सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना!

क्या सरकार और ताकतवर संगठनों से लोहा लेने वाले पत्रकारों को इस दौर में कुचला जा रहा है?

आप क्यों देखते हैं टीवी? क्या मजबूरी है आपकी? क्या आपके डाईनिंग रूम में सजी टीवी आपके मतलब की खबरें दिखाता है? कब आपने अपने बच्चों की स्वास्थ्य और शिक्षा पर कोई प्राइम टाइम देखा है? जो पत्रकार इसे दिखाने की कोशिश करता है उसे अलग -अलग तरीकों से क्यों प्रताड़ित किया जाता है समझना मुश्किल नहीं। कुछ दिन के लिए आप टीवी और अखबार को अलविदा कहकर देखिए, यक़ीन मानिए आप अपने आप को ज्यादा खुश महसूस करेंगे।



कानपुर की तपती शाम में जब ‘प्रताप’ का वो अंक पाठकों तक पहुँचा तो शब्द गर्मजोशी से भरे हुए और पत्रिका की जुबान में वही बुलंदी थी जिसके लिए प्रताप जाना जाता था। ये पत्रकारिता का वो दौर था जब प्रताप का एक-एक पन्ना ऐसे ऐसे लेखकों और विचारकों के लेखों से भरा होता था जिसके लिए आप किताबों का एक एक पन्ना चाटने पर मजबूर हो जाएं। पहले पृष्ठ पर महावीर प्रसाद द्विवेदी तो दूसरे पृष्ठ पर मैथिलीशरण गुप्त। जैसे ही आप तीसरा पृष्ठ खोलें मुंशी प्रेमचंद की कलम आपकी प्रतीक्षा करती मिलती थी।

जून 1917 को प्रताप के संपादकीय में कुछ ऐसा छपा जिससे कानपुर के कलेक्टर साहब तमतमा उठे और पत्रिका के एडिटर साहब को तलब किया। कलेक्टर साहब को शायद मालूम नहीं था कि प्रताप के एडिटर कोई साहब नहीं बल्कि गणेशशंकर विद्यार्थी हैं जो सिर्फ लिखना जानते थे बिकना नहीं। अगर आप गणेशशंकर विद्यार्थी और उनकी पत्रकारिता के बारे में जानना चाहते हैं तो आपको एम एल भार्गव की किताब ‘बिल्डर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया’ पढ़नी चाहिए।

 

मैं मीडिया का छात्र नहीं हूँ पर रुचि वश गणेशशंकर विद्यार्थी को पढ़ा है आप भी पढ़िए, मुख्यधारा की वर्तमान मीडिया से आपको नफरत हो जाएगी। गणेशशंकर विद्यार्थी जिन्हें पत्रकारिता का शिखर पुरुष माना जाता है, के अनुसार एक पत्रकार को हर उस शख़्स, संगठन या सरकार के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए जो अपनी ताकत का उपयोग गलत तरीके से करे।


पत्रकारिता के स्वरूप में एक बड़ा बदलाव तब आया जब ‘टीवीपुरम’ ने आपके घर में दस्तक दी। मीडिया अब अखबार के पन्नों से निकल कर आपके डाइनिंग रूम और बेडरूम तक आ चुकी थी। सोशल मीडिया के उदय ने इसके स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया। अब हर कोई पत्रकार है, सबका अपना एक पक्ष है। ऐसा नहीं है कि सरकार और ताकतवर संगठनों से लोहा लेने वाले पत्रकारों को इसी दौर में कुचला जा रहा हो लगभग सभी सरकारों ने निष्पक्ष आवाज को दबाने का काम किया है लेकिन अब जो हो रहा है वो अप्रत्याशित है।


 

आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश में मीडिया कितनी आज़ाद है ये आपको वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स में भारत के स्थिति से अंदाजा हो जाएगा। कुल 180 देशों में हम 142वें पायदान पर हैं। वैसे तो मुख्य धारा की मीडिया हमेशा से सत्ता परस्त रही है लेकिन खुद को पब्लिक की आवाज बताने वाला एक मुखौटा जरूर पहन रखा था जो वर्तमान सत्ता में पूरी तरह उतर चुका है।

गिने चुने पत्रकार अभी भी हैं जो जन सरोकार के मुद्दे उठाते रहते हैं लेकिन उन मुद्दों की कीमत क्या है, वो आप मध्यप्रदेश के पत्रकार कनिष्क तिवारी से पूछिए जिसे एक बीजेपी विधायक के विरोध में खबर छापने के लिए थाना परिसर में लगभग नग्न अवस्था में परेड करवाया गया। नक़ल माफिया को उजागर करने के लिए बलिया में अमर उजाला के पत्रकारों के साथ जो सुलूक हुआ हम सबने देखा। इशारा साफ है। हमारे इशारों पर कदम ताल करते जाओ वरना भुगतने के लिए तैयार रहो।

पत्रकार और पत्रकारिता में आई इस गिरावट का ख़ामियाज़ा सबसे ज्यादा वही वर्ग भुगत रहा है जिसने गोदी मीडिया के साए में बची खुची पत्रकारिता को भी खत्म कर दिया। हमने अपने अंदर की बेचैनी को मार दिया है। हम अब ठहर से गए हैं। आस पड़ोस में घटने वाली घटनाएं हमें परेशान तो करती हैं पर हम उसे खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे।

 

बेरोजगारी अब समस्या नहीं रही। टीवीपुरम ने हमे कन्विंस कर दिया है कि बढ़ती बेरोजगारी के लिए सरकार नहीं आरक्षण जिम्मेदार है। 40 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल दिलाने की उम्मीद जगाने वाले बाबा भी अब बता रहे हैं कि देश हित में कीमते बढ़ाना कितनी जरूरी है। हर परीक्षा से पहले पेपर आउट होना जैसे हमारे पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बन गया है लेकिन इससे हमें अब कोई खास फर्क नहीं पड़ता। युवा वर्ग लड़ना, जूझना और सवाल करना नहीं भूला है लेकिन टीवीपुरम के प्रभाव ने सवालों के केंद्रबिंदु में उन सबको ला दिया है जिनका इन सब सरोकारों से कोई मतलब ही नहीं।

 

ये टीवीपुरम का ही प्रभाव है कि कश्मीरी पंडितों के पलायन का जवाब उस मुस्लिम भाई से भी मांगा जा रहा जो उस समय पैदा भी नहीं हुआ था। ये टीवीपुरम का ही प्रभाव है कि बढ़ती महंगाई के लिए आज भी पंडित नेहरू की नीतियों को जिम्मेदार मानने वाले युवाओं की अच्छी खासी तादाद इकट्ठी हो चुकी है। ख़बर के नाम पर कुछ भी अनर्गल चला देना पत्रकारिता तो नहीं।

आप क्यों देखते हैं टीवी? क्या मजबूरी है आपकी? क्या आपके डाईनिंग रूम में सजी टीवी आपके मतलब की खबरें दिखाता है? आपने कब अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर कोई प्राइम टाइम देखा है? जो पत्रकार इसे दिखाने की कोशिश करता है उसे अलग अलग तरीकों से क्यों प्रताड़ित किया जाता है समझना मुश्किल नहीं। कुछ दिन के लिए आप टीवी और अखबार को अलविदा कहकर देखिए, यक़ीन मानिए आप ज्यादा खुशी महसूस करेंगे।

आवाज़ उठाइये अपने हक़ के लिए, अपने बेहतर कल के लिए अपने सपनों के लिए। लड़िए समाज से, सरकार से और सबसे पहले अपने आप से एक बेहतर इंसान बनने के लिए। बहुत बड़ा मकड़जाल बना गया है आपके सपनों को मारने के लिए। निकलना मुश्किल तो है पर असंभव नहीं। सवाल कीजिये खुद से। हर उस आदमी का साथ दीजिये जो अपने हक के लिए और आपके बेहतर कल के लिए आवाज़ उठाए। अंत में मैं आपको कवि पाश की इन पंक्तियों के साथ छोड़ रहा हूँ जो आपको प्रेरणा देंगी जब आप हताश होंगे उदास होंगे असहाय होंगें।

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

 

ओंकार राय 

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)