लोकतान्त्रिक समाज क्या है और संविधान बनाते समय संविधान निर्माताओं ने किन मूल्यों और आदर्शों को संविधान और लोकतंत्र की नींव माना था, यह बात भारत के पहले प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरू, पहले उपराष्ट्रपति और ‘दार्शनिक राजा’ के नाम से विख्यात सर्वपल्ली राधाकृष्णन और संविधान निर्माण के लिए बनी प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर के विभिन्न भाषणों से समझा जा सकता है।
प. जवाहरलाल नेहरू:-
“भूतकाल में लोकतंत्र को राजनैतिक लोकतंत्र के रूप में ही पहचाना गया जिसमें मोटे तौर पर एक व्यक्ति का एक मत होता है। किन्तु मत का उस व्यक्ति के लिए कोई महत्व नहीं होता जो निर्धन और निर्बल है या ऐसे व्यक्ति के लिए जो भूखा है और भूख से मर रहा है, राजनैतिक लोकतंत्र अपने आप में पर्याप्त नहीं है। उसका आर्थिक लोकतंत्र और समानता में धीरे-धीरे वृद्धि करने के लिए और जीवन की सुख सुविधाओं को दूसरों तक पहुंचाने के लिए तथा सभी असमानताओं को हटाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।”
सर्वपल्ली राधाकृष्णन:-
“जो गरीब इधर उधर भटक रहे हैं, जिनके पास कोई काम नहीं है, जिन्हे कोई मजदूरी नहीं मिलती और जो भूख से मर रहे हैं, जो निरंतर कचोटने वाली गरीबी के शिकार हैं वे संविधान या उसकी विधि पर गर्व नहीं कर सकते।”
डॉ. भीमराव अंबेडकर:-
“यदि राजनैतिक लोकतंत्र का आधार सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह नष्ट हो जाएगा। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है, इसका अर्थ है वह जीवन पद्धति जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को मान्यता देती है। जिसमें ये दोनों अलग अलग न माने जाकर त्रिमूर्ति के रूप में माने जाते हैं। वे इस त्रिमूर्ति का एकीकरण है। इस अर्थ में यदि एक को हम दूसरे से अलग कर दें तो लोकतंत्र का आशय निष्फल हो जायगा। स्वतंत्र को समानता से अलग नहीं किया जा सकता, समानता को स्वतंत्रता से पृथक नहीं किया सकता। इसी प्रकार स्वतंत्रता और समानता को बंधुतत्व से विलग नहीं किया जा सकता।”