चुनौती नागों को
ऋण कृत्वा घी भी पी लेंगे =================== आत्म समर्पण करते हैं डाकू नेताओं के आगे मारे- मारे वे फिरते हैं जंगल मे भागे – भागे।। 1।। हाथ नहीं लगता कुछ भी क्या खाक़ मिला इस पेशे से राजनीति भली चंगी लगती सर
भुखमरी पौरुष यदि विश्राम करे अंचल में सुषमा के आकर पंकिल भूगोल धरा लेकर मिट जायेगी माहुर खाकर।। 1।। यौवन की आँखो के सपने उड़ गए
कोलाहल ऐ कविता तुमको कसम मेरी दृग शबनम से अभिनंदन कर झूठी श्लाघा का परित्याग कर नंदन वन मे बंदन् कर।। 1।। तुमसे यह आशा नहीं कि तुम सोने का हार पहन डोलो गावों से लेकर संसद तक अनुशासन पर खुलकर
बेटी घर छोड़ बनी धारा किसी विचलित उर से यह, नव जलधारा आ जगी है। नदियाँ सागर पार कर, उद्भवित होने लगी हैं। इस करूणामयी धारा से, परिपूर्ण हुआ सागर। विशाल पर्वत बहे आ रहे , चली आ रही खादर।
सीख प्रेमरस बरसाना ================== ऐ कलम सिपाही देख ज़रा ऊपर मेघों का घहराना बदल पैंतरा थोड़ा सा अब सीख प्रेमरस बरसाना।। 1।। इस पुण्यभूमि पर संकट की काली छाया है डोल रही इसके पुत्रों में त्राहि- त्राहि नफरत की ज्वाल हिलोर
क्यों पक्षपात है नारी से? मृदा दीप को जलवाकर जी करता है कुछ गाऊँ मैं जंग लगी अपनी संस्कृति को फिर से जामा पहनाऊँ मैं ।। १।। कब्र खोद कर अस्थि संजो मुर्दों में जान पिन्हाऊं मैं द्वापर के नायक पार्थ
मीडिया की नकारात्मक दिशा वह कौन व्यथित हो रोता है भावी इतिहास नियंत्रक से जिसमे मानवता सिसक रही कुटिल नीति अभियंत्रक से मलिन हृदय के परिपोषक माया मे पलने वाले झूठी खबरों के संवाहक दो कौड़ी मे बिकने वाले
वह दम तोड़ती सिसक रही/है संसद के गलियारों में/अपना चीर हरण करवाती/आबद्ध घृणा के घेरों में राजनीति राजनीति के पन्नों पर बोली लगी निठल्लों पर कोई दल को बदल रहा कोई ज़हर उगलता दल्लों पर भूत एक का
दर्द भरा मन यह व्योम बड़ा विस्तृत लगता,शून्य में आहें खो जातीं, स्मृति में अपनों के आते,आँखों से ढलते हैं मोती। अब और न कुछ चहिये मुझको,आँखों में हो पावन ज्योति, नैन से नैन मिलाते रहो प्रभु,जिससे निकले असली मोती। दर्द