लोकतान्त्रिक मूल्यों से दूरी क्यों?

याद कीजिए, कब आपने अपनी पसंदीदा सरकार को उसकी लोक विरोधी गतिविधियों के लिए कटघरे में खड़ा किया है?

महाभारत का युद्ध चल रहा था। कर्ण और अर्जुन की पुरानी प्रतिद्वंदिता थी। कर्ण किसी भी तरह अर्जुन को परास्त करना चाहता था। कहते हैं एक ऐसा मौका आया था जब कर्ण अर्जुन को परास्त कर सकता था। एक कथा है कि जब सारे पांडव लाक्षागृह में फंसे हुए थे तो माता कुंती को बाहर निकालते वक़्त अर्जुन ने एक सर्प को आग में फेंका जो दरवाजे पर आ गया था। वो एक सर्पिणी थी जो गर्भवती थी। इस तरह फेंकने से उसे प्रसव हो गया। वो आग में गिर गई पर उस नन्हे सपोले ने अर्जुन को अपनी माँ को आग में फेंकते देख लिया था और तब से वह अर्जुन से बदला लेने की फिराक में था।

 

 

कहते हैं कि कुरुक्षेत्र में जब कर्ण और अर्जुन का युद्ध चल रहा था तो वही सपोला जिसका नाम अश्वसेन था कर्ण के पास गया और बोला उस दिन आग बीच में आ गई थी, बस एक बार किसी तरह मुझे अर्जुन के समीप पहुँचा दो। दोनों का दुश्मन एक ही है।

दिनकर जी ने ‘रश्मिरथी’ में बड़ा ही रोचक वर्णन किया है जब कर्ण सर्प को धिक्कारते हुए कहता है

 

जा भाग मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता
मैं किसी हेतु भी यह कलंक, अपने पर नहीं लगा सकता

 

 

उपरोक्त संदर्भ इसलिए है कि हम उस परम्परा से चले थे जहाँ शत्रुता में भी एक मर्यादा होती थी। युद्ध के भी कुछ नियम होते थे। जहाँ विरोधी का भी आदर होता था।

संसद का सम्मान 

हम उस संसद का सम्मान करते हैं जहाँ अपने धुर विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने कैबिनेट में शामिल करके पंडित नेहरू ने उन्हें एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी। हम उस संसद का सम्मान करते हैं जिसमें बैठी एक महिला ने विश्व का भूगोल बदलते हुए नया इतिहास लिखा जिसे दुनिया आयरन लेडी इंदिरा गांधी के नाम से जानती है।

 


हम उस संसद का सम्मान करते हैं जहाँ बैठे एक शख्स ने मात्र एक वोट से अपनी सरकार गिर जाने दी और खरीद फरोख्त करके बनाई हुई सरकार को चिमटे से भी छूने से  मना कर दिया जिसे दुनिया अटल विहारी वाजपेयी के नाम से जानती है। पर हम उस संसद का सम्मान कैसे करें जिसमे रोज संसदीय मर्यादा को तार तार किया जा रहा हो? कैसे करें उन रहनुमाओं का सम्मान जिन्होंने संसदीय गतिविधियों का मजाक बना कर रख दिया है।


 

संसद के अपमान का दोषी कौन है ?

कहतें हैं कि जैसे हम खुद होते हैं हमें वैसे ही लोग हमें पसंद आते हैं। क्या संसद की इस गिरती साख के लिए सिर्फ चुने हुए नेता ही जिम्मेदार हैं या उन्हें चुनने वाली जनता की भी कोई जिम्मेदारी बनती है? क्या आवाम का एक बड़ा हिस्सा लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर होता जा रहा है? हम ये क्यों भूलते जा रहें हैं कि लोकतंत्र स्वीकृति से चलता है ना कि बहिष्कार से।

 

 

आज की पीढ़ी को आज़ाद भारत की पहली संविधान सभा की बहसों को देखना और सुनना चाहिए। देखना चाहिए कि लोकतंत्र को मूर्त रूप देने के लिए कितने पथरीले रास्तों को पार करना पड़ा। देखना चाहिए कि कैसे विपरीत विचारधारा के लोग एक दूसरे से असहमत होते हुए भी सहमति तक पहुँचते हैं। राजनीति का धर्म होना चाहिए धर्म की राजनीति नहीं होनी चाहिए।

 

सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए नीति निर्धारकों को ये समझना पड़ेगा कि राजनीतिक और वैचारिक विरोधी को आतंकी या देशद्रोही कहके आप अपनी नाकामियों पर कुछ समय के लिए पर्दा तो डाल सकते हैं पर इससे देश और समाज की जो दीर्घकालिक क्षति होगी उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

 

बहिष्कार नहीं, स्वीकृति!

एक वाकया याद आ रहा है। साल था 1942, राष्ट्रवाद का उफान अपने चरम पर था। गांधी जी के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के आह्वान पर पूरा देश सड़को पर था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और लेफ्ट ने इस आंदोलन का बहिष्कार किया। डॉ अम्बेडकर तो अंग्रेजी हुकूमत में मुलाज़िम ही थे लेकिन गांधी जी ने किसी को देशद्रोही नहीं कहा। जब देश आज़ादी के जश्न में डूबा हुआ था तब लेफ्ट विचारधारा के लोग ‘ये आज़ादी अधूरी है’ के स्लोगन के साथ जुलूस निकाल रहे थे।

तब गाँधी जी का कद इतना बड़ा था कि अगर उन्होंने किसी को भी देशद्रोही कह दिया होता तो आज तक वो विचारधारा अपने आपको राष्ट्रवादी साबित करने के लिए छटपटा रही होती और असफल साबित होती।

 

जेपी और इंदिरा गाँधी 

1971 के युद्ध में पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अपने लोकप्रियता की चरम पर थीं लेकिन परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि उन्हें अपातकाल लगाना पड़ा।

 

 

जय प्रकाश नारायण(जे.पी) इंदिरा को अपनी बेटी मानते थे लेकिन संविधान विरोधी इस कदम के खिलाफ उन्होंने पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान से इंदिरा सरकार के खिलाफ विरोध का बिगुल फूंक दिया। 1977 का साल था जब जे.पी के आह्वान पर देश ने इंदिरा को सत्ता से उखाड़ फेंका। जे.पी ने वही किया जो एक नागरिक को करना चाहिए।

 


जब जब सत्ताधीश सत्ता के मद में चूर होकर लोकतंत्र के मूलमंत्र ‘वी द पीपल’ की जगह हमसे ही पलटकर ‘हू आर यू’ का सवाल पूछने लगे तो हर एक नागरिक का कर्तव्य है कि वो जे.पी की तरह उठ खड़ा हो और ऐसे शासक को सत्ता के शिखर से शून्य तक पहुँचा कर उसे लोकतंत्र की ताक़त दिखाए।


 

नागरिक अधिकार और कर्तव्य 

पिछले कुछ सालों में हमारे नागरिक अधिकारों के साथ साथ नागरिक कर्तव्यों का भी ह्रास हुआ है। याद कीजिए कब आपने अपनी पसंदीदा सरकार को उसकी लोक विरोधी गतिविधियों के लिए कटघरे में खड़ा किया है?

कोरोना से लाखों मौते हों या बेरोजगार नौजवानों का क्रूर दमन हो या फिर दिल्ली सीमा पर किसानों का अपने अधिकारों के लिए आंदोलन हो, आपकी चुप्पी इन्हें ताकत देती है, संसदीय मर्यादा को ‘ऐज फार ग्रांटेड’ लेने के लिए।

 

1962 में चाइना से शर्मनाक हार के बाद राज्यसभा सांसद होते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी ही सरकार के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की जमकर आलोचना की थी। यही लोकतंत्र की खूबी है। याद रखिए आलोचना ही जम्हूरियत का साबुन है।

 

भारत का अपना एक इतिहास रहा है। ऐसा माना जाता है कि हम सबसे प्राचीन सभ्यता हैं।

 

हमने मुरली वाले मोहन से लेकर चरखे वाले मोहन तक का बेमिसाल सफर तय किया है।अनेकता में एकता हमारी सभ्यता की पहचान है। विभिन्न धर्मों और भाषाओं को एक सूत्र में पिरोकर आगे बढ़ना ही भारतीयता है। जो भी इससे छेड़छाड़ करे उसे संतुलित करना बहुत जरूरी है। आग के लिए पानी का भय बने रहना चाहिए। इस संतुलन को बनाए रखें। गलत को गलत और सही को सही कहना सीखिए।

 

 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी यही कहा है।

अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है,
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।