अपने संतोष के लिए जब मैं जुदा-जुदा धर्मों की पुस्तकें देख रहा था तब ईसाई धर्म, इस्लाम, जरथुस्त्री, यहूदी और हिन्दू – इतने धर्मों की पुस्तकों की मैंने अपने संतोष के लिए जानकारी प्राप्त की। यह करते हुए इन सब धर्मों की ओर मेरे मन में समभाव था, ऐसा मैं कह सकता हूँ। उस समय मुझे यह ज्ञान था, ऐसा मैं नहीं कहता। ‘समभाव’ शब्द की भी पूरी जानकारी उस वक़्त मुझे नहीं होगी। लेकिन उस समय के अपने स्मरण ताज़े करता हूँ, तो मुझे इन धर्मों की टीका-टिप्पणी करने की इच्छा भी कभी हुई हो ऐसा याद नहीं आता। बल्कि उनकी पुस्तकों को धर्म की पुस्तकें समझ कर मैं आदर से पढ़ता था और सब में मूल नीति के उसूल एकसे ही देखता था।
कुछ बातें मेरी समझ में नहीं आती थीं। ऐसा ही हिन्दू धर्म-पुस्तकों का था। ऐसी तो कितनी ही बातें हैं, जो आज भी मेरी समझ में नहीं आतीं। लेकिन अनुभव से मैं देखता हूँ कि जिसे हम समझ न सकें वह ग़लत ही है, ऐसा मानने की जल्दबाज़ी करना भूल है। जो कुछ पहले मेरी समझ में नहीं आता था, वह आज दीपक की रोशनी जैसा साफ़ मालूम होता है। अपने भीतर समभाव बढ़ाने से बहुत-सी गुत्थियाँ अपने-आप सुलझ जाती हैं; और जहाँ हमें दोष ही दिखाई दे वहाँ उसे दिखाने में भी जो नम्रता और विनय हममें होता है, उसके कारण किसी को दुःख नहीं होता।
मंगल प्रभात- 30/09/1930