शर्म किसे आनी चाहिए, सरकार को या विपक्ष को?

लेकिन जो देश मंदिर से सम्मान खोज लेता है और गरीबी और दरिद्रता में ‘नियति’ का खेल समझ लेता है उसे प्रतिदिन अपमानित होने के लिए तैयार होना होगा। वो धर्म नहीं है जो देश को बांधता है, वो संविधान है जिससे भारत की एकता सुनिश्चित होती है, वो धर्म नहीं है जो महिलाओं और दलितों को न्याय दिलाएगा, वो असल में संविधान है जो शोषक को न्याय की देहरी पर जाकर पटकता है।

राहुल गाँधी के कैंब्रिज में दिए गए बयान को राष्ट्रविरोधी साबित करने की होड़ मची हुई है। जबकि असलियत यह है कि केन्द्रीय एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल और पेगासस के खतरे ने देश के संघीय ढांचे पर जो चोट मारी है वह अब असहनीय होती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति अब यह साबित कर चुकी है कि देश के कई सम्मानित लोगों के फोन में पेगासस स्पाइवेयर मौजूद है जोकि इसको बनाने वाली कंपनी के अनुसार या तो भारत सरकार ने खरीदा होगा या फिर किसी अन्य देश द्वारा भारत के सम्मानित नागरिकों पर नजर रखी जा रही होगी, वास्तव में यह है अपमानजनक!



भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के नेता और सांसद राहुल गाँधी द्वारा कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में भारत को यूनियन ऑफ स्टेट्स अर्थात “राज्यों का संघ” कहने से देश का अपमान नहीं हुआ है। संविधान में जो लिखा है उसे कहने में सिर्फ वही लोग अपमान महसूस कर सकते हैं जिन्हे भारत के संविधान को मानने में आज भी समस्या है। वास्तव में राहुल गाँधी ने जो कहा, भारत के संविधान की शुरुआत ही इस अनुच्छेद से होती है(अनुच्छेद-1)। संविधान की शुरुआत को उद्धृत करना अपराध नहीं है। फिर चाहे वो जमीन भारत की हो या भारत के बाहर किसी अन्य देश की। जिस तरह देश में केन्द्रीय एजेंसियों सीबीआई, ईडी और नारकोटिक्स ब्यूरो का इस्तेमाल गैर भाजपाई राज्यों में चल रही सरकारों के नेताओं और अन्य विपक्षी नेताओं को खंगालने में किया जा रहा है उससे नहीं लगता कि केंद्र और सरकार के बीच सबकुछ ठीक है। जब तक देश के सभी राज्य अपने अधिकारों और केंद्र की हमलावर नीतियों से असुरक्षित रहेंगे भारत का संविधान और उसका स्थायित्व भी खतरे में बना रहेगा।

समझना यह है कि वास्तव में देश का अपमान विदेशी जमीन पर कब और कैसे होता है? देश का सम्मान और अपमान देश के प्रतिनिधि से जुड़ा हुआ है।  भारत का प्रतिनिधित्व पिछले सात सालों से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। इन सात सालों में भारत के प्रधानमंत्री ने अनगिनत मौकों पर देश की पिछली चुनी हुई सरकारों की नीतियों की आलोचना करने की सबसे उपयुक्त जगह देश के बाहर पाई है।


प्रधानमंत्री स्वयं एक चुने हुए प्रतिनिधि हैं, क्या उन्हे नहीं पता कि जब एक बहुमत की सरकार बनकर तैयार होती है तब जनता अपने प्रधानमंत्री पर किस किस्म का भरोसा जता रही होती है? इसके बावजूद जब वो प्रधानमंत्री बनने के एक साल बाद ही दक्षिण कोरिया में(भारत में नहीं) भारत की “पूर्व की ओर देखो” नीति की आलोचना करते हैं तब क्या देश का और देश की जनता का सम्मान बढ़ जाता है? 90 के दशक में “पूर्व की ओर देखो” नीति तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के दिशानिर्देशन में शुरू की गई थी। यदि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री कोई नई नीति लाना चाहते हैं तो उनका स्वागत होगा, आखिर जनता ने उन्हे चुनकर उनपर भरोसा जो जताया है। लेकिन इस भरोसे का यह मतलब नहीं कि आप अपने घर(देश) की बुराई बाहर जाकर करें। यह अनुचित है।


नरेंद्र मोदी जी यहीं नहीं रुकते वो मई, 2015 को चीन में जाकर(भारत में नहीं) भारतीयों से कहते हैं “पहले आपको अपने भारत में पैदा होने को लेकर शर्म आती थी, अब आपको अपने देश का प्रतिनिधित्व करने में गर्व होता है”। यह बोली भारत के प्रधानमंत्री के लिहाज से काफी छोटी है। देश की आजादी के बाद हो सकता है कि भारत को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा हो।

अंग्रेज जिस तरह देश का खून चूस कर गए थे उसके बाद उसे खड़ा करना, सभी को भोजन उपलब्ध कराना(हरित क्रांति, 1960s), गर्भवती महिलाओं और बच्चों की देखभाल करना(ICDS, 1974), देश भर के स्कूली बच्चों को भोजन उपलब्ध कराना(मध्याह्न भोजन योजना 1995), देश भर के बच्चों को मुफ़्त में टीका उपलब्ध करवाना(सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम, 1985) कोई आसान काम नहीं था; वो भी तब, जब देश लगातार अपने पड़ोसियों से एक के बाद एक युद्ध लड़ रहा था। इतनी परेशानियों के बावजूद देश के किसी भी प्रधानमंत्री ने कभी किसी भी अन्य देश के राजनैतिक मामलों में “अबकि बार ट्रम्प सरकार” कहकर देश को अपमानित नहीं किया।

 

यह देश सबका अपना घर है, लाख मुश्किलें आयें, लाख ऐसी नीतियाँ हों जो आपको नहीं पसंद लेकिन बाहर जाकर अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की निंदा करना वास्तव में अपमानजनक है। चुनावी फायदे के लिए देश की पिछली सरकारों को अपने देश की जनता के बीच कठघरे में खड़ा करना, एक लोकतान्त्रिक राजनीति का हिस्सा है लेकिन इस्लामिक राष्ट्र UAE में जाकर पिछली सरकारों को “अनिर्णयकारी और सुस्त” कहना भारत के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता। मुझे याद नहीं आता कि कब और कौन सा विदेशी प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति भारत आकर अपने देश की पूर्ववर्ती सरकारों की आलोचना करके गया हो। ऐसे में भारत के प्रधानमंत्री कौन सी और क्या बाध्यता है? क्या देश के नागरिकों का सम्मान कम पड़ गया है कि उन्हे यूरोप में जाकर देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी के उस बयान का मजाक बनाने की जरूरत पड़ गई?

 

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने तो उस समय की समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए, रीढ़ दिखाते हुए कहा था कि केंद्र से निकला एक रुपया जनता तक सिर्फ 15 पैसे के रूप में ही पहुंच पाता है। नरेंद्र मोदी जी को इसमें कुछ अपमानजनक नहीं लगा जब उन्होंने राजीव गाँधी की इस चिंता के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा “वो कौन सा पंजा था जो 85 पैसे घिस लेता था”? उन्हे देश के संविधान की आलोचना भी अमर्यादित नहीं लगी जब उन्होंने कहा “पहले देश एक था लेकिन संविधान दो थे”। शायद उन्हे अहसास ही नहीं कि यह वही संविधान है जिसके बारे में बहुत से विशेषज्ञों ने कहा था कि संभव है कि भारत का संविधान अगले दस सालों में ही ढह जाए। लेकिन वो सभी गलत साबित हुए। आज देश की आजादी के 75 साल हो चुके हैं और संविधान अपनी जगह खड़ा है।

राहुल गाँधी के कैंब्रिज में दिए गए बयान को राष्ट्रविरोधी साबित करने की होड़ मची हुई है। जबकि असलियत यह है कि केन्द्रीय एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल और पेगासस के खतरे ने देश के संघीय ढांचे पर जो चोट मारी है वह अब असहनीय होती जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति अब यह साबित कर चुकी है कि देश के कई सम्मानित लोगों के फोन में पेगासस स्पाइवेयर मौजूद है जोकि इसको बनाने वाली कंपनी के अनुसार या तो भारत सरकार ने खरीदा होगा या फिर किसी अन्य देश द्वारा भारत के सम्मानित नागरिकों पर नजर रखी जा रही होगी, वास्तव में यह है अपमानजनक!


जब जर्मनी का प्रख्यात साप्ताहिक डेयर स्पीगल लिखता है कि “राष्ट्रवादी के रूप में मोदी 200 मिलियन शत्रुओं से लड़ रहे हैं” तो भारत का नागरिक होने के नाते अपमान महसूस होता है। क्योंकि यह अखबार इन 200 मिलियन लोगों के माध्यम से एक खास धर्म की बात कर रहा था।


यूक्रेन से जब भारतीय छात्रों को समय पर वापस लाने में नाकाम रहे भारत के प्रधानमंत्री पिछली सरकारों की नीतियों पर प्रश्न उठाने लगते हैं और छात्रों के बाहर जाकर पढ़ाई को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं तो अपमान महसूस होता है।

जब ऑस्ट्रेलियन अखबार सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए हमले को लेकर लिखता है “JNU में शस्त्रधारी ठगों द्वारा हमला”। तो बेचैनी होती है और घटना के वर्षों बाद भी देश के तथाकथित मजबूत गृहमंत्री के अंतर्गत काम करने वाली दिल्ली पुलिस 4 गुंडों को भी नहीं पकड़ पाती तो वास्तव में अपमानित महसूस होता है।

 

जब बीच कोरोना में भारत के प्रधानमंत्री विश्व आर्थिक मंच में जाकर बोले कि हमने कोरोना को हरा दिया है और विश्व को हमसे सीखना चाहिए। और उसके एक महीने के अंदर पूरे देश में मौत का नृत्य देखा गया, गंगा में मौत को नहाते हुए पूरे विश्व ने देखा। तब पूरे भारत का सर शर्म से नीचे झुक गया।

 

भारत के नागरिकों को सोचना होगा कि शर्म और अपमान क्या है? कब अपमान महसूस होना चाहिए कब नहीं? अपमान और सम्मान का प्रतिदिन उत्पादन देश के मीडिया टीवी चैनलों द्वारा किया जा रहा है और यही चैनल कभी ‘गौरव’ की अनुभूति कराते हैं तो कभी ‘अपमान’ की। मध्यप्रदेश में एक भाजपा नेता द्वारा एक मानसिक रोगी वृद्ध को, मुस्लिम होने के शक में इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। इस पर देश का तथाकथित न्यूज चैनल चुप रहेगा, खुलेआम बलात्कार की धमकी देते हुए हिन्दू धर्म का मजाक बनाने वाले छद्म साधुओं पर आपका प्रिय टीवी खामोश रहेगा, देश में 85 करोड़ लोग क्यों फ्री के राशन पर आश्रित हैं, क्यों महंगाई, गरीबों को सब्जी तक नहीं खाने दे रही, क्यों भारत भुखमरी सूचकांक में हाँफ रहा है, और क्यों सरकार यह नहीं मान रही कि देश में कोरोना से 47 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई, इन सब पर आपका टीवी सिर्फ चुप रहेगा।

जहां तक प्रश्न राहुल गाँधी के वक्तव्य का है तो इसे लेकर राजनीति विज्ञानी फिलिप महवूड का यह आब्ज़र्वैशन बहुत उचित है जिसके अनुसार “भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण देशों में संघवाद सिर्फ प्रशासनिक सुविधा का विषय नहीं बल्कि यह देशों के अस्तित्व से जुड़ा हुआ मसला है”। मुझे नहीं लगता कि राहुल गाँधी भारत के अस्तित्व पर सवाल उठा रहे हैं। वो तो बस अपनी सरकार को देश का संविधान याद दिल रहे हैं ताकि देश एकता के सूत्र में बँधा रहे।


“राज्यों के संघ” और संघवाद को लेकर संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था “[यह]संविधान एक संघीय संविधान है….संघ राज्यों की लीग नहीं है….न ही राज्य संघ की एजेंसी हैं जिससे राज्यों को शक्ति प्राप्त होती हो….संघ और राज्य दोनों ही संविधान द्वारा बनाए गए हैं और दोनों ही संविधान से ही अपने अपने प्राधिकार प्राप्त करते हैं”। ऐसे में “राज्यों का संघ” कहने पर अपमानित महसूस नहीं करना चाहिए बल्कि गर्व होना चाहिए कि देश में ऐसा नेतृत्व है जो इस देश को संविधान के अनुसार चलाना चाहता है। वही संविधान जिसने दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का संरक्षण अपने अस्तित्व में आने के बाद से अनवरत किया है।


लेकिन जो देश मंदिर से सम्मान खोज लेता है और गरीबी और दरिद्रता में ‘नियति’ का खेल समझ लेता है उसे प्रतिदिन अपमानित होने के लिए तैयार होना होगा। वो धर्म नहीं है जो देश को बांधता है, वो संविधान है जिससे भारत की एकता सुनिश्चित होती है, वो धर्म नहीं है जो महिलाओं और दलितों को न्याय दिलाएगा, वो असल में संविधान है जो शोषक को न्याय की देहरी पर जाकर पटकता है।

राहुल ने देश को सिर्फ “राज्यों का संघ” नहीं कहा, उन्होंने देश को मिट्टी के तेल में डूब हुआ पाया जिसे सिर्फ एक चिंगारी की जरूरत है। खरगोन, दिल्ली और राजस्थान में मर्यादापुरुषोत्तम राम के नाम पर जिस तरह चाकू और तलवारें लहराई गईं उससे क्या आभास होता है कि देश में अमन चैन कायम है? कुछ लोग अपनी सत्ता के लिए भारत को फूहड़ता की ओर धकेल रहे हैं, भारत के राम जैसे वो नाम जिनका अनुसरण करने में हर भारतीय गर्व महसूस करता था आज कुछ लोग इसे आतंक का पर्याय बनाने में लगे हुए हैं। अगर इसकी पहचान हो गई है कि देश मिट्टी के तेल में है और मीडिया हाथों में फुलझड़ी लिए खेल रहा है तो नागरिक के रूप में हर भारतीय का यह दायित्व हो जाता है कि वो देश को इस “अग्नि-पदार्थ” से बाहर निकालें।

 

साभार: www.satyahindi.com