यह विचार ही घिनौना है!

चुनाव से बड़ा कुछ नहीं, न महिला न पुरुष न संस्थान और ना ही भगवान। वक्त के साथ इस्तेमाल करो और लग जाओ फिर अगले चुनाव में

विश्व आर्थिक मंच ने ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट-2021’ जारी करके भारत को पिछले साल के मुक़ाबले 28 पायदान नीचे खिसकाया है, 2020 में भारत में लैंगिक अंतराल की रैंकिंग 112वीं थी और इस साल लैंगिक अंतराल बढ़ा, तो यह रैंकिंग 140वीं हो गयी। सीधे शब्दों में समझें तो इसका मतलब यह हुआ कि भारत में बीते एक साल में ही महिलाओं से भेदभाव (स्त्री होने के कारण)और भेदभाव के इरादे में भारी इज़ाफ़ा हुआ है। अब तो भारत नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका से भी पीछे हैं।

2006 से प्रकाशित होने वाली इस रिपोर्ट में 4 प्रमुख आयाम हैं,पहला-आर्थिक भागीदारी व अवसर, दूसरा-शिक्षा की प्राप्ति, तीसरा- स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता और चौथा है- राजनीतिक सशक्तिकरण। WEF ने इन आयामों पर खूब प्रकाश डाला है, उदाहरण के लिए देश में महिला मंत्रियों का प्रतिशत जो 2019 में 23.1% था वो 2021 में घटकर 9.1% रह गया, आर्थिक दरारें चौड़ी और गहरी हुई हैं, सिर्फ़ 8.9% कम्पनियों/फ़र्म में महिलाएँ उच्च पदों पर हैं, आमदनी पुरुषों के मुक़ाबले 1/5 रह गयी है। आय का लैंगिक अंतराल तो पाकिस्तान और अफगनिस्तान से भी बदतर है। रिपोर्ट ये भी कहती है कि अगर ये रफ़्तार रही तो भारत देश (दक्षिण एशिया) में इस लैंगिक अंतराल को भरने में 195.4 वर्षों का समय लगेगा।
मै तो मानती हूँ कि विश्व आर्थिक मंच भले ही इन 4 आयामो (शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार,और राजनैतिक पदों) से महिला हालात को परख ले पर ये आयाम भारत में महिलाओं की पुरुषों के मुक़ाबले स्थिति को समझाने में पूरी तरह से नाकाफ़ी हैं। महिला जो अचीव कर चुकी, उसे इससे आंकना ग़लत होगा। क्या मलाला यूसुफ़जई की आज की स्थिति के लिए पाकिस्तान को श्रेय देना उचित होगा? मुझे नहीं लगता की ये सही होगा। मलाला जो आज हैं वो अपने संघर्ष का परिणाम हैं, उस लड़ाई से जीत का परिणाम हैं जिसे कोई लड़ना नहीं चाहेगा। किसी देश का लैंगिक अंतराल वहाँ की पुरुषवादी सांस्कृतिक मानसिकता (बालविवाह,अशिक्षा,दहेज़,गालियाँ,दबाव,अनादर,कमतर आंकना) का उत्पाद है। इस उत्पाद अर्थात लैंगिक अंतराल का आकार उतना बड़ा होगा जितनी गहरी इस मानसिकता की जड़ें होंगी। ये जड़ें,व्यक्ति से परिवार; परिवार से समाज के रास्ते प्रशासन न्यायपालिका और विधायिका तक जाती हैं। ऐसे में लैंगिक अंतराल को मापने के तरीक़े को बदल देना चाहिए। मै तो कहूँगी कि विश्व आर्थिक मंच को किसी भी देश, उदाहरण के लिए भारत, के लैंगिक अंतराल को मापने के लिए वर्ष भर, महिलाओं के ख़िलाफ़ नेताओं, न्यायालयों तथा अन्य प्रमुख हस्तियों के महिला विरोधी टिप्पणियों को नोट करना चाहिए। जैसे- 50 करोड़ की गर्लफ़्रेंड, काँग्रेस की विधवा, जर्सी गाय का हाइब्रिड बच्चा आदि। फिर ये देखना चाहिए की इन स्टेट्मेंट्स को कहने वाला नेता कौन है वह न्यायाधीश कौन है? वह देश के किस पद पर आसीन है? क्या उसके ख़िलाफ़ शिकायत किए जाने पर महिला को न्याय मिल सकेगा? अब ये देखना होगा कि जिस महिला के बारे में महिलाविरोधी टिप्पणी की गयी है उसका क़द क्या है? उसके बाद ये देखना होगा कि प्रशासन ने इस महिलाविरोधी टिप्पणी को लेकर क्या कार्यवाही की? यदि किसी के ख़िलाफ़ कार्यवाही की भी गयी है तो क्या मामला अपने अंजाम तक पहुँचा पाया? अर्थात् क्या महिला को न्याय मिल पाया? इसके बाद यह भी देखा जाना चाहिए की ऐसे अपराधों की पुनरावृत्ति का पैटर्न क्या है? और यह भी कि देश का मेन्स्ट्रीम मीडिया (जिसके मालिक अरबपति हैं) इस मामले को कैसे और कितना महत्व देता है? क्या यह मीडिया टिप्पणी करने वाले नेता या प्रभावशाली व्यक्ति की खुली आलोचना कर पाता है?

विश्व आर्थिक मंच इन सारे तथ्यों को अपने 4 वर्तमान आयामों के साथ जोड़ ले तो, वास्तविक लैंगिक अंतराल के आसपास पहुँचा जा सकता है। अन्यथा ये रिपोर्ट एक बौद्धिक व्यायाम ही सिद्ध होगी।
आइए इस पुरुष संस्कृति और सांस्कृतिक मानसिकता को और समझने की कोशिश करते हैं- ’50 करोड़ की गर्लफ़्रेंड’ एक टिप्पणी है, जिसका संज्ञान आप सभी को लेना चाहिए, यह टिप्पणी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (वर्तमान प्रधानमंत्री)श्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गयी थी, प्रशासन(संस्थाएँ) इस टिप्पणी पर कुछ नहीं कर सकीं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ यह टिप्पणी देश की एक जानी मानी हस्ती और सफल महिला उद्यमी सुनंदा पुष्कर के ख़िलाफ़ की गयी थी, इनके पति केंद्र सरकार में मंत्री थे।

अग़ल उदाहरण पश्चिम बंगाल के एक नेता सुभेंदु अधिकारी का है जो हाल ही में तृणमूल काँग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं। पश्चिम बंगाल में चुनाव चल रहे हैं और सुभेंदु अधिकारी तृणमूल काँग्रेस की नेता व वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को ‘ममता बानो’ कहकर सम्बोधित कर रहे हैं। वो सिर्फ़ एक चुनाव जीतने की जुगत में एक महिला जो स्वयं के सामर्थ्य से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँची उसका अपमान/अनादर कर रहे हैं, उस महिला के पीछे ना कोई बड़ा राजनीतिक परिवार था और ना ही संघ परिवार, बावजूद इसके उन्होंने बेजोड़ राजनीतिक सफलता हासिल की। विश्व आर्थिक मंच अब ज़रा ध्यान से समझे, जो आदमी ममता बनर्जी को ‘ममता बानो’ कह रहा है वो एक समय ममता बनर्जी के बिना राजनीतिक रूप से महत्वहीन व्यक्ति थे। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था इस धृष्टता को नज़रंदाज़ किये जा रही है। 10 करोड़ आबादी की उच्चतम प्रतिनिधि और राज्य का सर्वोच्च राजनीतिक संवैधानिक पद धारण करने वाली महिला भी इस तरह की अभद्र टिप्पणी का शिकार होती है तो विश्व आर्थिक मंच के उन 4 आयामों का अचार बनाकर दावोस में बाँट दिया जाना चाहिए जिनके आधार पर वो लैंगिक अंतराल का मापन कर रहा है। क्योंकि ये आयाम लैंगिक अंतराल के सांस्कृतिक मानसिक पक्ष को सम्भाल नहीं पा रहे हैं और किसी काम के नहीं रह गए हैं।

भारत में साधू,संत सांस्कृतिक विरासत का महत्त्वपूर्ण अंग हैं और ये लोग ऋग्वेद और अपाला,घोषा,गार्गी जैसी विदुषी महिलाओं का नाम उद्धृत कर भारत में स्त्री सम्मान और समानता की बांसुरी बजाते रहते हैं परंतु जब वर्तमान में महिलाओं की स्थिति की बात आए तो न कोई साधु अखाडा न कोई साध्वी न कोई सद्गुरू और न ही कोई रामकथा वाचक, किसी साधू ने महिला शोषण, लैंगिक अंतराल, बलात्कार आदि मुद्दों को लेकर कभी भी कोई आंदोलन या सक्रिय प्रतिवाद नहीं किया। क्योंकि ‘पास्ट ग्लोरी’ में अकर्मण्यता का जो आनंद है उसकी बात ही अलग है। कौन चाहता है कि सरकारों पर प्रश्न उठाएँ, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री पर प्रश्न उठाएँ, और पूछें कि आप देश चला रहे हैं या राशन की दुकान? इतनी हिम्मत करते ही आश्रम उखड़ जाएँगे(मध्य प्रदेश सरकार का विरोध करने वाले कम्प्यूटर बाबा का आश्रम याद रहना चाहिए)।
भारत जैसे देशों में महिलाओं की स्थिति को इसलिए भी गम्भीरता से लेना चाहिए क्योंकि यहाँ संविधान, क़ानून और धर्म में महिला को पर्याप्त संरक्षण और शक्ति प्रदान की गयी है। वोट देने का अधिकार है, सम्पत्ति का अधिकार है, दहेज प्रथा से सुरक्षा है, समानता का अधिकार(अनुच्छेद14), भेदभाव से सुरक्षा(अनुच्छेद15(1)), अवसर की समानता (अनुच्छेद 16), समान कार्य के लिए समान वेतन(अनुच्छेद 39(डी)), गौरव व मर्यादा की रक्षा(अनुच्छेद 51(ए)(ई)), ऐसे तमाम अधिकार हैं जिनके बाग क़ानून की किताबों में काग़ज़ी फूल पैदा कर रहे हैं। ये काग़ज़ी फूल ही तो हैं वरना देश के मुख्य न्यायधीश के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला को न्याय देने के लिए खुद वही न्यायाधीश जांच न करते जिनपर उत्पीड़न करने का आरोप था। न्यायालय पीड़ित महिलाओं से असंवेदनशीलता का व्यवहार ना करते और न ही उन्हें बलात्कारी से विवाह के लिए प्रस्ताव देते। महिला अधिकारों के लिए आधुनिक भारत में काफ़ी लम्बी लड़ाई लड़ी जा चुकी है, जिसका आरंभ सतीप्रथा के अंत, विधवा विवाह, बाल विवाह उन्मूलन आदि से होते हुए वोट आदि के अधिकारों में मिल जाती है। रुकमाबाई, रूकैया, सावित्रीबाई फूले,पंडिता रमाबाई, कादम्बिनी गांगुली, दुर्गाबाई देशमुख से होते हुए सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता तक ढेरों महिलाओं ने किसी ना किसी रूप में खुद को विपरीत से विपरीत स्थितियों में स्थापित किया है। कोई सुभेंदु अधिकारी या कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या फिर कोई न्यायाधीश इस यात्रा को चोट ना पहुँचा दे इसे लेकर देश के सभी लोगों को एक समाज के रूप में सतर्क और संगठित रहना चाहिए। किसी स्त्री के अनादर का मज़ा नही लेना चाहिए।
ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ चल रही घटिया बयानबाज़ी भारत में गिरते पारिवारिक परवरिश की ओर इशारा है। यह भी कि चुनाव से बड़ा कुछ नहीं, न महिला न पुरुष न संस्थान और ना ही भगवान। वक्त के साथ इस्तेमाल करो और लग जाओ फिर अगले चुनाव में। मीडिया को चुनाव की आड़ में चल रहे इस धूर्तयुद्ध का पर्दाफ़ाश करना चाहिए, पर वो सत्ता के सामने झुक गया है और सत्ता की हर गंदगी को सोख रहा है और प्रतिक्रियाविहीन अवस्था में वर्षों से सोने का ढोंग कर रहा है। पर किसी को तो सतर्क होना ही चाहिए। महिलाएँ स्वयं तय करें की वो पार्टी विचार और दल के उस पार जाकर महिलाओं का समर्थन करेंगी, साहस देंगी, अपने ही पसंद के नेता दल व संगठन की आलोचना से चूकेंगी नहीं चाहे परिणाम कुछ भी हो। दल आएँगे जाएँगे पर निर्माण की निर्मात्री, महिला सदा थी, है और रहेगी। कहने को तो ममता भी सभेंदु अधिकारी को सभेंदु मुहम्मद बुख़ारी बोल सकती थीं। पर मैं जानती हूँ कि राजनीतिक दाँवपेंच से अलग, वो एक महिला है। घाव देना नहीं भरना जानती हैं। राजनीति के लिए कुछ भी ! कितना भी ! यह विचार ही घिनौना है! ये भारत नहीं ..भारतीय नहीं।