अभय का मतलब है तमाम बाहरी भयों से मुक्ति। मौत का डर, धन-दौलत लुट जाने का डर,
कुटुम्ब-कबीले के बारे में डर, रोग का डर, हथियार चलने का डर, आबरू का डर,
किसी को बुरा लगने का – चोट पहुँचाने का डर, इस तरह डर की फेहरिस्त
जितनी बढ़ाना चाहें हम बढ़ा सकते हैं। एक मौत का भय जीता कि सब भयों को जीत लिया,
ऐसा आम तौर पर कहा जाता है। लेकिन यह ठीक नहीं लगता। बहुत से लोग मौत का डर छोड़ देते हैं,
फिर भी वे तरह तरह के दु:खों से भागते हैं।
कुछ लोग खुद मरने को तैयार होते हैं, लेकिन सगे-संबंधियों का बिछोह
बरदाश्त नहीं कर सकते। कोई कंजूस यह सब छोड़ देगा, देह भी छोड़ देगा,
लेकिन जमा किया हुआ धन छोड़ते झिझकेगा। कोई आदमी अपनी मानी हुई
इज़्ज़त-आबरू बनाए रखने के लिए बहुत कुछ स्याह-सफ़ेद
(ब्लैक एण्ड व्हाइट) करने को तैयार हो जाएगा और करेगा।
कोई जगत की निंदा के भय से सीधी राह जानते हुए भी उसे पकड़ते हिचकिचायेगा।
सत्य की खोज करनेवाले को इन सब भयों को छोड़े सिवा चारा नहीं।
हरिश्चंद्र की तरह बरबाद होने की उसकी तैयारी
होनी चाहिए। हरिश्चंद्र की कथा भले ही मनगढ़ंत हो, लेकिन उसमें सब आत्मार्थियों
(आत्मा का कल्याण चाहनेवालों) का अनुभव भरा हुआ है;
इसीलिए उस कथा की कीमत किसी तारीख़ी कथा से अनंतगुनी ज़्यादा है
और हम सबको उसे अपने पास रखना चाहिए और उस पर ग़ौर करना चाहिए।
– मंगल प्रभात