भुखमरी ने खेले खेल बहुत….दिल के टुकड़े भी बेचे हैं…/ कविता

भुखमरी    पौरुष     यदि     विश्राम    करे    अंचल   में   सुषमा के   आकर    पंकिल   भूगोल    धरा    लेकर     मिट    जायेगी    माहुर  खाकर।। 1।।     यौवन   की   आँखो  के  सपने     उड़   गए 

‘आचारसंहिता का इतना, नाजायज उपभोग किया’ / कविता

कोलाहल   ऐ कविता तुमको कसम मेरी दृग शबनम से अभिनंदन कर झूठी श्लाघा का परित्याग कर नंदन वन मे बंदन् कर।। 1।। तुमसे यह आशा नहीं कि तुम सोने का हार पहन डोलो गावों से लेकर संसद तक अनुशासन पर खुलकर

सिंहासन को याद नहीं,शीतल घनरस से नहलाना/ कविता

सीख प्रेमरस बरसाना ==================   ऐ कलम सिपाही देख ज़रा  ऊपर मेघों का घहराना बदल पैंतरा थोड़ा सा अब सीख प्रेमरस बरसाना।। 1।। इस पुण्यभूमि पर संकट की काली छाया है डोल रही इसके पुत्रों में त्राहि- त्राहि नफरत की ज्वाल हिलोर

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क्यों पक्षपात है नारी से?/ कविता

क्यों पक्षपात है नारी से? मृदा दीप को जलवाकर जी करता है कुछ गाऊँ मैं जंग लगी अपनी संस्कृति को फिर से जामा पहनाऊँ मैं ।। १।।   कब्र खोद कर अस्थि संजो मुर्दों में जान पिन्हाऊं मैं द्वापर के नायक पार्थ

“साधु वेश धर मीडिया में, बहुत लुटेरे आये हैं”/ कविता

  मीडिया की नकारात्मक दिशा वह कौन व्यथित हो रोता है भावी इतिहास नियंत्रक से जिसमे मानवता सिसक रही कुटिल नीति अभियंत्रक से   मलिन हृदय के परिपोषक माया मे पलने वाले झूठी खबरों के संवाहक दो कौड़ी मे बिकने वाले  

‘राजनीति के खूनी गिद्धों की आवाज़ छीनकर रख लेना’

वह दम तोड़ती सिसक रही/है संसद के गलियारों में/अपना चीर हरण करवाती/आबद्ध घृणा के घेरों में   राजनीति   राजनीति के पन्नों  पर बोली लगी निठल्लों पर कोई दल को बदल रहा कोई ज़हर उगलता दल्लों पर     भूत एक का

यदि वृक्ष रहा होता मैं तो

दर्द भरा मन   यह व्योम बड़ा विस्तृत लगता,शून्य में आहें खो जातीं, स्मृति में अपनों के आते,आँखों से ढलते हैं मोती। अब और न कुछ चहिये मुझको,आँखों में हो पावन ज्योति, नैन से नैन मिलाते रहो प्रभु,जिससे निकले असली मोती। दर्द

“क्या ढूंढ रहे हो इधर उधर कस्तूरी तेरे अंदर है”

परिश्रम का फल   भूत कि चिंता भूत हुई वह भूत किसी ने न देखा जी भर कर जीना हक मेरा आगंतुक कल है अनदेखा। समय जो बीत रहा हर क्षण; यह दुर्लभ भी है चोखा है, पर सोच सोच कर डर