आज 8 मार्च 2021 है, किसान आंदोलन के 103 दिन हो गए हैं, पर किसानों की मांगें पूरी नहीं हुई हैं, माहौल ये है कि जिस सरकार से वो मांगे कर रहे हैं उनका पूरा ध्यान बंगाल के चुनाव पर है, चुनाव प्रचार में तृणमूल काँग्रेस की नेता ममता बनर्जी पर खूब महिलावादी प्रहार भी हो रहे हैं, इसी बीच कुछ और घटनाएं घटी हैं जैसे अमेरिकी मैगजीन टाइम के कवर पेज पर भारतीय महिला किसानों का ठनक के साथ कवर किया जाना, हाथरस में दो वीभत्स बलात्कार की घटनाएं, भारतीय मूल की कमला हैरिस का USA की पहली महिला उपराष्ट्रपति बनना, भारत के मुख्य न्यायधीश का बलात्कार पीड़िता से आरोपी को शादी करने के लिए पूछना और उत्तर प्रदेश शासन का वो काला आदेश जिसमें जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी का एक अपमानपूर्ण सर्कुलर जिसमें वो 8 मार्च महिला दिवस के दिन सुबह 4 बजे 14 महिलाओं को मुख्यमंत्री के सम्मान और महिला दिवस के उपलक्ष्य में रंगोली और मंच सजाने के लिए लगभग धमकी देकर बुला रहे हैं। ऐसी ही मिलती जुलती और कई घटनाएं घटी हैं, जो ‘परिवर्तन’ का न सिर्फ आगाज़ हैं बल्कि इसे अवश्यंभावी भी साबित कर रही हैं।टाइम मैगजीन का कवर यह बताने के लिए पर्याप्त है कि महिलाओं में नेतृत्व अब नीचे से ऊपर की ओर उभर रहा है।
किसान आंदोलन में जिस तरह महिलायें सरकारी जड़ता, क्रूरता और नजरंदाजी का सामना भीषण जाड़े भर करती रहीं लगभग उसी तेवर के साथ वो ‘दिल्ली’ की गर्मी सहने को तैयार हैं। टाइम के कवर में छपीं 74 वर्षीय जसबीर कौर, (रामपुर, उत्तर प्रदेश) जब कहती हैं “हम यहाँ से क्यों जाएँ? यह केवल पुरुषों का विरोध प्रदर्शन नहीं हैं। खेतों में हम पुरुषों के साथ कठोर परिश्रम करते हैं खुद को खपाते हैं, हम यदि किसान नहीं तो कौन हैं?” और जसबीर कौर के इस प्रश्न से देश का सर्वोच्च न्यायालय स्वयं सीख ले लेगा, क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश को लगता था कि महिलाओं और बुजुर्गों को धरना स्थल छोड़ देना चाहिए क्योंकि वहाँ की परिस्थितियाँ काफी कठोर हैं।
जसबीर कौर ने बता दिया कि जो शरीर से कठोर है और मन से निर्मल है वही औरत है। अगर न्यायालय को हस्तक्षेप करना था, उन्हे महिलाओं की सच में चिंता थी, तो उसे सरकार से पूछना चाहिए था कि ऐसा क्यों है कि ग्रामीण भारत की 85% महिलायें काम तो खेती में करती हैं, किसी न किसी रूप में कृषि कार्यों में संलग्न हैं लेकिन उनमें से सिर्फ 13% महिलाओं के पास ही किसी भूमि का स्वामित्व है। सर्वोच्च न्यायालय को न सिर्फ पूछना चाहिए बल्कि समय-समय पर सरकार से इसकी प्रगति रिपोर्ट भी लेनी चाहिए कि कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र में भी अगर हम महिलाओं को अधिकार और मालिकाना हक़ नहीं दे सके तो और अन्य किस जगह देने की संभावना है?
21 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि, मजदूर संघ की नवदीप कौर, पिंजड़ा तोड़ की देवांगना कालिता, और चाहे सफ़ूरा जरगर हों, ये महिलायें और सरकारों द्वारा इनके साथ किया गया आचरण, व्यवहार और रवैये से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या 21 वीं सदी का तीसरा दशक महिला चेतन के अंकुर में अब विस्फोट करने को तैयार है? मुझे नहीं लगता कि महिलायें किसी सरकार और व्यवस्था से डरने को तैयार हैं; खासकर तब जब उनके पास स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत भारत का संविधान और संवैधानिक अधिकार हैं। भले ही इस संविधान के कस्टोडीयन अपने ध्यान भटकने की समस्या से ग्रसित हों, या कानूनी पंक्तियों में न्याय खोजने के आदी हो चुके हों लेकिन यह बहुत ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। चल भी कैसे सकता है? एक युवा महिला जो गर्भवती है वो महीनों तक जेल के घोर अस्वच्छ वातावरण में रहती है लेकिन संविधान के कस्टोडीयन आगे बढ़कर, सरकारों को फटकार कर, मानव अधिकारों को आगे रख खुद कभी आगे नहीं आते। वो महिला सारा उत्पीड़न झेल भी लेती है, मजबूत बन जाती है और अब आगे और भी किसी भी स्तर के उत्पीड़न को बर्दाश्त करने को तैयार हो जाती है। मैं ये बात पक्के तौर पर कह सकती हूँ कि महिलाओं मे यह बर्दाश्त करने की मजबूर क्षमता उसे संस्थानों के लचर और कमजोर आचरण से ही मिल रही है।
किस तरह एक साहसी वरिष्ठ महिला वकील इंदिरा जय सिंह महीनों से जेल में बंद एक बुजुर्ग वरवरा राव को जेल से बाहर निकाल लाती हैं, यह वाकई अहम है। अहम इसलिए क्योंकि इस पुरुषवादी समाज में जिसमें सरकारें,मीडिया का बड़ा वर्ग और न्यायपालिका सभी शामिल हैं, उससे टकराना और एक ऐसे व्यक्ति को जेल से बाहर लाना जिसे वर्तमान सरकार बाहर निकालने ही देना नहीं चाहती थी।
भारत वह देश है जहां की 80% आबादी किसी न किसी देवी की पूजा जरूर करती है इसके बावजूद यथार्थ तो ये है कि महिलायें अपने स्वयं के कल्याण के लिए किसी भी पुरुष पर अपनी निर्भरता को लगातार न सिर्फ कम कर रही हैं बल्कि कई मामलों में तो वो इस निर्भरता को फाड़ देना चाहती हैं भले ही इसके बाद उनके पास खुद को बचाने के लिए कोई छत न हो। शायद ‘छत’ से ज्यादा जरूरी उनके लिए है उनका छत विक्षत मानसिक अंतःस्थल जिसका उपचार छत के बाहर और संस्कृति के उस पार ही मिलने की संभावना है। जिस तरह महिलाओं ने आक्रामक ‘मी टू आंदोलन’ चलाया और लगभग दुनिया की हर महिला इसमें प्रायोगिक और भुक्तभोगी के रूप में शामिल हो गई उससे यह तो तय है कि महिला अपने ऊपर किए गए किसी भी नए या पुराने अत्याचार को सहने की अवस्था में नहीं है, फिर चाहे शोषण का मामला भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश से ही क्यों न जुड़ा हो।
अगर अभी भी आप महिलाओं से एक उदार और सहयोगी व्यवहार चाहते हैं तो हमें अपने आप से और अपनी सरकारों से एवं संस्थाओं से ये प्रश्न पूछने चाहिए- 2019 में महिलाओं द्वारा रिपोर्ट किए गए 32 हजार से अधिक बलात्कार के मामले क्यों हैं? 2019 में महिलाओं पर होने वाले विभिन्न अपराधों की संख्या 4 लाख को पार कर गई। भारत में महिलायें आर्थिक रूप से सशक्त हों इस पर ध्यान क्यों नहीं है ? ऐसा क्यों है कि वैश्विक औसत 37% के मुकाबले भारत में महिलाओं का जीडीपी में योगदान मात्र 17% ही है? आप महिलाओं को आर्थिक रूप से कमजोर रखिए, मानसिक रूप से गली मुहल्ले के निठल्लों से लेकर सफेद पोशों तक के यौन उत्पीड़न को सहने को कहिए और तिलक लगाकर महिलाओं को संस्कृति का पहिया बनने को कहिए और फिर भी सोचिए की आपको वही नारी मिलेगी जिसकी कल्पना जयशंकर प्रसाद ने की थी कि “नारी तुम श्रद्धा हो”.. तो आप यह सुन लें कि महिलायें इसे नकार रही हैं।