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क्यों पक्षपात है नारी से?/ कविता

तमाम धार्मिक और सांस्कृतिक दावों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ भेदभाव क्यों रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं?

Photo Credit- World Bank

क्यों पक्षपात है नारी से?


मृदा दीप को जलवाकर
जी करता है कुछ गाऊँ मैं
जंग लगी अपनी संस्कृति को
फिर से जामा पहनाऊँ मैं ।। १।।

 

कब्र खोद कर अस्थि संजो
मुर्दों में जान पिन्हाऊं मैं
द्वापर के नायक पार्थ कृष्ण की
फिर से याद दिलाऊँ मैं।। २।।

 

कहाँ पार्थ सा रथी आज
औ कृष्ण सदृश रथ संचालक
घर घर में शकुनी का निवास
दुर्योधन सा पृथ्वी पालक।। ३।।

 

हर घर में कुबरी दासी सी
कूटनीति की जाई हैं
शूली ऊपर सेज पिया की
ऐसी भी कैकेई माई हैं।। ४।।

 

जनक नंदिनी भूमिसुता भी
ऐसी मिथिलेश कुमारी हैं
जहाँ लक्ष्मी दुखी उम्र भर
वह इसी धरा की नारी हैं।। ५।।

 

ख्याल पुलावी दिखा दिखा
गायत्री दुर्गा संज्ञा वाली
कहाँ नींद में सोई हो
धरती को गति देने वाली।। ६।।

 

इतिहासों में भी अमर हुई
चमक उठी असि भी तेरी
विश्व छोड़ जब चला तुम्हें
विस्मृत करते न लगी देरी।। ७।।

 

था धनुष यज्ञ जिसकी खातिर
ऐसी मिथिलेश कुमारी हैं
जहाँ लक्ष्मी दुखी उम्र भर
वह इसी धरा की नारी हैं।। ८।।

 

पुरुष प्रधान धरा पर इनकी
कैसी कठिन परीक्षा है?
जीवन के हर पग-पग पर
यह कैसी अग्नि परीक्षा है।। ९।।

 

त्रेता द्वापर या कलयुग हो
क्यों दाग तुम्ही पर लगता है?
क्यों पक्षपात है नारी से?
क्यो बेबस आंसू सा लगता है?।।10।।

 

आँसू अंचल के आर्द्र रहे
फिर भी औरो की आशा है
आधारशिला इस सृष्टि की
कैसी तेरी परिभाषा है? ।। 11 ।।

 

कभी जुये में हार गए
कभी दांव लगा था लंका में
अग्नि परीक्षा देकर भी
क्यों मन डरता है शंका में?।। 12।।

 

कहाँ लिखा किन ग्रंथों में
ऐसी दुर्दशा तुम्हारी है?
जहाँ लक्ष्मी दुखी उम्र भर
वह इसी धरा की नारी हैं।। 13।।

 

अब कैसे सम्मान बढ़े तेरा
कैसे पुष्पित फुलवारी हो?
कैसे उन्नत भाल रहे?
कैसा सम्मानित माली हो?।। 14।।

 

ऐसी अपमानित सुंदरता भी
चढ़ गई खड्ग की धारो पर
बनकर गुलाब का फूल खिली
चढ़ गई सुरों के पाँवों पर।। 15 ।।

 

भाव समर्पण से अपने
जिसने आभा फैलाई है
शोणित की लाली देवी के
लाल गुलाब में छाई है।। 16 ।।

 

अमृत कलश सदा से थे
हम ही थे उसके रखवाले
अमृत गिरा कलश खाली
हम ही कीचड़ भरने वाले।। 17।।

 

ऐ कविता तुमको सोच सोच
उर में उठती चिंगारी है
जहाँ लक्ष्मी दुखी उम्र भर
वह इसी धरा की नारी है।। 18।।

 

 

-‘विमल’