शब्दों में अर्थ छुपे होते हैं, इतिहास भी, और इरादे भी।
“धर्मनिरपेक्ष” के शाब्दिक अर्थ को समझें तो इस में 2 शब्द छुपे हैं – धर्म और पक्ष – और इन दोनों शब्दों को जोड़ता है निः – जिस से पूरा अर्थ बनता है “धर्म के प्रति कोई भी पक्ष न रखना”।
पर अब शायद “निः” हमारी सोच, कल्पनाओं और प्राथमिकताओं में ज़िंदा नहीं रह गया है। जो अखबारों, समाचार चैनलों, बातों, नारों में रह गया है वह है अपने अपने धर्म के प्रति एक ज़िद्दी पक्ष। इतना ज़िद्दी कि इंसानियत, लिबरल, सेक्युलर जैसे शब्द मखौल करने के माध्यम बन चुके हैं। और इतना ज़िद्दी भी, कि हम अपनों की मौत के दर्द को कुछ महीनों में ही भुला कर कटारें ले कर खड़े हो गए हैं – उनके ख़िलाफ़ जो धर्म की उस परिभाषा के “पक्ष” में नहीं हैं, जो हम ने अपनी कल्पनाओं में गढ़ ली है। कोई ग्रन्थ नहीं, रिसर्च नहीं, टीवी डिबेट नहीं, मॉरल साइंस की किताब नहीं, व्हाट्सप्प का मैसेज नहीं – सिर्फ़ ईमानदारी चाहिए हिंदुस्तान के आज के मज़हबी ज़हर के सच को स्वीकारने के लिए।
पर क्या हम हमेशा से ऐसे थे? दृढ़ आशावादी शायद कहेंगे “नहीं”। निराश पूरी तरह से मैं भी नहीं हूँ लेकिन मुझे लगने लगा है कि बात सिर्फ़ हिंदुस्तान की नहीं है पर शायद इंसानी स्वाभाव हमेशा से रहा ही सांप्रदायिक है। और इस से पहले कि आप “संप्रदाय” का मतलब सीधे सीधे “धर्म” से जोड़ दें तो यहाँ फ़िर से उसका शाब्दिक अर्थ समझने की ज़रूरत है। “संप्रदाय” एक समान मत रखने वालों का एक समूह मात्र है। वह “मत” धर्म का भी हो सकता है या बस एक सोच का भी।
सांप्रदायिकता का इल्ज़ाम राजनीतिज्ञों के सिर मढ़ देना आम और आसान है पर मैं आश्वस्त हूँ कि बिना हमारी ख़ुद की स्वीकृति के, सांप्रदायिक नफ़रत और दंगे नहीं पनप सकते। कहीं ना कहीं, किसी न किसी स्तर पर हमारी प्रतिभागिता उस में होती है।
उदाहरण के तौर पर 1992 बाबरी विध्वंस। मामला पहले से ही कोर्ट में चल रहा था। कोई भी जिम्मेदार नागरिक अदालत के फ़ैसले का इंतजार करता। लेकिन विध्वंस से पहले के दिन:
1. आडवाणी ने कहा, “अदालत क्या इस बात का फ़ैसला करेगी कि यहां राम का जन्म नहीं हुआ था?”
2. वाजपेयी ने कहा “ज़मीन को समतल बनाना पड़ेगा”
यह 2 बयान काफ़ी थे कारसेवकों द्वारा कोर्ट की अवमानना करते हुए मस्जिद का विध्वंस कर देने के लिए। बिना स्वयं सांप्रदायिक हुए, कारसेवक यह नहीं कर सकते थे।बिना स्वयं सांप्रदायिक हुए, उस विध्वंस को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, जैसा कि 1992 से 2014 तक दक्षिणवादी दबी ज़ुबान में करते थे, 2014 के उपरांत अब उसका डंके की चोट पर।
सरे आम हो रही लिंचिंग पर चुप रहना (कल्पवृक्ष गिरी महाराज की घटना और अन्य घटनाएं), “देश के ग़द्दारों” सुन कर “गोली मारो सालों को” जोड़ना, एक समुदाय की घटनाओं को उनके पहनावे से जोड़ना, कुछ ख़ास शहरों के नाम बदलना, हिंदुस्तान देश की कल्पना को सिर्फ़ एक बहुसंख्यक समुदाय से जोड़ना और अन्य को देश छोड़ देने के लिए कहना, यहाँ तक कि एक वायरस को भी एक मज़हबी जामा पहना देना — यह सब साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और धार्मिक कट्टरवाद की अलग अलग स्तर पर अभिव्यक्तियां हैं।
मेरे ख़्याल से हम हमेशा से मज़हबी अस्तित्व की कल्पनाओं और असुरक्षाओं में घिरे रहे हैं। नेहरू यह जानते थे, काफ़ी कुछ देख भी चुके थे। शायद इसीलिए उन्होंने 1947 में पटेल, आज़ाद, राजगोपलाचारी और अंबेडकर इत्यादि के साथ आज़ाद हिंदुस्तान के ढाँचे को धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और गुटनिरपेक्षता से खड़ा करने का सपना देखा। उस वक़्त के धार्मिक फसादों को देखते हुए एक दूरदर्शी राजनेता के लिए ऐसा “सपना” देखना लाज़मी भी था। पर बीतते दशकों के साथ हमारे सपने बदल गए। ना सिर्फ़ सपने बल्कि हमारे देश की हमारी कल्पनाएं, हमारे संगी नागरिकों से हमारी उम्मीदें भी। हमने धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान का हश्र देखा ज़रूर पर धीरे धीरे भूल गए। इतिहास बेरहम होता है – ख़ुद को भुला दिया जाना शायद उसे गवारा नहीं इसलिए फ़िर ख़ुद को दोहराता है।
एक फ़िल्म में एक उदारवादी शख़्स को कहते हुए सुना था कि “असली लड़ाई हिंदू और मुसलमान के बीच नहीं है, हमारे समाजी शऊर (व्यावहारिकता) और मज़हबी जूनून के बीच है।”।
या मैं दूसरे शब्दों में पूछूं कि आप में से कितने ऐसे हैं जो एक दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपना पड़ोसी बनाना पसंद करेंगे?