“इन दंगों में कम से कम एक महिला जनसंघी नेत्री शामिल थी”: विभूति नारायण राय

अब जब आप मेरठ को देखे हैं तो आप यह ध्यान रखें कि जिन लोगों ने 42 मुसलमानों को मारा था उसमें पीएसी का सबइंस्पेक्टर सुरेन्द्र पाल सिंह उनका कमांडर था जो बहुत सी दुर्भावनाओं और पूर्वग्रहों से घिरा था

vibhuti narayan rai

हाशिमपुरा जैसी घटनाएँ लोकतान्त्रिक-प्रशासनिक मूल्य-पैरालिसिस से जन्म लेती हैं- संस्थाएं अधिकारी पैदा करती हैं, उन्हें ट्रेनिंग देती हैं लेकिन उनके अंदर लोक-सौहार्द्र के मूल्यों का विकास परिवार, समाज और शिक्षा के मंथन से होता है। ऐसे ही एक मंथन से निकले उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी श्री विभूति नारायण राय के अंदर का साहित्यकार जब पुलिसव्यवस्था से मिला तो ‘हाशिमपुरा’ जैसी बेधक पुस्तक ने जन्म लिया। सरकार,प्रशासन और उसके चरित्र पर विभूति जी से स्तंभकार एवं ब्यूरोचीफ, कर्म कसौटी लखनऊ, वंदिता मिश्रा के कार्यक्रम ‘द गोल्डन आवर’ में चर्चा।

 

हाशिमपुरा’ पुस्तक व उसके भी परे जाकर सरकार और प्रशासन के बीच स्थित सांप्रदायिक रिसाव को खोजते पूर्व डीजीपी श्री विभूति एन. राय

 

 

वंदिता मिश्रा: किताब पढ़ने के दौरान मन संदेहों में घिर जाता है, उसमें कौशिक परिवार का ज़िक्र हुआ तो शक की सुई भाजपा और उसके संगठनों की ओर जाती है; वहीं टॉप पुलिस अधिकारियों का रवैया देखकर यह शक तत्कालीन काँग्रेस सरकार पर चला जाता है। राजनीतिक स्तर पर कौन दोषी है?

विभूति एन.राय: देखिये, इस मे तो कोई शक नही कि हाशिमपुरा कांड मे भाजपा और कांग्रेस दोनो का प्रदर्शन निराशाजनक था। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि कांग्रेस अपने ऐतिहासिक चरित्र के कारण सारे विचलन के बावजूद धार्मिक राजनीति नही कर सकती। उसका 100 साल से ज्यादा का इतिहास है और वह एक ऐसे प्लेटफार्म की तरह थी जिसमें हर तरह के लोग आ गए। जब कांग्रेस खड़ी हो रही थी तो यह एक अकेली संगठन थी,जिसमें पूरे देश से अलग-अलग तरह के लोग आए, उस वक्त तो उनमें बहुत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी नहीं थी, पर बाद के सालों में कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, हिन्दू महासभाई, जमायातुल उलेमा-ए-हिन्द, यहाँ तक पार्टीशन के बाद जो भारत बचा, उसमें जो मुस्लिम लीग के नेता थे और जो पाकिस्तान नहीं गए वह सब के सब कांग्रेस में शरीक हो गए। लेकिन भारतीय जनता पार्टी में तो इस तरह का भ्रम नहीं है ना, भारतीय जनता पार्टी और उसकी पूर्वज भारतीय जनसंघ, उसने तो कुल मिलाकर हिंदुत्व की राजनीति ही की है। हाशिमपुरा एक खास किस्म की मानसिकता का द्योतक है। वह मानसिकता बहुसंख्यक समुदाय (हिंदुओं) के परिवारों के बच्चों के मन में कम उम्र से बनाई जाती हैं, जब बच्चा अभी समझना शुरू ही करता है तभी से बताया जाता है कि मुसलमान गंदे होते हैं,बर्बर होते हैं,गोश्त खाते हैं, हिंसक होते हैं, उनके घर में हथियार होते हैं,वो पाकिस्तानी होते हैं, वो नहाते नहीं है। तो ऐसे परिवारों में बच्चे इन्हीं दुर्भावनाओं को मन में लेकर बड़े होते हैं। मैं जब यह कह रहा हूं तो आपको यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि यह सिर्फ हिंदुओं के परिवारों में ही होता है। मुस्लिम परिवारों मे यही दुर्भावनाएँ हिंदुओं के बारे मे बच्चों के मन मे भरी जाती हैं । दरस्ल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो रिश्ते दिखते हैं वे पिछले 13सौ वर्षों के पड़ोस की उपज हैं। आपको इसके इतिहास में ले चलते हुये बताता हूँ कि जब मुहम्मद बिन कासिम सन 711ई. में सिंध में आया तब हमारा साक्षात्कार पहली बार पॉलिटिकल इस्लाम से हुआ। इसके पहले जिस इस्लाम से हमारा संपर्क हुआ था वह तिजारती या व्यापारिक इस्लाम था,और ये लोग मोहम्मद साहब की जिंदगी में ही केरल में आ गए थे। वो यहीं पर शादी करते थे और यहीं बस जाते थे, उन्हें मोपला कहा जाता था, मलयालम में मोपला का मतलब दामाद होता है।एक तरीक़े से किसी किस्म का क्लैश नहीं था। पर जब मुहम्मद बिन कासिम आया तो उसने सिंध पर कब्जा किया, नॉर्थ वेस्ट भारत जो पेशावर से लेकर मरी तक, रावलपिंडी तक फैला था सारे इलाके मुस्लिम डोमिनेंस में आए और उसके अच्छे बुरे नतीजे निकले। पॉलिटिकल इस्लाम के आने से बड़ी दिलचस्प बात ये भी आई कि इस पड़ोस ने साथ साथ रह कर बड़ी खूबसूरत चीजें बनाईं, आर्कीटेक्चर में, स्कल्पचर में,म्यूज़िक में, पेंटिंग में यहां तक पाकशास्त्र(क्विजीन),टाउन प्लैनिंग; सब मे आप यह कह सकती हैं कि हमने दुनिया की सबसे बेहतरीन चीजें बनाईं,और यह भी बता दूँ कि यह कहना भी सरलीकरण होगा कि एक दूसरे के साथ हमने मिलकर सिर्फ खूबसूरत चीजें ही बनायीं या कंट्रीब्यूट किया; हम एक दूसरे से लड़ते भी रहे हैं। लड़ने का एक स्थायी नतीजा ये हुआ कि विभाजन हो गया और आज भी लड़ाई झगड़े होते रहते हैं। हमारा ऐसा संग साथ था, ऐसा पड़ोस था जो दुनिया में अद्भुत था। अद्भुत इस अर्थ में कि हम इतने लंबे समय तक साथ में रहे फिर भी एक दूसरे के साथ खाना नहीं खाते थे, एक दूसरे के यहां शादियां नहीं करते थे , एक दूसरे से छुआछूत का भेदभाव रखते थे। अकेले हिंदू नहीं मुसलमान भी यही दुर्भावनाएँ रखते थे। मैं आपका ध्यान भाषा की तरफ भी आकर्षित करूंगा क्योंकि भाषा के स्तर पर भी वायलेंस (हिंसा) था। जैसे- हिंदू मुसलमानों के लिए म्लेच्छ (अनक्लीन,गंदा) शब्द का इस्तेमाल करते थे। जब हम लोग बचपन में नही नहाने के कारण डांट खाते थे तो हमें यही कहा जाता था कि क्यों मलीच्छ् की तरह घूम रहे हो जबकि यह म्लेच्छ शब्द वैदिक संस्कृत से आया और तब उसका अर्थ होता था अस्पष्ट उच्चारण करने वाला व्यक्ति। आर्य आए; वो संस्कृत बोलते थे और अनार्य जातियां जिन्हें वो असुर मानते थे वे संस्कृत नहीं बोल पाती थी इसलिए उन्हें म्लेच्छ कहते थे। बाद के दिनों में यही शब्द हिंदुओं ने मुसलमानों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और इसका अर्थ हो गया अस्वच्छ या गंदा । मैं फिर कहूंगा कि यह एकतरफा नहीं था। मुसलमानों के लिये हिंदू शब्द का मतलब क्या था? पहले अरबी और तुर्की की डिक्शनरियाँ आयीं बाद में उर्दू की डिक्शनरियाँ बनी। तुर्की और अरबी शब्दकोशों मे हिंदू शब्द का अर्थ है -चोर, रहजन, स्याहफाम यानि काले रंग वाला। खड़ी बोली जब उर्दू बनी और उर्दू की डिक्शनरियाँ आईं तो जो सबसे महत्वपूर्ण डिक्शनरी है वह है लुग्त-ए-किशवरी और इसमे जो हिंदू शब्दका अर्थ दिया है वह भी यही है । मजेदार बात यह है कि ये अभी तक चल रहा है। तो यह जो शब्द है वो उनके अंदर जो एक डीपरूटेड बहुत गहराई में बैठी दुर्भावना थी उसका यह प्रतीक था। सच तो ये है कि हमने खूब सरलीकरण बनाए। मेरा एक इंटरव्यू है जो मैंने प्रोफेसर इशतियाक अहमद(पाकिस्तानी मूल के इतिहासकार,स्वीडन के नागरिक और स्टोकहोम विश्वविद्यालय मे शिक्षक)के साथ लिया था और मैंने इन सरलीकरणों का ज़िक्र किया है —- पहला तो यह है कि लड़ते तो सिर्फ़ राजे महाराजे थे, गाँवो या क़स्बों मे आम जन तो बड़े प्रेम से साथ रहते थे, इसी तरह का दूसरा सरलीकरण है कि हम तो मिलजुल कर रहते वो तो अंग्रेजों ने हमे लड़ा दिया। विभाजन को लेकर भी बड़ी गलतफहमी है, जो हमारे मन में बैठाई गई है। लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने विभाजन करा दिया वरना हम तो बड़े प्रेम से रहते, एक होकर रहते। प्रोफ़ेसर इशतियाक अहमद ,जिनकी हाल मे जिन्ना पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण किताब आयी है , उन्होंने भी माना कि यह सिंपलीफिकेशन है। अंग्रेजों को गए 75 साल हो गए पर आज भी हम को जब मौका मिलता है तब हम लड़ लेते हैं, लड़ते रहते हैं। अब जब आप मेरठ को देखे हैं तो आप यह ध्यान रखें कि जिन लोगों ने 42 मुसलमानों को मारा था उसमें पीएसी का सबइंस्पेक्टर सुरेन्द्र पाल सिंह उनका कमांडर था जो बहुत सी दुर्भावनाओं और पूर्वग्रहों से घिरा था।1985-86 के दौरान मेरठ में हर 2-4 महीने के बाद दंगे होते थे। मेरठ में दो मोहल्ले थे हाशिमपुरा और मलियाना यहाँ आसानी से पुलिस भी नहीं जा पाती थी। हिंदुओं ने डिक्लेयर कर रखा था कि यह मिनी पाकिस्तान है। सुरेंद्र पालसिंह भी यही सोचा करता था। मिनी पाकिस्तान को कंट्रोल करने का एक ही तरीका है सख्ती की जाए और जब पुलिस को कहा जाता है सख्ती की जाए, दंगा क्यों नहीं रुक पा रहा है आप इसे कंट्रोल नहीं कर पा रहे तो आप उस संदेश को ऐसे समझते हैं कि ‘मुसलमानों के साथ सख्ती की जाए’ मैंने उस दौर में अपने कई सीनियर अधिकारियों से बहस की और कहा कि जरा हिंदुओं के साथ सख्ती का प्रयोग करके देखें, यह दंगा रुक जाएगा। जो सुरेंद्र पाल सिंह था उसको भी यही लगता था कि यह मिनी पाकिस्तान है और इस को कंट्रोल करने का एक ही तरीका है, वह यह कि सख्ती की जाए! तो सख्ती देखिए कितनी भयानक सख्ती थी,42 लोग जो मारे गए इनका चयन किस आधार पर हुआ? 500लोगों को घरों से निकाला गया और 42 हट्टे कट्टे नौजवानो को छांटा गया जोकि अपने समुदाय की शक्ति हो सकते थे। जब मैंने सुरेन्द्र पाल सिंह से पूछा कि तुम कभी भी इनमें से किसी से पहले मिले थे, तो उसने कहा नहीं! तो लेखक होने के नाते ये गुत्थी मेरे लिए बहुत महत्व रखती थी। मै जानना चाहता था कि हत्यारा अपना शिकार क्यों चुनता है? सभी हत्यारों के पास वैलिड कारण होते हैं? तो इसने उन लोगों को क्यों मारा? हाशिमपुरा को काँग्रेस ने कराया तो नहीं था पर इतनी गंभीर घटना पर जितना गंभीर रिऐक्शन सरकार की तरफ़ से आना चाहिये था वह नही आयी। इन दंगों में कम से कम एक महिला जनसंघी नेत्री शामिल थी, पर इस पर ताज़्ज़ुब की तो बात ही क्यों की जाय क्योंकि उनकी तो पूरी राजनीति इसी पर है। जनसंघियों की राजनीति हिन्दू मुस्लिम रिश्ते बिगड़े रहें इसी पर आधारित है। जब हाशिमपुर हुआ तो कांग्रेसी मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने सख़्त कार्यवाही की अर्जेंसी नहीं दिखाई, उन्होंने इसे चैलेंज के रूप में नहीं लिया। यह आजादी के बाद की सबसे बड़ी कस्टोडियल किलिंग थी। मेरी जानकारी में आज़ाद भारत मे अपनी हिरासत में लेकर पुलिस ने एक साथ इतने लोगों को नहीं मारा था। काँग्रेस सरकार ने ऐसी कोई कार्यवाही क्यों नहीं की, जिसे एक्जाम्प्लरी कहा जाए।

वंदिता मिश्रा: आपके पहले असम का ‘नेलिहत्याकांड’ और आपके समय का हाशिमपुरा और इसके बाद गुजरात दंगा और ऐसे तमाम अन्य मामले मुसलमानों की संगठित हत्या की बेशर्म घटनाएँ हैं।इनमे से किसी घटना में किसी को न्याय नहीं मिला मुख्य अपराधी न सिर्फ़ बचते रहे बल्कि उच्च राजनीतिक पद प्राप्त करते गए। सवाल यह है कि क्या मुसलमान विभाजन के बाद इस देश में इसलिए रुक गए थे ताकि समय समय पर राजनीति के लिए उनकी बलि दी जा सके?

विभूति एन.राय: मैंने प्रो इश्तियाक अहमद से बड़ा चुभने वाला सवाल पूछा था, मैंने उनसे कहा कि साहब बुद्धिजीवी फैजान मुस्तफा एक लिबरल मुसलमान है और हमारे बुद्धिजीवी ओवैसी साहब एक रेडिकल इस्लाम वाली पार्टी चलाते हैं। पर दोनों ‘एक बात’ कहते हैं। वो ये कि मुसलमान भारत में बाई चॉइस इंडियन है उसे 1947 में एक मौका मिला था,यदि वह चाहता तो पाकिस्तान चला जाता। वह इस धरती से प्यार करता था इसलिए गया नहीं। ये बहुत ही सिंपलीफाइड किस्म की बातें कहते हैं, मैंने कहा कि कहीं आप यह तो नहीं कहते कि जो हिंदू और सिक्ख उधर से आए वो अपनी धरती को प्यार नहीं करते थे? मै साहित्यकार हूं और साहित्य से आपको उदाहरण दूंगा। पंजाबी,हिंदी और उर्दू में पचासों कहानियां हैं जिनमें एक सिख अपनी बूढ़ी बीवी के साथ पोटली में खाने की चीजें, कुछ जेवर बांधकर; भीगी आँखों से एक-एक कमरे में जाता है, सामान बाहर निकालता है, उसमें ताला लगाता है, कमरों में ताला लगाता है और अंत में आकर चाभी अपने मुसलमान पड़ोसी को सौंपता है, कहता है भाई अल्लारखा देखते रहना। हम लौट के आएंगे। पर वह कभी लौटा नहीं। अगर वो रास्ते में मारा नहीं गया तो शरणार्थियों के शिविर में कहीं पड़ा रहा। पता नहीं कहां? इसलिए आप यह तर्क मत दीजिए; आपको तो यह तर्क देना चाहिए कि भारत में एक ऐसा नेतृत्व था, जो आपके साथ मजबूती से खड़ा था। पार्टीशन तो इस बात पर हो रहा था कि हिंदू और मुसलमान दोनों नेशन है दोनों साथ नहीं रह सकते पर भारत के नेतृत्व ने कहा, कि दोनों साथ रह सकते हैं, हम बजाय हिन्दूराज बनाने के अपना सेक्युलर राज बनाएंगे। इसमें जवाहरलाल नेहरू का जबरदस्त योगदान है, गांधीजी का योगदान है। जब संविधान बना तो उसके बाद जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में 300 सभाएं की। सन 1952 में पहला चुनाव हुआ और 52 के चुनाव में इस बात का फैसला होना था कि यह धर्मनिरपेक्ष संविधान लागू होगा कि नहीं। नेहरू अपनी सभाओं में सवाल पूछते थे-‘हिंदुस्तान आजाद हो गया है हिंदुस्तान का चेहरा कैसा होना चाहिए, हिंदुस्तान को हिंदू राज बनना चाहिए या हिंदुस्तान को एक सेकुलर डेमोक्रेसी होनी चाहिए। हमारे बगल में इस्लामी राष्ट्र बन गया है क्या हम भी एक हिंदू राज बन जायँ?’ उसके बाद इस सवाल का जवाब देते थे कि क्यों हमारे लिए एक सेकुलर डेमोक्रेसी बनना अच्छा है। हम कैसे आगे बढ़ेंगे, कैसे मजबूत होंगे, कैसे हम एक रहेंगे। लगभग हर जगह डेढ़ घंटा बोलते थे, उनकी सभाओं में ढाई से तीन लाख लोग आते थे, एक भाषा में बोलते थे उड़ीसा में,मद्रास में,असम में भी इसी भाषा में बोलें। वह हिंदुस्तानी में बोलते और बड़ी आसान भाषा में सबको समझाते थे। उस समय लगभग 12% साक्षरता की दर थी, लुटे पिटे सिक्खों और हिंदुओं के जत्थे चले आ रहे थे, हिन्दुत्व की तीन पार्टियां (हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद, भारतीय जनसंघ जो आज की भाजपा है) जिनका मात्र एक एजेंडा था कि भारत को हिन्दू राज बनाना है, उस समय जवाहरलाल नेहरू ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि जब 1952 में चुनाव हुआ तो हिंदुत्व की तीनों पार्टियों को मिलाकर 10 सीटें मिली, कांग्रेस को लगभग 400 सीटें मिली और दूसरे नंबर पर सीपीआई थी। कांग्रेस और सीपीआई को प्रचंड बहुमत मिला और हिंदुत्व हवा में उड़ गई। इस तरह भारत एक सेकुलर समाज बना और यह छोटी मोटी चीज नहीं थी बहुत बड़ी चीज थी। तो यह जो मुसलमान रुक गए इसलिए नहीं रुक गए कि इस धरती से प्यार करते थे, वो इसलिए रुके क्योंकि यहाँ की लीडरशिप उनको प्रोटेक्ट करने का वादा करती थी। महात्मा गांधी ने तो अपना अनशन तब तोड़ा जब हिंदू सिख लीडर्स ने उनके सामने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसमें यह कहा कि ‘मुसलमानों की जो जायदादें छीनी गई है, मकान दुकान छीने गए हैं, वह सब वापस किए जाएंगे और उनकी मस्जिदे भी वापस की जाएंगी जिन पर हिंदुओं सिखों ने कब्जा कर लिया था।‘ गांधीजी की तो हत्या कर दी गयी पर जवाहरलाल नेहरू ने एक धर्मनिरपेक्ष भारत बनाया,17 सालके उनके नेतृत्व में अच्छी संस्थाएं बनी । न्यायपालिका बनी, यूजीसी बना, लिबरल यूनिवर्सिटी बनी, साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, साइंटिफिक लैब्स बने। एक जबर्दस्त शुरुआत हुई। लेकिन पुलिस, न्यायपालिका, पत्रकारिता पूरी तरीके से धर्मनिरपेक्षता के अभ्यस्त नहीं थे इन्हें लंबे अभ्यास की जरूरत थी। दुर्भाग्य से 80के दशक के पूर्वार्ध में राम जन्मभूमि का आंदोलन हो गया। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी में कुछ डेविएशन थे लेकिन उसके बाद भी संस्थाएं मजबूत ही हुई थी, उन्होंने कमिटेड ब्यूरोक्रेसी कमिटेड ज्यूडिशरी के नारे वारे दिए लेकिन वह सब चले नहीं और काफी हद तक वो संस्थाएं बची रहीं। कुछ संस्थाओं के बल पर हमारी डेमोक्रेसी बची हुई है। देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बचाए रखने के लिए कोशिश करनी चाहिए कि संस्थाएं नष्ट ना हो और यह लोकतंत्र बचा रहे।

वंदिता मिश्रा: किताब में लिखा है कि प्रभात कौशिक जो कि आरएसएस का कार्यकर्ता था, उसकी मौत पर फौज के वरिष्ठ अधिकारी शवगृह पहुंचे थे। क्या ये लोग अन्य दंगा पीड़ितों के अंतिम संस्कार पर भी पहुंचे थे या ये लोग शक्ति प्रदर्शन के लिए गए थे, क्योंकि बाद में इन लोगो ने मना कर दिया था और कौशिक की हत्या के बाद ही हाशिमपुरा को अंजाम दिया गया था।

विभूति एन.राय: देखिये, उनको जाना तो नहीं चाहिए था क्योंकि एक चार्ज माहौल था उस वक़्त। उसका पोस्टमार्टम होना चाहिए था हत्या का मामला था फ़ौजियों ने पोस्टमार्टम नहीं होने दिया। फौजी गए और जबरदस्ती डेड बॉडी को उठा ले गए। फ़ौजियों से उम्मीद की जाती है कि वो कानून का पालन करें, कानून के रखवाले की तरह काम करें। ज्यादा हथियार है और शक्ति है तो कानून तोड़ देंगे क्या। अपने अधिकारी के परिवार में उसके भाई की मौत हो जाती है तो सॉलिडेरिटी के नाते जाना चाहिए और यह कोई गलत चीज नहीं है।

वंदिता मिश्रा: द्वितीय प्रशासनिक सुधार की पाँचवीं रिपोर्ट, प्रकाश सिंह की अनुशंसाएँ, और सुप्रीम कोर्ट के तमाम जजमेंट जो पुलिस सुधार की वकालत करते हैं, के पूरा होने के बाद भी क्या हाशिमपुरा जैसी घटनाएँ रोकी जा सकेंगी? क्योंकि सुधार तो पुलिस के लिए हैं जब कि ये अपराध तो सरकार के संगठित अपराध हैं।

विभूति एन.राय: काफी हद तक रोका जा सकता है अगर सचमुच का पुलिस रिफॉर्म हो गया तो। ब्यूरोक्रेसी में एक शब्द बार-बार इस्तेमाल होता है मॉडर्नाइजेशन ऑफ पुलिस या पुलिस रिफॉर्म, रिफॉर्म का मतलब यह नहीं होता कि पुलिस को बहुत ज्यादा आधुनिक हथियार दे दिये जाएँ, ज्यादा तेज रफ्तार वाली गाड़ियां दे दी जाएँ। पुलिस का वायरलेस सिस्टम इंप्रूव कर दिया जाए, ज्यादा मकान बना दिया जाए; प्रोफेशनल बनाने के लिए ये सभी चीजें जरूरी है पर पुलिस का मन तो बदलिए। 1860 वाला जो दशक है जिसमें आईपीसी है, एविडेंस एक्ट है, सीआरपीसी है, पुलिस एक्ट है, 1860 से 1872 तक जब तक सीआरपीसी आई तब तक कानून बने और इन्हीं के आधार पर हमने पुलिस सिस्टम डिवेलप किया। यह जो मॉडर्न इन्स्टीट्यूशन के नाम पर पुलिस आई ये अंग्रेजों ने बनाई। अंग्रेजों ने लगभग 60 मुल्कों में पुलिस बनाया। हर मुल्क की पुलिस अलग चरित्र की बनाई। खुद उनके यहाँ लंदन पुलिस के कांस्टेबल को बॉबी कहते हैं। वह जनता का इतना मित्र है अगर बच्चा स्कूल जा रहा है उसकी साइकिल पंचर हो जाए तो बॉबी उसकी साइकिल ठीक कराता है बच्चा स्कूल चला जाता है वापस आकर मरम्मत की गयी साइकिल को बॉबी से ले लेता है। हमारे यहां पुलिस ऐसी है कि लोग उसका नाम लेकर बच्चों को डराते हैं, सो जाओ नहीं तो पुलिस आ जाएगी। भारत की पुलिस 1857 से लेकर 1947 तक 90 साल उस हुकूमत की रीढ़ की हड्डी बनी रही और अपने ही लोगों पर लाठियां चलाती थी, अंग्रेज तो 10 %से ज्यादा रहे नहीं और उसके बावजूद वो शासन करते रहे। जब देश आजाद हुआ तो पुलिस के मूल चरित्र को देश के अनुकूल बनाना चाहिए था ना? वो अंग्रेजों के समय की ही पुलिस बनी हुयी है, जनता की दुश्मन है, कानून और कायदे को ठेंगे पर रखती है। उनके लिए संविधान किसी कागज के टुकड़े से ज्यादा महत्व नहीं रखता। मुख्यमंत्री को वह दरोगा पसंद है जो विरोधियों की टांग तोड़ दे, जो उसके समर्थकों के खिलाफ़ मुकदमा ना कायम करें। जब मैं एसपी था तो उस समय बूथ लुटेरे होते थे। पुलिस का काम ये होता था कि विरोधियों को बूथ लूटने मत दो और समर्थक बूथ लूटने जाएं तो उनका कोई प्रतिरोध ना कर पाए। पुलिस के दुरुपयोग की जड़ें अंदर तक गहरी हो गयी हैं। अब आप सोचिए स्टैन स्वामी 84 साल का बुजुर्ग कस्टडी में मर गया, 84 साल के आदमी को जमानत न मिले इसके लिए एनआईए ने पूरी ताकत लगा दी? एनआईए को खुद हाथ जोड़कर कह देना चाहिए था जितना हमको पूछना था पूछ लिया, अब इन्हे ज़मानत पर छोड़ दिया जाय। पुलिस के चरित्र को समझने के लिए ये एक बढ़िया उदाहरण है। प्रकाश सिंह के लिए सुधार का क्या मतलब है सुधार का मतलब है कि डीजी पुलिस का अपोइंटमेंट 2 साल के लिए होना चाहिए दरोगा का 4 साल के लिए होना चाहिए, टेन्योर की सेक्योरिटी मिलने से सुधार नहीं हो जाएगा तब होगा जब आपका बुनियादी चरित्र बदलेगा, शुरू से बताया जाएगा कि आप जनता के सेवक हैं, जनता के मित्र हैं, आपके परफारमेंस को जाँचने का तरीका यह नहीं होगा कि फर्जी मुठभेड में कितनों को मार रहे हो और कितनों के हाथ पैर तोड़ रहे हो। ये होगा कि इलाके की जनता कितना आपको मित्र मानती है और आप में विश्वास रखती हैं। दुर्भाग्य से जब हम पुलिस के रिफॉर्म की बात करते हैं तो जो सबसे बुनियादी चीज है वह हम भूल जाते हैं वह हमारी प्राथमिकता में नहीं होता। कोई महिला है उसको जरूरत पड़े तो पुलिस के पास जाए, बच्चों को डराने के लिए पुलिस का नाम ना लिया जाए, बल्कि इसलिए लिया जाए कि सड़क पर उसे जरूरत पड़े, कोई भी संकट आता है किसी भी तरह की मदद की जरूरत है तो अगल-बगल पुलिसवाला तलाशे। दुर्भाग्य से जो हमारे प्रभु वर्ग है जो हमारे शासक वर्ग हैं उनका चरित्र और गोरे शासकों के चरित्र में बहुत फर्क आया नहीं है।

वंदिता मिश्रा: आपको नहीं लगता कि हाशिमपुरा की घटना को भले ही पुलिस ने अंजाम दिया हो लेकिन घटना के बाद का अंतहीन दर्द वास्तव में मीडिया की ही देन था? जोकि अफ़वाहों को वैधता प्रदान कर रहा था। अफ़वाहें तो राष्ट्रों को विभाजित कर देती हैं, नकारात्मक रूप से नैरटिव बदल देती हैं।

विभूति एन.राय: मेरा मानना है कि भारतीय राज्य के सारे स्टेकहोल्डर हाशिमपुरा में असफल हो गए, उनमें एक मीडिया भी था। मैंने किताब में विस्तार से इसका जिक्र भी किया है कि कैसे इस खबर को दबाने की कोशिश की गई। मेरे जैसे मध्यवर्ग के आदमी की नौकरी चली जाती तो मेरे पास जिंदा रहने के लिए कुछ नहीं होता, लिखकर तो मैं हिंदी में 2-4हजार मुश्किल से महीने में कमा पाता। फिर भी मैंने सोचा कि यदि मीडिया के माध्यम से इस खबर को बाहर नहीं किया तो इतनी बड़ी घटना दबा दी जाएगी। नवभारत टाइम्स में प्लांट करने की कोशिश की पर वहाँ नहीं हुआ, चौथी दुनिया जैसे छोटे साप्ताहिक में छपा तो उसके बाद मेरी जरूरत खत्म हो गई फिर उसके बाद इंटरनेशनल मीडिया,टेलीग्राफ,एशियन एज जैसे बड़े अख़बार ने उसे उठा लिया, फिर जाहिर सी बात है दिल्ली में बैठे बड़े अँग्रेजी के अख़बारों के लिए डूब मरने की बात थी। मैंने किताब लिखने के दौरान मई 1987 के 1महीने के मेरठ के दो राष्ट्रीय अखबारों का अध्ययन किया, पढ़ने के बाद मैं दंग रह गया। इस घटना को ना सिर्फ झुठलाने की, बल्कि गलत मोड़ देने की कोशिश भी की गयी। मित्रों के माध्यम से उर्दू के अखबारों का भी अध्ययन किया क्योंकि उर्दू तो आती नहीं थी, मैंने देखा कि वहाँ पर भी उसी तरह की पत्रकारिता हुई थी उनके यहां भी बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया था,एक ही घटना जिसे आप अमर उजाला और जागरण में पढ़ें और उसी घटना को उर्दू के किसी अखबार में पढ़ें तो आपको यकीन ही नही होगा कि यह एक ही घटना की रिपोर्टिंग है। मतलब पत्रकारिता का बहुत खराब चेहरा वहां दिखाई दिया, जनसत्ता में तो यह खबर छपी कि ‘ठीकरा आखिर पीएसी के ही सर पर फूटता है’। मैंने अपने कमिटमेंट की वजह से ये सब किया था और बाद में वीर बहादुर सिंह को पता चल गया तो वह नाराज रहे, डेढ़ 2 महीने के लिए मुझे वहां से हटा दिया, कहीं पोस्टिंग भी नहीं मिली। वो अब ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में रोने का कोई मतलब नहीं है।

वंदिता मिश्रा: अफवाहें कहाँ से पैदा होती हैं? साथ ही क्या अब भारत में निर्णय लेने की प्रक्रिया का आधार अफवाहों को माना जाएगा?

विभूति एन.राय: अफवाहें हमारी प्रेज्यूडिस से पैदा होती हैं। मैं जब गाजियाबाद में एसपी था तो यह अफवाह थी कि शास्त्री नगर में हिंदू औरतों के स्तन काट दिए गए, जबकि वहां ऐसी कोई घटना नहीं हुई एक भी घटना नहीं हुई। वहाँ पर उर्दू के एक शायर थे, बशीर बद्र। मेरे एक परिचित बशीर बद्र के मित्र थे, उन्होने कहा कि ‘बशीर बद्र को निकालना है उनका घर जला दिया गया है’। फिर हमने बशीर बद्र को वहाँ से उठा लिया। इसी तरह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अफवाह फैली कि सिक्खों ने मिठाई बांटी, उस वक़्त मैं सुल्तानपुर में था, मैंने एक विधायक के भाई को पकड़ लिया मैंने उससे पूछा कि तुमको किसने बताया ,तो उसने कहा साहब फलाना कह रहा था, हम लोगों ने फलाने को कोतवाली में बुला लिया, उसने कहा कि नहीं साहब ढेमाके ने कहा, तो इस प्रकार से लाइन से हम लोगों ने 5-7 लोगों को पकड़ा और पूछताछ की, फिर विधायक जी से कहा कि जिस बात का कोई स्रोत नहीं उस बात पर आपने विश्वास करके क्रेडिबिलिटी प्रदान कर दी कि सिक्खों ने मिठाई बांटी, सोच विचार के ही बोलना चाहिए ना। जब माहौल खराब हो तो और भी सोच समझकर बोलना चाहिए।

वंदिता मिश्रा: बातचीत के लिए बहुत धन्यवाद।

विभूति एन राय: धन्यवाद।