रेप: सामूहिक आतंकवाद

फ़्रेडा अडलर ने अपनी पुस्तक ‘सिस्टर्स इन क्राइम’ में लिखा है..शायद यह एकमात्र अपराध है जिसमें पीड़ित ही आरोपी बन जाता है

दिसंबर 2012 में दिल्ली में घटित ‘निर्भया’ के गैंग बलात्कार के बाद पूरे देश के लोग सड़कों पर आए और तत्कालीन सत्ता ने जिस तरह वर्मा कमीशन बनाकर इस अपराध के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता जताई उससे यह लगने लगा था कि बलात्कारी अब बहुत डरेंगे और बलात्कार पर लगाम लग सकेगी, कुछ राज्यों, अरुणाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश व केंद्र सरकार ने अपने कानूनों में परिवर्तन करते हुए 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के साथ बलात्कार के लिए मृत्युदंड की कानूनी व्यवस्था कर दी लेकिन दुर्भाग्य से इन कदमों से ऐसा कुछ नहीं हो सका जिससे बलात्कार पर लगाम लग सके। साकीनाका, मुंबई बलात्कार निर्भया के साथ हुई वहशी हरकत का कॉपी पेस्ट है। ‘आयरन रॉड’ का इस्तेमाल कानून से डर के स्तर का सबसे निम्नतम नमूना है। जब मैं यह लेख लिख रही हूँ तो महसूस कर रही हूँ कि बलात्कार के लिए ‘मृत्युदंड’ एक चमकदार पैम्फलेट मात्र साबित हुआ क्योंकि इससे बलात्कारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। पिछले सात आठ दिन के बलात्कार की घटनाएं इसकी गवाही देंगी।

 

एक महिला को उसके कजन ने इसलिए मार दिया क्योंकि वो उसका बलात्कार करने में असफल रहा(3 सितंबर,यूपी), एक आदमी ने अपनी 7 साल की भतीजी का बलात्कार किया(4 सितंबर, यूपी), भाई और पिता द्वारा बलात्कार के बाद महिला ने आत्महत्या की(5 सितंबर, राजस्थान), बलिया में 14 साल की लड़की के साथ बलात्कार(4 सितंबर, यूपी), पुणे में 13 साल की लड़की का अपहरण और गैंगरेप(6 सितंबर, महाराष्ट्र), सुल्तानपुर में 30 साल की मानसिक रूप से बीमार महिला का बलात्कार(6 सितंबर, यूपी), 28 साल के एक युवक ने 8 साल की अपनी भतीजी का बलात्कार किया(9 सितंबर, छत्तीसगढ़), पुणे रेलवे स्टेशन के पास फुटपाथ में अपने माता पिता के साथ सो रही 6 साल की बच्ची का अपहरण के बाद बलात्कार(10 सितंबर, महाराष्ट्र), कोझिकोड में 32 साल की महिला के साथ गैंगरेप(10 सितंबर, केरल), हैदराबाद में 6 साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद हत्या(11 सितंबर, तेलंगाना), 20 साल की लड़की का कांचीपुरम में चलती गाड़ी में नशा देने के बाद गैंगरेप(11 सितंबर, तमिलनाडु)।
ये वो घटनाएं हैं जिन्होंने पिछले एक हफ्ते के दौरान देश के नामी और ज्यादा बिकने वाले अखबारों में सुर्खियां पाईं। ये वो मामले हैं जो रजिस्टर हुए और जिनपर पुलिस ने कार्यवाही की। ऐसे सैकड़ों अन्य मामले भी होंगे जो किसी की नजर में नहीं आए, जिसके लिए पीड़ित ने कभी पुलिस स्टेशन का मुँह नहीं देखा होगा या फिर पुलिस ने मामला दर्ज ही न किया हो ऐसा भी हो सकता है।

2019 में महिलाओं के खिलाफ किए गए पाँच प्रमुख अपराधों में सबसे ऊपर है ‘पति या रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता’। अन्य अपराधों में चार में क्रमशः ‘असॉल्ट’, ‘अपहरण’, पॉक्सो ऐक्ट के तहत दर्ज मामले और बलात्कार हैं। 2019 में सिर्फ बलात्कार के ही दर्ज मामलों की संख्या 32 हजार से अधिक है। किसी के लिए यह संख्या सिर्फ आंकड़ा होगी और इसका इस्तेमाल दुनिया भर में हो रही ऐसी घटनाओं से तुलना भर के लिए होगा। हो सकता है अन्य देशों की स्थिति से तुलना करके भारत के संस्कृतिवीर इसका इस्तेमाल ‘भारत की छवि’ को बचाने के लिए कर सकते हैं। लेकिन हर वो महिला जिसके साथ यह घटना घटी है उसकी तकलीफ का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है क्योंकि यह दर्द किसी दर्दनिवारक गोली/टैबलेट से नहीं जा सकता।

बलात्कार की घटना किसी उकसावे, बहकावे या गलती का परिणाम नहीं है बल्कि यह एक संगठित बीमारी का आपराधिक रूप है। यह एक ऐसा अपराध है जिसकी परवरिश स्वयं समाज कर रहा है। एक ऐसा समाज जो अपने बोलचाल और पारिवारिक व्यवस्था में लगातार उस बलात्कार के बीज को संरक्षित करता रहता है जिसकी फसल पीढ़ी दर पीढ़ी दुनिया के किसी न किसी कोने में हर मिनट काटी जा रही है। यह पीढ़ी और उसकी सामाजिक व्यवस्था कायर है और कायरता एक कुंठा है। हर कुंठा शारीरिक कमजोरी को अपना शिकार बनाती है ताकि कुंठा से उत्पन्न घुटन से अपनी जान बचा सके।
मैं महिलाओं के खिलाफ अपराध के ‘ग्रे’ पक्ष को नकारते हुए इसे सिर्फ ‘ब्लैक’ या ‘व्हाइट’ के रूप में ही पहचानूँगी। क्योंकि मैं मानती हूँ कि यही सच है। चूंकि राजनैतिक व्यवस्था में पुरुषों का वर्चस्व है; पहले भी रहा है और किसी भी काल की राजनीति उस समय की सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप को निर्धारित करती है इसलिए मैं मानती हूँ कि महिलाओं द्वारा झेली जा रही बलात्कार की असहनीय पीड़ा वास्तव में पुरुषवादी वर्चस्व का ‘बाइ प्रोडक्ट’ है। भारत के परिप्रेक्ष्य मे देखें तो इसका प्रमाण भारत के राजनेता स्वतः दे देंगे।

जिस देश की 80 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप में किसी न किसी देवी की पूजा करती है वहाँ का राजनैतिक नेतृत्व अपनी आने वाली पीढ़ियों को क्या संदेश देता है उसी से तय होता है कि हम महिलाओं के साथ कैसे पेश आने वाले हैं। बलात्कार के पहले कानून बनाने वाले हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा दिए गए बयान बलात्कार का प्रोत्साहन मैटेरियल तैयार करते हैं। जब एक नेता कहता है कि रात 12 बजे के बाद महिलाओं को बाहर नहीं निकलना चाहिए तो वो एक मैटेरियल तैयार कर रहा होता है जिसमें से ‘महिला स्वतंत्रता’ से स्वतंत्रता सोखी जानी होती है। जब एक राज्य का बेशर्म गृहमंत्री सदन में 2 लोगों द्वारा किए गए बलात्कार को गैंगरेप नहीं मानता और निर्लज्जता से गैंग की संख्या 4-5 को जरूरी समझता है तो इसका मतलब है वो न सिर्फ असंवेदनशील है बल्कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए राक्षस बनने को तैयार है; और ऐसे में वो गैंगबलात्कार की नींव तैयार कर रहा होता है। जब आरएसएस के चीफ बलात्कार को इंडिया और भारत में बाँटते हैं तब उनके अंदर महिला को एक खास रूप में ही रखे जाने की ललक साफ दिखती है, और ऐसे में वो बलात्कार की नींव को गहरी कर रहे होते हैं। जब बेहद बेशर्मी और कायरता भरे अंदाज में एक विधायक यह कहता है कि बलात्कार पहले भी होते थे और आज भी होते हैं ये रुकेंगे नहीं आगे भी होते रहेंगे तब उसे यह भरोसा है, जोकि झूठ है, कि उसका कोई अपना बलात्कार का शिकार नहीं हो सकता। जब कानून का भक्षक एक वकील मनोहरलाल, निर्भया मामले के 3 आरोपियों का वकील, यह कहता है कि “मैंने आजतक किसी ‘सम्मानजनक’ महिला का बलात्कार होते नहीं सुना….” तो यह साबित हो जाता है कि हम एक घुनग्रस्त खोखले समाज में रह रहे हैं जहां महिला एक वस्तु है, किसी के लिए महंगी और किसी के लिए सस्ती लेकिन उसे धन या शक्ति का इस्तेमाल करके हासिल किया जा सकता है और अगर हासिल न हो सके तो उसका स्वरूप बिगाड़ा जा सकता है ताकि महिला को अपने अस्तित्व से ही शर्म आ जाए।

क्रिमिनोलॉजिस्ट और अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्रिमिनॉलॉजी की पूर्व प्रेसीडेंट फ़्रेडा अडलर ने अपनी पुस्तक ‘सिस्टर्स इन क्राइम’ में लिखा है “यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि बलात्कार क्यों सबसे कम रिपोर्टेड अपराधों में से एक हैं। शायद यह एकमात्र अपराध है जिसमें पीड़ित ही आरोपी बन जाता है, और वास्तविकता में उसे ही अपनी अच्छी छवि, अपने मानसिक स्वास्थ्य और निष्कलंक चरित्र को साबित करना पड़ता है।”
अमेरिकी लेखक और कवयित्री ग्रिफ़िन सुज़ेन बलात्कार को सामूहिक आतंकवाद कहती हैं क्योंकि बलात्कार का डर उन्हे रात में सड़कों में नहीं निकलने देता, यह महिलाओं को घर में ही बंधकर रहने को बाध्य करता है। उन्हे निष्क्रिय व मॉडेस्ट रहने के लिए बाध्य करता है क्योंकि उन्हे यह समझाया गया है कि उनमें लोगों को उकसाने की क्षमता है।
आप अपने देश के राजनेताओं और सांस्कृतिक नेताओं के बयान और विचार ऊपर सुन चुके हैं और यह साबित हो चुका है कि फ़्रेडा अडलर और ग्रिफ़िन सुज़ेन की समस्या सिर्फ कोई पश्चिमी समस्या नहीं है। यह समस्या है मानव मूल्यों की जो कि सम्पूर्ण विश्व में समांगी रूप से फैले हैं। ऐसे मूल्य जोकि संभवतया किसी अनुत्क्रमणीय अभिक्रिया के परिणामस्वरूप लगातार महिला शोषण की दिशा में मील दर मील अपनी निम्नता के नमूने स्थापित किए जा रहे हैं।

मैं न्यायविद नहीं हूँ और न ही मृत्युदंड की कट्टर समर्थक लेकिन मुझे ‘कॉकेर बनाम जॉर्जिया, 1977’ के उस जजमेंट से पूर्ण असहमति है जिसमें फेडरल सर्वोच्च न्यायालय बलात्कार के मामले में संवैधानिक बाध्यता के अतिरिक्त इसलिए भी मृत्युदंड नकार देता है क्योंकि उसे लगता है कि बलात्कार जैसे विषय के लिए मृत्युदंड देना घोर असंगत है। हो सकता है कि मृत्युदंड बलात्कार के खिलाफ अच्छा कारक न हो, लेकिन इससे यह तय नहीं किया जा सकता कि बलात्कार जैसे अपराध के लिए किसी को मृत्युदंड न दें। वैसे कानून के इन स्तंभों को यह कैसे पता चला होगा कि बलात्कार के बाद उस महिला ने कैसा महसूस किया होगा, क्या उन्हे कभी यह पता चलेगा कि उसने खुद के एक बड़े हिस्से को मृत मान लिया है? 24×7 जीवन भर के लिए एक नासूर और उस पर लगातार किसी कील का चुभन कैसा लगता होगा? कैसा लगता होगा जब जमानत के अधिकार का इस्तेमाल कर बलात्कारी बार बार उसके सामने आता होगा? कैसा लगता होगा जब वो बलात्कारी किसी राजनैतिक दल में शामिल होकर समाज में घुल कर क्षेत्र के विकास की बातें करता होगा? मुझे लगता है यह सिर्फ बलात्कार पीड़ित ही समझ सकेगा और कोई नहीं, कोई भी नहीं! जब तक अपराधशास्त्र से बलात्कार को अलग नहीं किया जाता, इसका अलग अपराधशास्त्र नहीं बनाया जाता, इसके अपराध की एक अलग शाखा, शोध, न्यायालय और इसका अपना सर्वोच्च न्यायालय नहीं बनाया जाता कुछ नहीं होगा। महिला की अपनी पुलिस हो, इन्स्पेक्टर, थाने, एसपी, डीएम सब अलग होंगे तब जाकर न्याय की रोशनी दिखेगी। 50% आबादी को न्याय दिलाने के लिए पुरुषों के वर्चस्व से बने सिस्टम सिर्फ शोषण करेंगे। कभी यह शोषण कानूनी होगा कभी गैरकानूनी। 50% आबादी को न्याय दिलाने के लिए मुट्ठी भर महिलायें संसद में हैं जो खुद दबाव में हैं। मै मानने लगी हूँ कि अन्याय के गुब्बारे में छेद करने का समय आ गया है इसका अस्तित्व अब मिटना चाहिये।