कहीं आप न्याय के लिए खतरा तो नहीं?

वैश्वीकरण के इस दौर में जब हम अपने गांव, शहर, बदल रहे हैं तो यह आवश्यक है कि हमारी भाषा में सबके लिए समानता और समावेशिता आए।

रंगभेद में देश में काले रंग के लोगों के लिए “कल्लू”, “अफ्रीकन”, “नीग्रो” इत्यादि। ऐसे लोगों मज़ाक बनना, उन पर रंग गोरा करने पर ज़ोर, रंग गोरा करने के लिए सौन्दर्य-प्रसाधन की पूरी इंडस्ट्री और विज्ञापन और विवाह के लिए विज्ञापनों और चर्चाओं में गोरे रंग की प्राथमिकता।



“आपके मद्रास में सांभर बहुत अच्छा मिलता है”
“जी मैं मद्रास से नहीं हूँ, विजयवाड़ा से हूँ”
“ओह, एक ही बात हुई ना, दोनों साउथ इंडिया में ही तो हैं”

या फ़िर: “बिहारी सब होते ही ऐसे हैं”

या फ़िर अभी हाल ही में: “चन्नी चमार के बस की नहीं है कुछ”

या फ़िर: “तुम काले क्यों हो, जन्म के समय बिजली चली गई थी क्या?”

इस तरह के तमाम शब्द, वाक्य, अभिव्यक्तियां या तो हम अपने समाज में अपने आस पास सुनते हैं या फ़िर हम ख़ुद भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनका प्रयोग करते हैं – इस बात से बिल्कुल अंजान और बेफ़िक्र हो कर कि उनका अर्थ और उनका ऐतिहासिक और सामाजिक बोध क्या है।

यह सब जातिवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, रंगभेद, इत्यादि के अलग अलग स्वरुप हैं।

 

कोई दिखने में या रहन सहन में साफ – सुथरा नहीं है तो पंजाबी में उसे “चूड़ा”और हिंदी में “भंगी” या “जंगली” कहना आम है जब कि चूड़ा, भंगी दलित जातियां हैं और “जंगली” वह कबीलाई और आदिवासी जो जंगलों में रहते आए हैं। जातियों और उनके पेशों से संबंधित ऐसे और भी बहुत से शब्द हैं जैसे धोबी, महाड़, चमार, कमीना, कंजर, चांडाल, मलेछ, कसाई, भांड।

 

जब पुराने ज़माने में अभिनय, संगीत और नृत्य वगैरह में जाने वालों को उपहास-पूर्वक “भांड” कहा जाता था तो इसका मतलब ये हुआ कि, उस समय ना उस पेशे की कोई इज़्ज़त थी और ना ही उन पेशेवरों की। कलाकारों की कला से मनोरंजन में गुरेज नहीं पर उस पेशे और पेशेवरों को समाज का सम्मानित हिस्सा भी मानने से इंकार। कूड़ा और मल-मूत्र उठाने, चमड़े बनाने, कपड़े धोने इत्यादि वालों के बिना जीवन व्यापन नहीं हो सकता पर उन्हें अपने जीवन में इंसान तक समझने से इंकार। दलितों का धर्म और कर्म गंदगी उठाना है पर सवर्णों द्वारा दी गयी यह “अपमान और उपहास” की गंदगी शायद हमेशा दलितों के साथ रहेगी।

इन सब शब्दों का जन्म जाति या समाज में पहचान के लिए हुआ था उन्हें बतौर गाली प्रयोग करने के लिए नहीं।

कल्पना कीजिये आप वर्ण व्यवस्था और अपनी जाति के चलते सदियों के भेदभाव और उत्पीड़न से हो कर गुज़रे हों और आप आपके नाम या आपकी जाति या पेशे को आप ही के लिए एक गाली की तरह पुकारा जाए तो आप कैसा महसूस करेंगे?

 


वर्ण व्यवस्था पहले आपके कर्म निर्धारित करती है और फ़िर यह कि आपकी जाति किन बुरे और गंदे संदर्भों में इस्तेमाल होगी। इस मसले पर सबसे दुखद बात यह है कि अगर आप सवर्ण हैं तो आपको यह स्वयं याद रहेगा और अगर आप निचली जाति से हैं तो पूरा समाज आपको जीवन भर आपकी जाति की याद दिलाएगा।जब तक वर्ण व्यवस्था मजबूत है तब तक जाति मजबूत रहेगी, और जब तक जाति मजबूत है तब तक निम्न जाति भी रहेगी।


 

भारत में सामान्यतः उच्च पदों पर सवर्णों का वर्चस्व है जो अभी भी सामंती मानसिकता से ग्रस्त हैं और वो इसलिए क्योंकि इस मानसिकता से मिलने वाले लाभ उन्हें वंचितों से आगे रखते हैं। भाषा एक सामाजिक पूंजी है, एक विशेषाधिकार है जो वर्ण व्यवस्था में हम कहाँ हैं उस से सीधा जुड़ा हुआ है। हमारी रोज़मर्रा की भाषा जातिवादी है, और इसलिए हम इसका उपयोग करने का तरीका अपनी सहूलियत से चुनते हैं। इसलिए, जब भी हमें किसी के दिखने के तरीके या वे कितने गंदे या गंदे हो सकते हैं, इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता होती है, तो हम तुरंत उन शब्दों का सहारा लेते हैं जो हमने अपनी जातिवादी परवरिश से सीखे हैं.

पर यह तिरस्कार और मखौल सिर्फ़ जाति तक सीमित नहीं। धर्म, क्षेत्र, रंग में भी यह ज़हर फैला हुआ है – पूरी सामाजिक स्वीकृति के साथ।

 

धर्म संबंधित उदहारणों में सबसे प्रमुख हैं सिखों और मुस्लिमों के लिए प्रयोग होने वाली अभिव्यक्तियां। मसलन सिखों के लिए “12 बज गए क्या” या फ़िर “ख़ालिस्तानी” और मुस्लिमों के लिए “कटुआ” या “तुम्हारी 4 मम्मियां हैं क्या” या तमाम और। यह सब शब्द गालियां तो नहीं हैं पर यह एक सभ्य समाज में स्वीकृत शब्दावली भी नहीं है। सिखों का उनके लंबे केश पर उपहास या मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने की आम सलाह – यह सब मानसिक पूर्वग्रह ही हैं।

 

और यह पूर्वग्रह उन में ही हैं जो स्वयं इस उपहास का पात्र कभी नहीं बने हैं। तो गुस्से में किसी सिख को “अबे सरदार” या किसी मुस्लिम को “मदरसा छाप” या किसी को जाति आधारित अपशब्द कहना और कुछ नहीं बस उस समुदाय या जाति के लिए हमारे मन में नफ़रत और अज्ञानता को दर्शाता है।

क्षेत्र के आधार पर भी तमाम बद-ज़बानियां हैं।

जैसे कि – महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट से आने वालों के लिए कहा जाने वाला शब्द “घाटी” जो कि अक्सर किसी ऐसे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए कहा जाता है जो असंस्कृत, पिछड़ा और असभ्य लगे।

जैसे कि – उत्तर-पूर्वी राज्यों से आने वालों के लिए कहा जाने वाला शब्द “चिंकी” या “चिंके”।

जैसे कि – सारे दक्षिण भारतीयों को “मद्रासी” कह कर संबोधित करना।

जैसे कि – पंजाब में उत्तर प्रदेश/बिहार/झारखंड की प्रवासी जनता को “भैया” कहना – संबोधन के लिए भी और अपमान के लिए भी।रंगभेद में देश में काले रंग के लोगों के लिए “कल्लू”, “अफ्रीकन”, “नीग्रो” इत्यादि। ऐसे लोगों मज़ाक बनना, उन पर रंग गोरा करने पर ज़ोर, रंग गोरा करने के लिए सौन्दर्य-प्रसाधन की पूरी इंडस्ट्री और विज्ञापन और विवाह के लिए विज्ञापनों और चर्चाओं में गोरे रंग की प्राथमिकता। लेकिन उन विज्ञापनों, चर्चाओं और प्राथमिकताओं में हम ध्यान ही नहीं दे पाते कि वो किस क़द्र हीन भावना पैदा कर सकते हैं उन में जिन पर वो सारे दबाव हैं।

इन में से कुछ शब्द शायद ऐसे होंगे जिनका मैं ख़ुद भी प्रयोग अभी भी कर रहा हूँ लेकिन कोशिश है कि उन्हें छोड़ दूँ। वैश्वीकरण के इस दौर में जब हम अपने गांव, शहर, बदल रहे हैं तो यह आवश्यक है कि हमारी भाषा में सबके लिए समानता और समावेशिता आए; और ना भी बदल रहे हैं तो भी इंसानियत के नाते यह आवश्यक है। यह सामाजिक से पहले हमारी व्यक्तिगत आवश्यकता है।

क्योंकि मार्टिन लूथर किंग ने कहा था “Injustice anywhere is a threat to justice everywhere.”; “अन्याय कहीं का भी हो, वह हर जगह के न्याय के लिए खतरा ही है।”

 

सतनाम सिंह

(यह लेखक के निजी विचार)