समस्त ब्रम्हांड और उसका छोटा से छोटा कण भी विज्ञान और विज्ञान के नियमों से संचालित है। ब्रम्हांड की उत्पत्ति बिग बैंग से हुई यह एक विस्फोट था और इस विस्फोट को निर्माण की दिशा में ले जाने वाला था गुरुवाकर्षण बल। ऐसे ही, प्रेम की उत्पत्ति के पीछे का कारण है आकर्षणबल। वास्तव में प्रेम की जननी आकर्षण है।
आकर्षण का जन्म दो व्यक्तियों या वस्तुओं के बीच स्थित प्रवणता(ग्रैडीअन्ट) से होता है। यह प्रवणता उन गुणों का परिचायक है जो दोनों व्यक्तियों में विद्यमान हैं भले ही एक में यह मात्रा नगण्य ही क्यों न हो बस शून्य नहीं होनी चाहिए।
ऐसे में ‘आकर्षण की तीव्रता’ गुणों के सापेक्षिक अंतर पर निर्भर करती है। प्रवणता या ढाल जितना तीव्र होगा आकर्षण उतना ही तीव्र होगा। परंतु बिग बैंग की घटना से उत्पन्न सभी पिंड गुरुत्वबल के आकर्षण के बावजूद तारों और ग्रहों का निर्माण नहीं कर सके अर्थात किसी रचनतामक विकास की ओर नहीं बढ़ सके वैसे ही प्रत्येक दो व्यक्तियों के बीच स्थापित आकर्षण आवश्यक रूप से प्रेम तक नहीं पहुँच पाता।
प्रेम तक पहुँचना किसी रेखा को पार करने जैसा नहीं है, असल में प्रेम तो एक ‘अहाता’ है जहां आकर्षण के उत्पाद धीरे धीरे उस अहाते में योग्यता अनुसार प्रवेश करते हैं परंतु उनमें जितनी योग्यता उस अहाते में अंदर आने की होती है लगभग उतनी ही या उससे थोड़ा कम अहाते से बाहर जाने की भी होती है।
हर व्यक्ति का अपना बिल्कुल अलग किस्म का प्रेम अहाता होता है। इस प्रेम अहाते में मित्र, माता-पिता, पति, पत्नी समेत तमाम लोग हो सकते हैं। इसी अहाते में एक केन्द्रीय कक्ष भी होता है। किन्तु अहाते के इस केन्द्रीय कक्ष में पहुँच पाने की विशेष योग्यता होती है और यहाँ पहुँच जाने के बाद बाहर जाने की अयोग्यता अधिकतम हो जाती है अर्थात जो व्यक्ति यहाँ पहुँच गया वो सदा वहीं रहता है कभी बाहर नहीं जाता, मृत्यु के बाद भी नहीं। ज्यादातर लोगों के जीवन में यह कक्ष जीवन भर खाली रहता है कई बार जिसे आप चुनते हैं, जीवन साथी या प्रेमी के रूप में भी, वह भी यहाँ नहीं पहुँच पाता, माँ-बाप रिश्तेदार कई बार कोई भी नहीं पहुँच पाता।
अर्थात प्रेम का यह ‘केन्द्रीय कक्ष’ स्थायी तो होता है किन्तु इसका खालीपन भी उतना ही स्थायी हो सकता है जितना इसका भरा जाना। केन्द्रीय कक्ष के बाहर का अहाता चलायमान होता है वहाँ लोगों का आवागमन आपके जीवन के दौरान और आपके मरने के बाद भी बना रहता है।
वासना, प्रेम और मित्रता आकर्षण के ही उत्पाद हैं। आकर्षण की परिणति क्या होने वाली है यह सबकुछ प्रवणता पर निर्भर है। आकर्षण को जननी मानते हुए हम कह सकते हैं कि प्रेम एक खास किस्म का ‘प्रवाह’ है और जब तक यह प्रवाह बना रहता है आकर्षण के समाप्त होने की संभावना शून्य ही रहती है।
चूंकि प्रवणता एक ढाल है, एक कोण है और यह कोण ‘स्थिर आधार’ के सापेक्ष निर्धारित होता है ऐसे में हमें स्वयं को बदलते हुए प्रेम के कोण तक पहुँचना होता है। जिन दो व्यक्तियों के बीच प्रेम है उनमें कभी सर्वांगसमता नहीं हो सकती। दोनों के पास कुछ न कुछ ऐसा होगा ही जो एक दूसरे की ओर प्रवाहित होता रहेगा। प्रवाह की यह शर्त निश्चित रूप से केन्द्रीय कक्ष में भी लागू होगी लेकिन अंतर सिर्फ इतना होगा कि प्रवाह होने के बावजूद केन्द्रीय कक्ष में आपको इस प्रवाह का एहसास नहीं होगा, एकमय होने के बावजूद प्रवाह जारी रहेगा। क्योंकि यह प्रवाह ही प्रेम को जीवन देता है। प्रवाह का अंत प्रेम के अंत का द्योतक है।