“बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है” फ्रेंच क्रांति के ऑगस्ट वेलिएंट द्वारा कहे इस वाक्य से प्रेरित होकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में बम फेंककर इसी वाक्य को दोहराया जिसका शोर ब्रिटेन की संसद में बैठे हुक्मरानों तक पहुंचा और बाद में भगत सिंह ने गिरफ्तार होने के बाद अपने विचारों को कोर्ट के जरिए रखकर विश्व पटल पर ब्रिटिश हुकूमत को शर्मिंदा होने पर मजूबर कर दिया|
लेकिन आज के भारत में जब दो महिलाओं की नग्न परेड और एक पौरुषविहीन पुरुषों की भीड़ का अमानवीय वीडियो सामने आया, तो यह वीभत्स वीडियो एक अवांक्षित धमाके की तरह साबित हुआ जिसका शोर ब्रिटेन की संसद तक में पहुंचा और अपने संस्कार और संस्कृति का अभिमान करने वाला देश विश्व पटल पर नग्न और शर्मिंदा महसूस कर रहा है|
पिछले कई महीनो से मणिपुर राज्य में दो समुदाय मैतेई और कुकी के बीच का विवाद हिंसक हो चुका है पर तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया की इस विषय पर अरुचि या निष्क्रियता मामले की गंभीरता को कम नही कर सकती| भारत की मुख्यधारा में इनके प्रति निष्क्रियता नई नही है तभी शायद भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में रहने वाले इन लोगों के अपने भारतीय होने का एहसास एक मिथक मात्र ही है|
2014 मे राष्ट्रीय महिला आयोग के तत्वाधान में Center for North-East Study and Policy और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के द्वारा प्रकाशित एक सर्वे में पाया गया कि दिल्ली में रोजगार के अवसर तलाश करने के लिए आने वाली उत्तर-पूर्व की महिलाओं में 81% को किसी न किसी रूप में उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है और कमोबेश यही स्थिति इन महिलाओं की बंगलुरु एवं अन्य बड़े शहरों में भी है। वैसे तो भारत के अन्य भागों में उत्तर-पूर्वी राज्यों की महिलाओं को कई आपत्तिजनक टिप्पणियों से प्रायः रूबरू होना पड़ता है शायद यही कारण रहा कि 2012 में गृह मंत्रालय (भारत सरकार) ने सभी राज्यों को निर्देश दिया की चिंकी शब्द के प्रयोग को आपराधिक श्रेणी में रखा जाए।
विभिन्न संगठनों और प्रेस के अनुसार मणिपुर में दो जनजातीय समुदायों के बीच हिंसक द्वन्द्व का एक मुख्य कारण वहां की मौजूदा सत्ता द्वारा बहुसंख्यवाद की राजनीति भी है| मणिपुर के घटनाक्रम को एक हद तक हिंदू और क्रिस्चियन के बीच के संघर्ष के रूप में देखा जा सकता है और यही देश के अन्य भागों में प्रचारित भी किया जा रहा है| लेकिन जब यूरोपियन संसद में मणिपुर घटना के लिए निंदा प्रस्ताव लाया गया तो इसके जवाब में कई मैतेई संगठनों ने पत्र लिखकर उन्हें सूचित किया कि कैसे यह हिंसक विवाद सिर्फ दो धार्मिक समुदायों का नही है एवं मतैयी जिसके अंदर मुस्लिम और ईसाई भी आते है और मतैयी गिरिजाघरों को भी कुकी समुदाय के द्वारा जलाया गया है जो इस बात का सूचक है कि यह संघर्ष धार्मिक संप्रदाय का ना होकर समुदायों का है|
हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में है भाई -भाई यह हमने बचपन में खूब सुना और शायद इसीलिए इन धर्मों के बीच का द्वन्द्व भारत के बड़े भू भाग को अक्रोशित कर देता है और मुख्य धारा का हिंदी भाषी मीडिया त्वरित गति से सक्रिय भी हो जाता है, जम्मू -कश्मीर और पंजाब इसके सबसे अहम उदाहरण है जो छोटा सा राज्य होने के बाद भी हमेशा से राजनीतिक परिदृश्य में बना रहता है क्योंकि यहां हिंदू-मुस्लिम एवं हिंदू-सिख का टकराव एक खबर है | इन राज्यों के खबरों में बने रहने का दूसरा कारण इन राज्यों का पाकिस्तान की सीमा से लगा होना भी है जिसके कारण यहां अलगाववादी संगठन सक्रिय रहते है और सरल शब्दों में दूसरे देश की सीमाओं से जुड़े राज्यों में अलगाववादी संगठन, घुसपैठ और ड्रग जैसी कई गंभीर समस्याएं एक स्तर तक समान ही है |
भारत विविध मान्यताओं का देश है
जिन्हे लगता है की यह द्वन्द्व किसी एक धार्मिक संप्रदाय की विपरीत मान्यताओं या क्रिया कलापों के कारण है वो शायद मुख्यधारा में इन धार्मिक संप्रदायों के प्रचारित द्वन्द्व के शोर में किसी भी धर्म के अंदर के अंतर्द्वंद्व को नजरंदाज कर रहे है, हिंदू धर्म की छतरी तले कई मान्यताएं बहुसंख्यक हिंदुओं के इतर है –
ओड़िशा के कोरापुट के पर्वतीय आदिवासी बनदुर्गा गुफा में भगवान शिव और पार्वती को भाई और बहन की तरह पूजते है और आस-पास के सामान्य लोग भी यहां दर्शन करने आते है| यह प्रथा पिछले कई सौ सालों से यहां प्रचलित है और जैपुर का शाही परिवार भी इसे मनाता रहा है जबकि एक बड़े हिस्से में हम शिव पार्वती को अर्धनारीश्वर के रूप में स्वीकारते है|
जहां नवदुर्गा को पश्चिम बंगाल और भारत के अन्य क्षेत्रों में महोत्सव के रूप में मनाया जाता है वहीं बंगाल और झारखंड में आसुरी, संथाल और मध्य प्रदेश की कोरकू जनजाति इन नौ दिनों को शोक के रूप में मनाती है। आसुरी जनजाति स्वयं को महिषासुर का वंशज मानती है और इनकी मान्यतानुसार महिषासुर पिछड़े और शोषित वर्ग का प्रतीक था तथा दुर्गा अभिजात वर्ग से जिन्होंने धोखे से उसका वध कर दिया। बागड़ी,संथाली,मुंडा और नमासुद्र जैसे आदिवासी और दलित वर्ग महिषासुर को शहीद की तरह पूजती है और नवरात्रि के नौ दिन वो शोक में घर से नही निकलते और शाम को उसकी पूजा करते है| इसके अलावा मैसूर से 13 किलोमीटर दूर चामुंडी हिल पर महिषासुर की विशालकाय मूर्ति भी दिख जाती है और कुछ के अनुसार मैसूर शहर का नाम महिशासूरण उरू(महिषासुर का देश) से आया है जहां पर एक कुशल शासक की तरह महिषासुर ने शासन किया।
इस प्रथा की गूंज फरवरी 2016 में संसद में रोहित वेमुला के प्रश्न पर जवाब देने उठी तत्कालीन शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने अपने चिर परिचित अंदाज में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पर वहां के छात्रों द्वारा महिषासुर दिवस मनाने पर आपत्ति जताई लेकिन उसी समय वो शायद भूल गई की तत्कालीन दलित भाजपा सांसद उदित राज भी पूर्व के वर्षों में महिषासुर दिवस पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शिरकत कर चुके थे|
जिस देश का राजनीतिक एवं सामाजिक ताना-बाना जाति के आधार पर टिका हुआ है वहीं कर्नाटक के एक हिस्से में हक्काली जनजाति रहती है जिसका विश्वास है कि जब शिव ने सभी जातियां बना दी उसके बाद शिव ने दूध और चावल खाते समय उसी वक्त उससे हक्काली लोगों को बनाया इसीलिए वह स्वयं को जातीय व्यवस्था से बाहर मानते है|
बस्तर के उत्तरी इलाके में रहने वाली एक जनजाति मुरिया है जिसमे घोटुल प्रथा का प्रचलन है| घोटुल एक झोपड़ीनुमा स्थान है जहां पर जनजाति के अविवाहित युवा जिन्हे चेलिक और अविवाहित युवतियों को मोटियारी कहते है| इसके तहत उन्हें सेक्स से संबंधित जानकारियां दी जाती है और इस जगह पर यह सभी आकर एक दूसरे के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करते है, कभी यह संबंध विवाह की परिणीति को प्राप्त होते है और अधिकांशतया नही| हमारे सामाजिक मान्यता में शायद यह व्यभिचार हो लेकिन मुरिया जनजाति के लिए यह उनके सामाजिक और धार्मिक जीवन का हिस्सा है|
उनकी मान्यता है कि उनके पूजनीय लिंगों देवता इस स्थान की रक्षा करते है| यह प्रथा मुरिया जनजाति के सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है| जहां यह एक छोटी सी जनजाति ईश्वर के नाम पर प्रेम संबंधों या उससे आगे के संबंधों को खुली छूट देती है वहीं उत्तर भारत के कई हिस्सों में भगवान के नाम पर बनाए गए कई संगठन जैसे बजरंग दल, राम सेना इत्यादि की ख्याति ही वेलेंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ो को प्रताड़ित करने की है|
केरल में मनाया जाने वाला मुख्य पर्व ओणम है जिसे हिंदू समाज का एक वर्ग भगवान वामन (विष्णु अवतार) की जयंती के रूप में मनाता है और इसका प्रारंभ केरल के त्रिक्कारा में स्थित वामन मंदिर से होता है| वहीं उसी हिंदू धर्म के अंतर्गत आने वाला दलित वर्ग का एक हिस्सा इसे राजा महाबली या बाली (हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार दैत्य) के स्वागत के लिए मनाता है| एक मान्यता के अनुसार बाली अपने राज्य को एक कुशल शासक की तरह चला रहा था जिसमें प्रजा खुशहाल और धन-धान्य से पूर्ण थी जिसने देवों को ईर्ष्या से ग्रसित कर दिया और इसलिए विष्णु ने वामन अवतार लेकर महाबली को अधोलोक में पहुंचा दिया साथ ही उसे वर्ष में एक बार अपने राज्य में आने का वरदान दिया| जहां हिंदू धर्म के बड़े हिस्से की मान्यताओं में बाली एक दैत्य है वहीं इस दलित वर्ग के लिए बाली समता का प्रतीक है| यहां तक उन्नीसवीं शताब्दी के दलित चिंतक एवं समाज सुधारक ज्योतिबा राव फूले ने अपनी किताब गुलामगीरी में महाबली का चित्रण एक कुशल शासक के रूप में ही किया है|
हम भारत के कई हिस्सों में ऐसी घटनाओं से रूबरू हुए है जहां कई धर्म गुरु बलात्कार और हत्या के आरोप में सलंग्न पाए गए है फिर भी हम पाते है कि इन आरोपों के साबित होने के पश्चात भी एक बड़ा वर्ग उनके चरणों में दंडवत रहता है| मैंने कई बार महसूस किया है कि एक बड़ा वर्ग इन बाबाओं से पूर्णतया मुत्मयीन न होते हुए भी पाप का भागी होने के भय वश इनकी निंदा करने का साहस तक नही कर सकता वहीं बस्तर के कई इलाकों में एक प्रथा है जहां लोग अपने कुल देवताओं को पूजते है और उनको मनोकामना पूर्ण ना करने पर दंडित भी |
उदाहरण स्वरूप अगर यह जनजाति एक अच्छी फसल की कामना करती है तो वह अपने कुल देवता से इसकी गुहार लगाती है और समय समय पर पूजा कर उन्हें इसकी याद दिलाते रहते है और अगर किसी कारणवश फसल खराब हो जाती है तो यह जनजाति इन कुलदेवता को सजा दिलाने के लिए वार्षिक भादो जत्रा के दौरान भांगरम देवी के दरबार में प्रस्तुत करती है ताकि इसका न्याय किया जा सके और दंडस्वरूप इन देवताओं को मंदिर के पिछले भाग में रख दिया जाता है इसके पश्चात यह जनजाति अपने लिए कोई नया कुल देवता का चयन कर सकती है।
भारत के कई हिस्सों में आदिवासियों के बीच ऐसी मान्यताएं मिल जाएंगी जो समाज के बड़े हिस्से में प्रचलित मान्यताओं से भिन्न है और कई बार असहज भी| इन आदिवासी जनजातियों की संख्या भले ही कुछ लाखों में हो पर उनका विश्वास है कि आदिकाल से वो ही इस देश के मूल निवासी है एवं कुछ जनजातियों के उल्लेख आपको महाभारत तथा रामायण जैसे महाकाव्यों में भी मिल जाता है|
हमारे समाज में किसी धर्म के अंदर ही भिन्नता संघर्षों के लिए पर्याप्त कारण उपलब्ध करा सकती है लेकिन आवश्यक है कि हम दूसरों के विश्वास का सम्मान करें जो कि इस देश के संविधान की मूल भावना भी है| जिन्हे लगता है कोई धमाका इन सब सामाजिक कुरीतियों को समाप्त कर सकता है तो शायद वो गलत है| भगत सिंह का उद्देश्य धमाका करना मात्र नही था इसे उनकी फांसी के एक दिन पूर्व उनके द्वारा 22 मार्च 1931 को अपने मित्रो को लिखे एक पत्र के माध्यम से समझा जा सकता है जिसके एक हिस्से का भावांश कुछ इस प्रकार है।
“मैं अब बाहर निकलना नही चाहता और बेहतर है कि मैं मौत की सजा को सहर्ष स्वीकार कर लूं| औरों की तरह मुझमें कमजोरियां है जो शायद बाहर आने पर सबके सामने आ जाएंगी और लोगों ने मुझे क्रांतिकारी के रूप में जिस शिखर पर स्थापित किया है, मैं नही चाहता कि वह लोग मुझे एक कमजोर व्यक्ति की तरह देखें| मेरी मृत्यु से एक चीज जरूर हासिल होगी कि इस देश की अनेकों माएं अपने बच्चों को भगत सिंह बनने के लिए और देश के लिए समर्पित करेंगी|”
भगत सिंह को भी ज्ञात था कि धमाकों से सत्ता का स्थाई चरित्र नही बदलता बल्कि उसे जनचेतना ही झुका सकती थी तभी शायद उन्होंने माफी की जगह मृत्यु का चुनाव किया। आप इस देश के इतिहास या किसी भी सभ्य समाज के इतिहास को खंगालेंगे तो पाएंगे सकारात्मक बदलाव के लिए उमड़ी भीड़ हमेशा मणिपुर जैसी भीड़ से बड़ी होती है और उसके बदलाव इतिहास में दर्ज़ होते है उदाहरणस्वरूप निर्भया के लिए उमड़ी भीड़ ने सरकार को निर्भया फंड और कई कानूनी बदलाव नारी के पक्ष में करने को विवश किया। आवश्यकता है कि यह जनचेतना ऐसे वीभत्स ‘धमाकों’ का इंतजार ना करे और सजगता से धार्मिक संघर्ष के शोर तले दबे इन जनजातीय या आदिवासियों में उपस्थित अंतरों को स्वीकारे नही तो यह बहुसंख्यकवाद मणिपुर की तरह देश को जलाता ही रहेगा।