बचाव के दो रास्ते हैं। सबसे अच्छा और सबसे कारगर तो यह है कि बिलकुल बचाव न किया जाय, बल्कि अपनी जगह पर कायम रहकर हर तरह के खतरे का सामना किया जाय। दूसरा, उत्तम और उतना ही सम्मानपूर्ण तरीका यह है
मैंने देखा है कि जहां पूर्वग्रह युगों पुराने और कल्पित घार्मिक प्रमाणों के आधार पर खड़े होते हैं, वहां केवल बुद्धि को अपील करने से काम नहीं चलता। बुद्धि को कष्ट सहन का बल अवश्य मिलना चाहिये और कष्ट-सहन से समझ की
पैगम्बरों और अवतारों ने भी थोड़ा-बहुत अहिंसा का ही पाठ पढ़ाया है। उनमें से एक ने भी हिंसा की शिक्षा देने का दावा नहीं किया। और करे भी कैसे ? हिंसा सिखानी नहीं पड़ती। पशु के नाते मनुष्य हिंसक है और आत्मा
मैं व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कीमत करता हूँ, परन्तु आपको यह नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य मुख्यतः एक सामाजिक प्राणी है। अपने व्यक्तिवाद को सामाजिक प्रगति की आवश्यकताओं के अनुकूल बनाना सीखकर वह अपने मौजूदा ऊंचे दर्ज पर पहुंचा है। अनियंत्रित व्यक्तिवाद जंगली
मेरी राय में अहिंसा केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं है। वह एक सामाजिक सद्गुण भी है, जिसका विकास अन्य सद्गुणों की भांति किया जाना चाहिये । अवश्य ही समाज का नियमन ज्यादातर आपस के व्यवहार में अहिंसा के प्रगट होने से होता है।
हमें पूँजीपतियों के लिए गरीबों के हितों का बलिदान हरगिज नहीं करना चाहिए। हमें उनका खेल नहीं खेलना चाहिए। लेकिन हमें उन पर उस हद तक भरोसा करना ही चाहिए, जिस हद तक वे अपना लाभ गरीबों की सेवा में अर्पित
कुछ लोगों का कहना है कि पं. जवाहरलाल और मैं अलग-अलग थे। हमें अलग करने के लिए वैचारिक मतभेदों से भी अधिक कुछ होना चाहिए। हम जिस पल से सहकर्मी बने, हमारे तीन वैचारिक मतभेद तभी से हैं। फिर भी, मैं कुछ
धर्म अत्यंत व्यक्तिगत वस्तु है। हमें अपने ज्ञान के अनुसार जीवन व्यतीत करके एक-दूसरे की उत्तम बातें ग्रहण करनी चहिये और इस प्रकार ईश्वर को प्राप्त करने के मानव-प्रयत्नों के कुल योग में वृद्धि करनी चाहिए। हरिजन, 28-11-1936
जनता की राय के अनुसार चलने वाला राज्य जनमत से आगे बढ़कर कोई काम नहीं कर सकता। यदि वह जनमत के खिलाफ जाए तो नष्ट हो जाएगा। अनुशासन और विवेकयुक्त जनतंत्र दुनिया की सबसे सुन्दर वस्तु है। लेकिन राग-द्वेष, अज्ञान और अन्ध-विश्वास
अपने संतोष के लिए जब मैं जुदा-जुदा धर्मों की पुस्तकें देख रहा था तब ईसाई धर्म, इस्लाम, जरथुस्त्री, यहूदी और हिन्दू – इतने धर्मों की पुस्तकों की मैंने अपने संतोष के लिए जानकारी प्राप्त की। यह करते हुए इन सब धर्मों की