भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू देश की अवसंरचना की एक एक ईंट रख रहे थे। देश के विकास में योगदान का जज़्बा रखने वाले हर व्यक्ति को मौका देना चाहते थे। भले ही किसी का जज़्बा धरातल और वास्तविकता से मेल भी न खाता हो। नेहरू जी भारत के लिए कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ना चाहते थे जहां लेशमात्र की भी संभावना हो।
बात मार्च 1954 की है। तब देश के रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री थे। नेहरू जी को पता चला कि कलकत्ता का एक युवा उद्योगपति भारत में रेल के डिब्बों को बनाने की फैक्ट्री खोलना चाहता है। उन्हे जानकार यह आश्चर्य हुआ कि रेलवे बोर्ड का कोई भी अधिकारी उसके प्रस्ताव तक को सुनने के लिए तैयार नहीं है। थक हारकर उस उद्योगपति ने नेहरू जी को ही लेटर लिख दिया।
नेहरू जी ने पत्र का तत्काल संज्ञान लेते हुए उस समय के रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को लिखा-
“कलकत्ता के एक व्यवसायी एम.सी. रे ने रेलवे वैगनों, इंजनों आदि के निर्माण के लिए एक कारखाना स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था, जो अभी भी आयात किए जा रहे थे। उन्होंने अपने प्रस्ताव में रेलवे बोर्ड की ओर से रुचि न होने की शिकायत की है। मुझे लगता है इस संबंध में आपको तहकीकात करनी चाहिए। इस आदमी को यह समझाने का मौका दें कि वह क्या कर सकता है। हो सकता है कि वह बहुत कुछ न कर सके, लेकिन हमें युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए और इस तरह से उन्हें हतोत्साहित नहीं करना चाहिए।”
राष्ट्र के निर्माण के लिए हर एक प्रधानमंत्री का योगदान सराहनीय है। लेकिन जिसने ग़ुलामी देखी हो, उसकी प्रताड़ना को सहा हो, जिसमें स्वाधीनता संग्राम के मूल्य मोजैक की तरह धँसे हों, जब वह प्रधानमंत्री बनता है और देश को एक एक ईंट रखकर बनाता है, तब उसकी तुलना किसी भी अन्य प्रधानमंत्री से की ही नहीं जा सकती। नेहरू ऐसे ही प्रधानमंत्री थे।