रेप और गैंगरेप को लेकर हमारी आधुनिक संवेदनशीलता दिसंबर 2012 को हुए निर्भया गैंगरेप मामले से जुड़ी हुई है। उसके बाद शक्तिमिल(मुंबई), कठुआ, उन्नाव, हाथरस जैसे तमाम कभी न खत्म होने वाली अंतहीन सूची महिलाओं के प्रति समाज की भावनाओं को उजागर करने में सक्षम है। नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो, 2019 के अनुसार भारत में महिलाओं के खिलाफ रेप के 32 हजार से अधिक मामले दर्ज हुए। अर्थात लगभग 88 रेप प्रतिदिन। अगर आंकड़ों से बात नहीं समझ आती हो तो आइए पिछले 2-4 दिनों के रेप के आँकड़े उठा कर देखिए; मेरा दावा है कि आपको एक सभ्य-समाज, संस्कृति व राष्ट्र के रूप में शर्म महसूस होगी। जैसे- सजेती, कानपुर का मामला जिसमें 13 साल की एक नाबालिग लड़की के साथ एक सब-इन्स्पेक्टर के बेटे और उसके साथियों ने गैंगरेप किया और अगले दिन लड़की के पिता की उस अस्पताल के बाहर ट्रक दुर्घटना में मौत हो गई जहां, पीड़िता का इलाज चल रहा था। भिवानी, हरियाणा की एक घटना जिसमें कक्षा 9 में पढ़ने वाली 16 वर्षीय लड़की का 7 लोगों ने 6 महीने तक बार-बार गैंगरेप किया। इस अनहोनी का पता तब चला जब नाबालिग गर्भवती हो गई, इस बीच ये सातों उसे और उसके परिवार को जान से मारने की धमकी देते रहे। पटना में बंदूक की नोक पर कुछ लोग एक लड़की का अपहरण करते हैं, फिर कार में गैंगरेप करते हैं और अपने इस कुकृत्य का वीडियो बनाकर उसे वायरल कर देते हैं। सिलवासा, दादरा नगर हवेली की घटना जिसमें रजत नाम का एक 30 साल का आदमी 4 वर्षीय बच्ची के साथ रेप की कोशिश करता है और उसके रो देने के कारण चाकू से उसका गला काट देता है। जिन घटनाओं की चर्चा मैं कर रही हूँ ये मात्र कुछ दिनों में घटी हैं।
एक इंसान के रूप में हमारी आत्मा को छील देने वाली ये घटनाएं, घटना के बाद अपने साथ एक उचित न्यायिक व्यवहार चाहती हैं, परंतु पीड़ित को हमेशा न्याय नहीं मिलता। न्याय तो छोड़िए कई बार उनके सम्मान को और चोटिल होना पड़ता है। भँवरीदेवी(1995) मामले को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। यह मामला 1992 में हुए एक रेप पर आधारित था। भँवरीदेवी 1985 से महिला विकास कार्यक्रम में ‘साथिन’ के रूप में राज्य सरकार के साथ काम करती थीं। इस सिलसिले में उन्हे अन्य महिलाओं के साथ गाँव में डोर-टू-डोर जाना पड़ता था। काम था विभिन्न महिलाओं संबंधी मुद्दों पर जागरूकता फैलाना। ऐसे ही एक उच्च जाति के गुर्जर घर में भँवरीदेवी को 9 साल की बच्ची की शादी की खबर मिली, भँवरी ने विरोध किया। मामला दब गया। परंतु निम्न जाति की भँवरी से उच्च जाति के गुर्जर नाराज हो गए और एक दिन भँवरीदेवी के पति के सामने ही तीन लोगों ने उसके साथ गैंगरेप किया। ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को बरी कर दिया और पिछले 25 सालों में सिर्फ एक बार ही उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई की है। परंतु ट्रायल कोर्ट ने आरोपियों को बरी करने के दौरान जो टिप्पणियाँ की वो बेहद शर्मनाक हैं। न्यायालय ने कहा कि शुद्धता को ध्यान में रखते हुए कोई उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति की महिला के साथ रेप नहीं कर सकता है; उसका पति अपनी पत्नी के रेप को सामने नहीं देख सकता; 60-70 साल के लोग रेप नहीं कर सकते; रिश्तेदार एक दूसरे के सामने रेप नहीं कर सकते। कुछ सालों पहले उच्चतम न्यायालय ने मौखिक रूप से एक आरोपी जिसने एक लड़की का 10 साल पहले यौन शोषण किया था, उससे कहा कि तुम इसके पैरों पर गिर जाओ और अगर ये तुम्हें माफ कर देती है तो हम तुम्हारी सजा को उम्र कैद से कम करके उतनी कर देंगे जितना तुम पहले काट चुके हो।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के जज जस्टिस कृष्णा एस. दीक्षित ने जून, 2020 में एक बलात्कार आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि पीड़िता रात में अपने ऑफिस क्यों गई; क्यों उसने आरोपी के साथ शराब पीने पर आपत्ति नहीं की; पीड़िता का ये कहना कि वो रेप की घटना के बाद थककर सो गई थी, भारतीय महिलाओं जैसा व्यवहार नहीं है; हमारी महिलाओं के साथ जब ये सब होता है तो वो ऐसे व्यवहार नहीं करतीं(काफी विवाद के बाद जज ने अपने आब्ज़र्वैशन को हटा दिया)। बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने एक रेप के मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अगर आरोपी पीड़िता को एक लाख रुपए देने का वादा करे तो आरोपी की सजा कुछ कम की जा सकती है। एक अन्य मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि शादी के वादे से मुकरना न ही रेप की श्रेणी में आता है और न ही धोखा। मद्रास हाईकोर्ट ने एक रेप के आरोपी को सिर्फ इसलिए जमानत दे दी क्योंकि वो पीड़िता के साथ समझौता करना चाहता था, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत ही संज्ञान लेकर इस जमानत को खारिज कर दिया था। 2020 के निर्णय में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक पति की तलाक की उस अर्जी को पर्याप्त मान लिया जिसके अनुसार उसकी पत्नी ने सिंदूर और चूड़ियों को पहने से इनकार कर दिया था। एक अन्य मामले में मद्रास उच्च न्यायालय को यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं हुआ कि ‘निर्वाह निधि(अलिमॉनी) को पाने की इच्छा रखने वाली महिला को यौन शुद्धता का ध्यान रखना चाहिए’। जस्टिस मार्कन्डेय काटजू को भी दूसरी हिन्दू पत्नी को ‘कीप’ और ‘मिस्ट्रेस’ कहने में संकोच नहीं हुआ और मान बैठे कि उसे भरण पोषण की निधि पाने का अधिकार नहीं।
नरेंद्र बनाम के. मीणा(2016) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पत्नी को पति के परिवार के साथ पूर्णतया जोड़ लेना चाहिए; और यदि वो ऐसा करने से इनकार करती है तो इसे क्रूरता समझा जाएगा; और ऐसे में पति को पत्नी से तलाक मांगने का पूरा हक होगा।
ऐसे सैकड़ों हजारों की संख्या में मामले हैं जिन पर प्रश्न उठाया जा सकता है और उठाया भी जाना चाहिए। कितनी ही महिलायें भारतीय न्यायालयों के पुरुषोन्मुख रवैये की वजह से मानसिक व शारीरिक पीड़ा झेल रही हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश की पदवी पर बैठे व्यक्ति के पास यद्यपि कानूनी रूप से पीड़ित से प्रश्न पूछने के सभी अधिकार हैं लेकिन वो स्वयं एक महिला को नैसर्गिक रूप से मिले अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। लेकिन मुख्य न्यायाधीश जब यह प्रश्न पूछते हैं कि “जब लोग आपस में पति पत्नी के रूप में रह रहे हैं तो उनके बीच किया गया कोई इंटरकोर्स क्या रेप की श्रेणी में आएगा, भले ही पति पाशविक क्यों न हो”? जब इंटरकोर्स महिला ने किया या महिला के साथ हुआ तो यह बताने का हक भी महिला का ही होगा कि वह इन्टरकोर्स,रेप है या नहीं। जज साहब को सोचना चाहिए था कि जिस रिश्ते में इन्टरकोर्स एक आवश्यकता और भलीभाँति जाना पहचाना पहलू है उसे लेकर कोई महिला देश के सर्वोच्च न्यायायले तक क्यों पहुँच जाएगी? क्या जज साहब नहीं जानते कि सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचने में किन आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से गुजरना होता है? क्या महिला का इंटेन्शन जानने की जरूरत नहीं? क्या कानून का यह सिद्धांत “Actus non facit reum nisi mens sit rea” यहाँ नहीं लागू हो सकता?(भले ही महिला यहाँ आरोपी के रूप में नहीं आई है)
मैं अदालत का सम्मान करती हूँ,क्योंकि उनपर संविधान की रक्षा का दायित्व है, लेकिन जिस तरह के ऊटपटाँग निर्णय हमारे माननीय न्यायालय देते रहे हैं और लगातार दे रहे हैं उससे लगता है कि ऐसे निर्णय और न्याय करने/सुनाने वाली संस्था कोई न्यायालय नहीं, बल्कि पुरुषों का एक समूह मात्र है जिसे काले कपड़ों में संविधान को जानने का घमंड हो चुका है। सम्मान और आदर संसद के अंदर बने कानूनों से नहीं आचरण से उत्पन्न होता है। संसदीय प्रणाली के वैसे कानून जिसमें भावनाओं का समावेश नहीं होता उन्हे ‘भय’ उत्पन्न करने के लिए तैयार किया जाता है। महिलाओं को चाहिए कि ऐसे निर्णयों और विवादों पर खुलकर अपनी प्रतिक्रिया और रोष व्यक्त करें, इस पुरुषप्रधान समाज को जानना होगा की आधी आबादी के साथ कैसे पेश आना है,साथ ही यह भी कि, कैसे उनके अधिकारों के बीच में नहीं आना है। संसद और सरकारों को भी समझना होगा कि महिला को किसी सरकारी योजना के अंदर एक वोट बैंक के रूप में समाहित करने वाले अपने प्रयासों पर वो तत्काल रोक लगाए। महिलायें इस वोट वाली योजना के बाहर हैं और यह भी जान लें कि उनकी अपनी स्वयं की योजनाएं हैं। और ऐसे में यदि न्यायालय और संसद की कोई अवमानना उनसे हो जाती है तो इसे आधी आबादी की ‘आवश्यक’ आपत्ति समझें…सालों से चले आ रहे इस महिला सामाजिक कार्यकर्ता के खेल से महिलाएं अब ऊब चुकी हैं। ‘महिला अधिकार’ हर महिला का जन्मसिद्ध अधिकार हैं और अब इसे वो लेने जा रही हैं।