्य को बदल दिया और महात्माजी ने इस संशोधित रूप में उसे स्वीकार कर लिया। बात तय हो गयी। मैं तो समझौते से खुश था। पंडित जवाहरलालजी को छोड़कर प्रायः सभी सदस्य खुश पंडितजी बहुत दुखी थे। महात्माजी ने उनको बहुत समझाया,पर उनको संतोष न हुआ।
– राजेन्द्र प्रसाद
(आत्मकथा)