अपने 17 महीनों के कार्यकाल में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री शरद अरविन्द बोबडे की आँखों में जाते जाते जिस बात ने किरकिरी का काम किया वह है “वर्तमान में भारत में सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जाने वाला अधिकार, वाक स्वतंत्रता का अधिकार”। एक बात और उनकी आँखों में लगी; वो है ‘सोशल मीडिया’। सोशल मीडिया के संबंध में उनका विचार है कि यहाँ न्यायधीशों का अपमान करना बहुत आसान है और इस माध्यम का रेग्युलेशन भी प्रिन्ट मीडिया की तरह होना चाहिए। मुझे लगता है कि जस्टिस बोबडे की ऐसी सोच की निंदा होनी चाहिए। जिन अधिकारों को बचाने के लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का सर्वोच्च पद धारण किया उन्हीं अधिकारों को वो गैरजरूरी साबित करने में लग गए। उन्हे तो जन सरोकारों के लिए सरकार और अन्य संस्थाओं को आड़े हाथों लेना चाहिए था।
जस्टिस बोबड़े को ऐसे मामले चुभने चाहिए थे- 6 महीनों तक हैबियस कॉर्पस (सिद्दिक कप्पन,पत्रकार) की सुनवाई न करना, एक गर्भवती महिला ऐक्टिविस्ट को महीनों तक सरकारी जिद की वजह से अमानवीय कैद में रखना, धारा 370 पर चुप्पी साध लेना, एक साल से भी अधिक समय तक कश्मीर घाटी को सूचना विहीन कर देना, विभाजनकारी CAA/NRC पर चुप्पी, किसान आंदोलन पर चुप्पी, तबलीगी जमात मामले पर चुप्पी, यूपीएससी अभ्यर्थियों के साथ सरकार के धोखे पर चुप्पी और चुनावी बॉन्ड्स का मामला। इन तमाम मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय की चुप्पी ने आम जनमानस के बीच न्याय की अवधारणा को चोटिल कर डाला। आम जन इस बात को लेकर आश्वस्त हो चुके हैं कि सर्वोच्च न्यायालय से कोई ऐसा फैसला नहीं आ सकता, जिसमें वर्तमान केंद्र सरकार और अन्य समान पार्टी की राज्य सरकारों के हित प्रभावित होते हों। राफेल जैसे मामलों में बंद लिफ़ाफ़े की अवधारणा देश की संस्थागत मजबूती को तोड़ देने वाली है। मैं देश की संस्थाओं का सम्मान ही नहीं उससे प्रेम करती हूँ पर दुख व्यक्त करते हुए कहना चाहती हूँ कि ऐसा जान पड़ता है कि जो सच है वही सरकारी है और जो सरकारी है वही सच है, ऐसा भाव न्यायपालिका के लिए आना देश की गरिमा को नुकसान पहुंचाता है। सिद्दिक कप्पन और अर्नब गोस्वामी दोनों पत्रकार हैं, पर सर्वोच्च न्यायालय एक की सुनवाई 24 घंटे के अंदर कर लेता है और एक की सुनवाई में 6 महीने भी कम हैं।
“कोविड काल में भारत में जो घट रहा है वो अपने किस्म की अनोखी त्रासदी है। मैं तिथियों में नहीं जाऊँगी क्योंकि मुझे त्रासदी की तारीख नहीं तय करनी है और न ही त्रासदी का रोजनामचा लिखना है। भारत में चल रही इस अनोखी त्रासदी का उभार ‘मद’ और ‘आत्मश्लाघा’ से हुआ है। मद वह नशा है जिसमें ‘सिस्टम’ रूपी ‘ब्रूटस’ देश के नायक- जनमानस को सीधे श्मशानों तक पहुंचा रहा है। ये वही ब्रूटस है जो कभी चौकीदार बनकर सामने आता है तो कभी अपने भाषणों से आपके परिवार का सदस्य बन जाता है, आपका विश्वास जीतता है, 56 इंची बातें करता है, आपको नागरिक से बदलकर एक धर्म का सदस्य बनाता है और जब आप उसपर पूरा भरोसा करने लगते हैं तो वो चौकीदार ब्रूटस बनकर आपको मृत्युरथ में बिठा देता है।”
भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में एक न्यायाधीश का संवेदनशील होना अत्यंत जरूरी है क्योंकि सामान्य संवेदना की हत्या तो सरकारें चुटकी बजाकर कर देती हैं। अप्रैल 2020 में जब लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर विवेकविहीन लॉकडाउन के बाद अपने अपने घरों की ओर लौट रहे थे तब माननीय न्यायधीश, सरकार के सॉलिसिटर जनरल का ‘वर्जन’ मान रहे थे, और श्री मेहता के अनुसार “कोई माइग्रैशन नहीं हो रहा है अखबारों में फेक न्यूज चल रही है।“
आज भी जैसे कुछ नहीं बदला है, सैकड़ों चिताएं ऐसे जल रही हैं मानों एक निरंतर चलने वाला ‘मृत्युरथ’ हो, जिसका पथ पूरे देश में फैला है। भारत के कई राज्यों में दौड़ रहे इस मृत्यु रथ में अनवरत चिताएं एक अनवरत विनाश ज्वाला को धारण किये हैं और पूरा सिस्टम (तंत्र) हर वो काम कर रहा है जिससे इस मृत्यु रथ की रोशनी कम न पड़ जाए। प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री (पूरी तरह वैक्सीनेटेड) बंगाल में अनवरत रैली (भीड़ बिना मास्क) करते रहे और अब ये हालत है बंगाल भी 20 हजार से अधिक प्रतिदिन मामलों के साथ इस रथ पर सवारी को तैयार है। उत्तर प्रदेश की सरकार अपनी लापरवाही से हजारों नई विनाश ज्वालाएं इस रथ में जलाकर अपना योगदान दे रही हैं, कुम्भ जो हिन्दू आस्था का प्रतीक है इतना बोझिल और निंदापूर्ण कभी नहीं लगा, आस्था कभी इतनी स्वार्थी नहीं लगी और गेरुआ कभी इतना अज्ञानी नहीं प्रतीत हुआ। आईपीएल जैसे समारोह जनाजे में नाच जैसे नजर आ रहे हैं और हर एक फिल्मी और खेल सेलिब्रिटी आकंठ निर्लज्जता में डूबा हुआ है। शायद जल्द ही अपनी ही निर्लज्जता में खुद को डुबोकर खत्म, भी कर दे।
ये सब तो ठीक है। ऐसी असंवेदनशीलता ब्रिटिश काल में खूब थी ऐसा हम सभी ने पढ़ा है, लेकिन जब 24 नवंबर 1949 को भारत का संविधान स्वीकृत हुआ तब लगा कि हमारे पूर्वजों ने जो संविधान हमें दिया है जो संस्थाएं हमें दी हैं वो हमें नेतृत्व की असंवेदनशीलता से हमेशा बचाएंगी और जब जब राजनैतिक नेतृत्व जनविरोधी फैसले लेगा ये संस्थाएं संवैधानिक तरीकों से राजनीति के बेलगाम घोड़ों पर लगाम लगायेंगी। लेकिन आज के न्यायालय, CAG, मुख्य निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं एक थक चुके ब्यूरोक्रेट/न्यायधीश की रिटायरमेंट पश्चात आकांक्षाओं को पूरा करने का टूल मात्र रह गई हैं। ये लगातार भारत को धोखा दे रहे हैं और अपने पक्ष में तर्कों का अंबार लगा रहे हैं। रिटायरमेंट के बाद भी वही रौनक वही जलवा बरकरार रहे इसके लिए संविधान के साथ धोखा देने में भी कोई संकोच नहीं है।
कुछ लोग सोशल मीडिया में प्रधानमंत्री जी को ऐतिहासिक ‘नीरो’ की संज्ञा दे रहे हैं। नीरो रोम का राजा था, कहा जाता है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बाँसुरी बजा रहा था। मुझे लगता है कि सिर्फ प्रधानमंत्री को नीरो कहना उचित नहीं। नीरो किसी राजा का नहीं बल्कि एक ‘सिस्टम’ का प्रतीक है। भारत में इस पूरे सिस्टम ने भारतीय नागरिकों को एक त्रासदी की ओर धकेल दिया है। बाहर जो चिताएं जल रही हैं उनकी गर्मी संवेदनशील नागरिकों को पिघला दे रही हैं और फिर बेचैन कर दे रही है। कोविड काल में भारत में जो घट रहा है वो अपने किस्म की अनोखी त्रासदी है। मैं तिथियों में नहीं जाऊँगी क्योंकि मुझे त्रासदी की तारीख नहीं तय करनी है और न ही त्रासदी का रोजनामचा लिखना है। भारत में चल रही इस अनोखी त्रासदी का उभार ‘मद’ और ‘आत्मश्लाघा’ से हुआ है। मद वह नशा है जिसमें ‘सिस्टम’ रूपी ‘ब्रूटस’ देश के नायक- जनमानस को सीधे श्मशानों तक पहुंचा रहा है। ये वही ब्रूटस है जो कभी चौकीदार बनकर सामने आता है तो कभी अपने भाषणों से आपके परिवार का सदस्य बन जाता है, आपका विश्वास जीतता है, 56 इंची बातें करता है, आपको नागरिक से बदलकर एक धर्म का सदस्य बनाता है और जब आप उसपर पूरा भरोसा करने लगते हैं तो वो चौकीदार ब्रूटस बनकर आपको मृत्युरथ में बिठा देता है।
प्रधानमंत्री जी का रात 8 बजकर 45 मिनट पर देश को दिया उनका सम्बोधन याद करना बहुत जरूरी है, जिसमे वो स्वयं की शोकसंतृप्त परिवारों के सदस्य के रूप में स्वीकृति चाहते थे और दुख व्यक्त करना चाह रहे थे। इसी दुख के दौरान उन्होंने राज्यों को आत्मनिर्भर बनने का संदेश भी दे डाला। कल तक जिस महामारी को प्रधानमंत्री और उनकी केन्द्रीय टीम देख रही थी उसी महामारी के सबसे बुरे दौर में उन्होंने सबकुछ राज्यों पर थोप दिया। अचानक महामारी ऐक्ट राज्यों से काम करने लगा, वही महामारी ऐक्ट जिसके अनुपालन न करने पर CJI ने सरकार से नागरिकों के खिलाफ कठोर कार्यवाही का निर्देश दिया था। खैर, अपनी कम वैधानिक बुद्धि से मैं प्रधानमंत्री जी से कहना चाहती हूँ कि भारत अमेरिका की तरह कोई संघ नहीं है बल्कि यह तो ‘राज्यों का संघ है’(अनुच्छेद 1)। भारतीय व्यवस्था ‘कनाडाई मॉडल’ पर आधारित है जिसमें एक ‘अत्यंत सशक्त’ केंद्र की अवधारणा है। राज्यों के वित्त(अनुच्छेद-280) और चुनाव की व्यवस्था(अनुच्छेद 324) के साथ साथ उनके ऑडिट की व्यवस्था भी केंद्र/राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त CAG(अनुच्छेद-148) द्वारा ही की जाती है। संचार और रेलवे जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र केंद्र के पास हैं। ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज का कंट्रोल केंद्र सरकार के पास है, वैक्सीन और दवा वितरण का कंट्रोल केंद्र के पास है, अंतर्राष्ट्रीय बाजार से उधार केंद्र लेता है,वैश्विक संबंध (अनुच्छेद-253) केंद्र का काम है, राज्यों की भूमिका तो भारत में अत्यंत सीमित है। ब्रिटिश न्यायविद आइवर जेनिंग्स भारत को “मजबूत केंद्र” वाला संघ कहते हैं। संविधान का भाग 11 चीख-चीख कर राज्यों पर केंद्र की सर्वोच्चता साबित करता है। यहाँ तक कि जो क्षेत्र और शक्तियां संविधान में नहीं लिखी गईं जिन्हे अवशेष शक्तियां(अनुच्छेद-248) कहते हैं वह भी केंद्र के ही पास हैं। अनुच्छेद 365 तो साफ-साफ कहता है कि यदि कोई राज्य केंद्र द्वारा दिए गए निर्देश का पालन करने में या प्रभावी बनाने में असफल रहता है तो राष्ट्रपति उस राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले सकते हैं। इन सबके बावजूद अगर केंद्र सरकार सही समय पर नहीं सचेत हो पाई, चुनाव आयोजन में शामिल रही और एक के बाद एक प्रशासनिक ब्लन्डर करती रही तो इसके लिए जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार है न कि राज्यों की सरकारें। याद रखना जरूरी है कि यह एक आपदा है कोई अवसर नहीं, और जिन आपदाओं में अवसर तलाशे जाते हैं वहाँ मानवता हार जाती है और बचता है तो सिर्फ एक मृत्युरथ!