हम अपने विकारों का जितना पोषण करते हैं, वे उतने ही निरंकुश बनते हैं: महात्मा गाँधी - The Lucknow Post

हम अपने विकारों का जितना पोषण करते हैं, वे उतने ही निरंकुश बनते हैं: महात्मा गाँधी

"इस राष्ट्र के पास अदालतें, वकील और डॉक्टर थे, परंतु वे सब मर्यादाओं के भीतर रहते थे।"

Gandhi

सदाचार का पालन करने का अर्थ है अपने मन और विकारों पर प्रभुत्व पाना। हम देखते हैं कि मन एक चंचल पक्षी है। उसे जितना मिलता है उतनी ही उसकी भूख बढ़ती है और फिर भी उसे संतोष नहीं होता। हम अपने विकारों का जितना पोषण करते हैं, उतने ही निरंकुश वे बनते हैं। इसलिए हमारे पूर्वजों ने हमारे भोग की मर्यादा बना दी थी। उन्होंने देखा कि सुख बहुत हद तक मानसिक स्थिति है। यह ज़रूरी नहीं कि कोई मनुष्य धनवान होने के कारण सुखी हो और निर्धन होने के कारण दु:खी हो। धनवान अकसर दुःखी और गरीब अकसर सुखी पाये जाते हैं। करोड़ों लोग सदा निर्धन ही रहेंगे। यह सब देखकर हमारे पुरखों ने हमें भोग-विलास से और ऐश-आराम से दूर रहने का उपदेश दिया। हमने हजारों वर्ष पहले के हल से ही काम चलाया है। हमारी झोंपड़ियाँ अब भी उसी किस्म की हैं जैसी पुराने जमाने में थी; और हमारी देशी शिक्षा अब भी
वैसी ही है जैसी पहले थी।

 

 

हमारे यहाँ जीवन-नाशक स्पर्धा की प्रणाली नहीं रही। हरएक अपना- अपना धंधा या व्यवसाय करता था और नियमित मज़दूरी लेता था। यह बात नहीं कि हमें यंत्रों का आविष्कार करना नहीं आता था। परंतु हमारे बाप-दादा जानते थे कि अगर हमने इन चीज़ों में अपना दिल लगाया, तो हम गुलाम बन जाएँगे और अपनी नैतिक शक्ति खो बैठेंगे। इसलिए उन्होंने काफ़ी विचार करने के बाद निश्चय किया कि हमें केवल वही करना चाहिए जो हम अपने हाथ- पैरों से कर सकते हैं। उन्होंने देखा कि हमारा सच्चा सुख और स्वास्थ्य अपने हाथ-पैरों को ठीक तरह काम में लेने में है। उन्होंने यह भी कहा कि बड़े-बड़े शहर एक फंदा और व्यर्थ का भार है ओर लोग उनमें सुखी नहीं रहेंगे; वहाँ चोर-डाकुओं की टोलियाँ लोगों को सतायेंगी, व्यभिचार व बदी का बाज़ार गर्म रहेगा और गरीब लोग अमीरों द्वारा लूटे जाएँगे। इसलिए वे छोटे-छोटे गाँवों से संतुष्ट थे।

 

 

उन्होंने देखा कि राजा और उनकी तलवारें नीति की तलवार से घटिया है और इसलिए वे पृथ्वी के सम्राटों को ऋषियों और फकीरों से नीच मानते थे। इस प्रकार के विधान वाला राष्ट्र दूसरों से सीखने के बजाय उन्हें सिखाने के लिए अधिक योग्य है। इस राष्ट्र के पास अदालतें, वकील और डॉक्टर थे, परंतु वे सब मर्यादाओं के भीतर रहते थे। हर एक जानता था कि ये पेशे खास तौर पर श्रेष्ठ नहीं है; साथ ही, वे वकील और वैद्य लोगों को लूटते नहीं थे। वे लोगों के अश्रित माने जाते थे, नाकि उनके मालिक। न्याय काफ़ी निष्पक्ष था। साधारण नियम तो अदालतों से दूर ही रहने का था। लोगों को फुसलाकर अदालतों में ले जाने वाले कोई दलाल नहीं थे। यह बुराई भी राजाधानियों के भीतर और उनके आसपास ही दिखाई देती थी। साधारण लोग स्वतंत्र जीवन व्यतीत करते और अपना खेती का धंधा करते थे। वे सच्चे स्वराज्य का उपभोग करते थे।

 

हिन्द स्वराज, 1909; अध्याय 13