दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापनरत अनामिका जी को उनके काव्य संग्रह “टोकरी में दिगंत” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। ‘खुरदरी हथेलियाँ’, ‘गलत पते की चिट्ठी’ जैसे कविता संग्रहों के अलावा ‘लालटेन बाजार’ और ‘दस द्वारे का पिंजरा’ जैसे उपन्यासों की लेखिका अनामिका जी ‘स्त्रीत्व के मानचित्र’ नामक आलोचनात्मक रचना के माध्यम से स्त्री विमर्श पर पैनी नारी दृष्टि डालकर उस खोल को भेदने की कोशिश करती हैं जो हजारों वर्ष पुराने ‘पुरुष स्टील’ से निर्मित है।
अनामिका जी से स्तंभकार एवं ब्यूरोचीफ, कर्मकसौटी लखनऊ, वंदिता मिश्रा के कार्यक्रम ‘द गोल्डन आवर’ में चर्चा
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अनामिका जी कैसे दिगंत को टोकरी में रख पाती हैं,ये साक्षात्कार इसी को जानने की एक कोशिश है।
वन्दिता मिश्रा: आपकी पहली कविता कौन सी थी और आपने कब सोचा कि आपको कविता लिखनी है?
अनामिका जी: मेरी पहली कविता माँ कहती है, एक छोटा सा बिम्ब था, 1971 का समय था बांग्लादेश का युद्ध हुआ था और उस समय बिजली बहुत जाती थी, जब पूरे मोहल्ले में अंधेरा हो जाता था तो पूरा मोहल्ला ही संयुक्त परिवार की तरह होते थे, पिताजी (पद्मश्री डॉ श्यामनंदन किशोर )बहुत सहनशील थे, पूरे मोहल्ले के बच्चे उनके पास आते थे, फिर हम अंताक्षरी खेलते थे। उस समय मैं ‘ध’ से फंस गई। ‘ध’ से कुछ आया ही नहीं? पहले लकड़ी के और कोयले के चूल्हे हुआ करते थे जो आँगन में लगे होते थे, आपने तो ये चूल्हा देखा भी नहीं होगा, उस समय गैस नहीं आई थी। मोहल्ले मे एक कूबड़ी माई रहती थी, और सामने से धुआँ भी उठ रहा था तो मैंने कहा कि “धुआँ उठा ऐसा, जैसे कूबड़ी माई” (ठहाका लगाते हुए मैं और अनामिका जी) सब लोग भी ऐसे ही हँसे, फिर उसके बाद मुझे हंसाने में आनंद आने लगा, बचपन में मैं जोकर थी मुझे हंसाने मे खुशी मिलती थी आज भी मेरी बात पर कोई हँसे तो ख़ुशी होती है। एक लिखा था ‘जाड़े के दिन जैसे आपस की बात हो अधूरी’ ये जाड़े के समय में जब हम सभी आँगन में मूंगफली खाते थे, मेरे आँगन से धूप बहुत जल्दी चली जाती थी, तो ये लिख दिया। ये बिल्कुल समीकरण जैसे होते थे, मुझे लिखने में आनंद आने लगा था,ऐसे बहुत कुछ लिखा।(हँसते हुए)
वन्दिता मिश्रा: आपकी एक कविता है, ‘स्त्रियाँ’ जिसकी कुछ पंक्तियाँ है “देखो तो ऐसे,जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है,बहुत दूर कोई जलती हुई आग।
सुनो हमें अनहद की तरह और समझो जैसे समझी जाती है,नई नई सीखी हुई भाषा”। इस कविता में आपका गुस्सा भी दिखाई देता है। आप किसको संबोधित कर रही हैं? किसे संदेश देना चाहती हैं?
अनामिका जी: देखिए न! हम सब की सब स्त्रियाँ जो थोड़ा सा भी शिक्षित हो गई हैं उनमें एक आदर्शवाद है। आदर्शवाद इसलिए बचा है कि हमें बच्चे पालने होते हैं, जो स्त्रियाँ शादी नहीं भी करती हैं उनकी आँखों मे ममता होती है, बुआ,चाची,मामी के रूप में एक ही बच्चे पर इतनों की ममता होती है, एक आँचल में तो कोई बच्चा नहीं पलता, मैं जैविक मातृत्व की बात नहीं कर रही हूँ, मैं दृष्टि के मातृत्व की बात कर रही हूँ, प्रेम बांटना, प्रेम पाना ये स्त्रियों को नैसर्गिक रूप से आता है। हम लोगों ने पढ़ा, माँ-बाप ने हमें पढ़ा दिया, पढ़ने से तो दृष्टि खुलती है, और खुली भी, खुलती गई, हमारी उदारता भी और बढ़ी परंतु हम पढ़ी लिखी महिलाओं को उनके साथी पुरुषों से उसी उदारता का व्यवहार नहीं मिल पाया। ये पुरुष उसी तरीके से अपनी साथी स्त्रियों को कुर्सी टेबल समझते रहे। जो संवेदनशील पुरुष थे उनको भी लगता था कि ये तो गुड़िया है हमारी, इसको कहाँ दिमाग़ है, ये तो देवी-वुमन है, इस बात को ऐसे समझिए कि, आप जिस कुर्सी पर बैठी हैं उसे रोज साफ करती हैं उसपर बैठती हैं,कभी धम्म से बैठ जाती हैं, ऐसे में अचानक आपकी कुर्सी बोले कि भई ज़रा धीरे से बैठो; ऐसे धम्म से मत बैठो तो आप चौंक जाएंगी न? तो इतने दिनों तक हम स्त्रियाँ फर्नीचर ही समझे गए, जो बहुत चमका के रखते थे अपनी कुर्सी टेबल को; उनको भी ये अभ्यास नहीं था कि स्त्रियों का भी कोई पक्ष होता है, वो तो एक गुड़ियाँ थी जिन्हें आज्ञाकारी होना था मृगनयनी होना था। मनुष्य नहीं सजावट का सामान समझा जाता था, अच्छे लोग भी यही समझते थे कि सजावट की चीज है परिवार आगे बढ़ाने का उपादान है, उसका भी कोई सपना है, उसे भी स्वतंत्र निर्णय का, शिक्षा का, नौकरी का, कंसल्ट किये जाने का उतना ही अधिकार है ये वो समझ ही नहीं पाते थे। हम मध्यवर्ग की लड़कियों और छोटे शहर की लड़कियों को सुरक्षित पाला जाता है दुनिया उतनी देखने नहीं दी जाती है तो हम लोग समझ नहीं पाए,पर जब बड़े शहरों मे आए तो आँखें खुल गईं। यहाँ मास्टर में आए थे पढ़ने और हॉस्टल के कमरों में बहुत सी स्त्रियों की कहानियाँ सुनने को मिलीं।
वन्दिता मिश्रा: किस प्रकार की कहानियाँ ?
अनामिका जी: इन कहानियों को सुन कर बड़ा झटका लगा,ऐसा लगा कि कोई भी किसी स्त्री के बौद्धिक स्तर को स्वीकार नहीं करना चाहता! कोई इस लायक नहीं समझता कि उसके बराबरी में कोई स्त्री बात भी करे, एक तरह से औरत का शरीर उसके गले में लटका एक ढोल हो जाता है, उसको ये महसूस कराया जाता है कि वो शरीर के सिवा कुछ है ही नहीं। तो ये विचित्र स्थिति हो जाती है, वो कुछ भी लिखती पढ़ती और मंच पर भाषण देती है तो लोग उसकी आवाज ही देखते हैं, उसके चलने का ढंग, उठने का ढंग, बोलने का ढंग, मतलब वो बात क्या कह रही है ये कोई नहीं सुनता। ये घुटन की अजीब स्थिति है। जो प्रेम नहीं करते, जो प्रेम के लायक नहीं, जो उद्धत है, जो काम क्रोध मोह से मताया हुआ पुरुष है, उसे हम क्या प्रेम करें? अब वो हमारे पीछे पड़ेगा, तो हमें कितनी घुटन होगी। बहुत हुआ तो हम उससे स्नेह का नाता रख सकते हैं, आदमीयत का नाता रख सकते हैं या बौद्धिक विमर्श का नाता रख सकते हैं। वो हमसे एक ही नाता रखना चाहता है, ये कितने घुटन की बात है ये तो हम सभी हर ऑफिस हर संस्थान में भोगते ही हैं। तो इसी सब बातों से मुझे महसूस हुआ कि आईना तो दिखाना ही चाहिए, यही सोचकर मैंने इन पंक्तियों को लिखा। ईसा मसीह ने कहा था ‘इन्हें माफ़ कर दो ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’ हम स्त्रियाँ तो आपको माफ भी करते हैं पर आपको जानना चाहिए कि आप क्या कर रहे हैं। आप प्यार के लायक ही नहीं रहेंगे तो हम प्यार करेंगे किसको? हम तो चाहते हैं कि हमें बराबरी का पुरुष मिले जिसे हम प्रेम कर सकें, लेकिन आप ऐसे होइएगा तो हम किस कलेजे से आपको प्रेम कर सकेंगे? हम कहाँ से एक सामरस्यपूर्ण व्यवस्था कायम कर सकेंगे।
वन्दिता मिश्रा: ईसा मसीह का नाम आते ही आपकी एक कविता मेरे जेहन में उठी और उससे संबंधित एक प्रासंगिक सवाल, कविता है कि ईसा मसीह औरत नहीं थे, वरना मासिक धर्म ग्यारह बरस की उमर से उनको ठिठकाये ही रखता, देवालय के बाहर, कविता तो और भी बहुत कुछ कहती है पर मेरा प्रश्न है कि स्त्रियों,लड़कियों को उनके मासिक धर्म के कारण मंदिर में प्रवेश से रोकना, उसपर राजनीति और धार्मिक संगठनों का इतना शोर-शराबा करना सभी महिलाओं का पूजा करने का अधिकार छीन लेना उनका अनादर नहीं लगता? आपका क्या सोचना है ?
अनामिका जी: गर्भ के अंदर से होने वाले आंतरिक स्राव के कारण महिला को अपवित्र समझना ये अनादर तो है ही, जिस गर्भ से आपका जन्म हुआ उसको आप कुछ दिनों के लिए अछूत बता देते हैं? इस गर्भ से आपका जन्म का रिश्ता है, पूरी कायनात इस कारण से चलने वाली है,पूरी धरती का चक्र रुक जाएगा यदि ये न हो तो, ये तो विचित्र स्थिति है ही। वंदिता यही रूढ़ियाँ तो हमें खत्म करनी हैं,परंपरा की हर बात त्याज्य नहीं होती परंतु जो त्याज्य है वो तो त्याज्य है ही, आप खुद वो काम कर रही हैं आपने मुझसे ये सवाल पूछा, फिर आप इसे लिखेंगी, क्यों लिखेंगी? इसलिए कि इन रूढ़ियों को लेकर लोगों में चेतना आए, ये हम चाहते हैं कि जो कष्ट हम स्त्रियों ने झेले आगे की जेनेरेशन न झेले, देखा जाए तो नए पुरुषों मे परिवर्तन हुआ है और आगे भी होगा यदि हम लगातार बोलते और लिखते रहें। पहला पौधा लगाने से कोई परिवर्तन नहीं होता पर हम लगातार लगाते चलें तो एक दिन शहर की जलवायु बदल जाती है। देखिए न, पहले तो बाल विवाह होते थे,उसके साथ सती प्रथा थी,पर्दा प्रथा थी,विधवा विवाह पर भी कितना बवाल होता था। स्त्रियों को संपत्ति का अधिकार नहीं था,अब कम से कम पेपर पर तो है पहले वो भी नहीं था। ये सब लिखने बोलने से ही फिजाँ बदली है ना। कितनी कहानियाँ हैं अगर आप देखें शिवरानी देवी (महिला कहानीकार; मुंशी प्रेमचंद की जीवन संगिनी,जिसके बारे में बोला गया कि उनकी कहानियाँ प्रेमचंद ने लिखीं), महादेवी वर्मा या उनसे भी पहले मल्लिका वगैरह के समय का लेखन देखिए, धीरे धीरे लिखते लिखते,ही फिजा बदली है,कुछ पुरुषों ने भी लिखा है, कुरीतियों से पार पाने की उम्मीद में हम किसानों की तरह पीठ झुकाकर बीज बो रहे हैं।
वन्दिता मिश्रा: आपने कहा कि पुरुषों ने भी लिखा है,मैंने देखा है कि पुरुष कवि की कविता और नारी कवि की कविता,में मुझे बहुत अंतर नज़र आता है,उनके सब्जेक्ट का भी और उनके लेखन शैली का भी,आपको कवि और कवयित्री के लेखन शैली में क्या फ़र्क दिखाई देता है?
अनामिका जी: एक तो हम लोगों की भाषा बहुत जनतान्त्रिक है, मैं आपसे जिस अनौपचारिक भाषा में बात कर रही हूँ, आप जिस भाषा में मुझसे खुल कर बात कर रही हैं ये भाषा पुरुषों को उपलब्ध नहीं है, क्योंकि वो लोग जो शासन प्रशासन में विश्वास रखते हैं, वे हमेशा एक पदानुक्रम कायम रखना चाहते हैं, उनकी अफ़सरी कहीं जाती ही नहीं है, उनकी मजिस्ट्रेसी कभी जाती ही नहीं है,वो कवि हृदय किसी से बात करना जानते ही नहीं है, तो इस तरह से उनकी भाषा में कभी वो अंतरंगता का प्रकाश नहीं आता। पहला अंतर तो भाषा का अंतर है, इसका एक कारण तो पालन पोषण का अंतर ही है, इस पर बहुत सारे शोध भी हुए हैं वंदिता,बहुत सारी मनोभाषिक प्रयोगशालाओं में शोध और अध्ययन हो रहा है और इस पर निष्कर्ष छोटे में ये है,कि जो हमारे भाषार्जन का समय होता है वही हमारी अस्मिता की पहचान का समय होता है, यह डेढ़ वर्ष से शुरू हो जाता है,और इसी वर्ष में हम भाषा के शब्द चुनने लगते हैं इसी बीच हम खुद को स्त्री या पुरुष के रूप में पहचानने भी लगते हैं, इसको ‘मिरर स्टेज’ कहते हैं, कुछ दिनों बाद पुरुष बच्चे को ये सिखाया जाने लगता है कि तुम अलग हो (माँ जो सबसे अच्छी सहेली है उससे अलग होना सिखाया जाने लगता है) माँ के आँचल में क्यों घुसे रहते हो, क्या हाँथ में चूड़ियाँ पहन रखी है, क्या लड़कियों की तरह रोते रहते हो. बेचारे लड़के का मन भी घुट जाता है वो सीख जाता है,कि ये भवनाएं अंदर रखनी हैं उसका एक्सप्रेशन नहीं करना है,नहीं तो कमजोर कहें जाएंगे। इस दबाव के कारण कभी कभी पुरुष नारियल की तरह हो जाते हैं, उनकी कोमल भावनाएं अंदर चली जाती हैं उनका पानी अंदर चला जाता है ऊपर से वो रूक्ष हो जाते हैं। कुछ तो वाय फैक्टर (Y-फैक्टर) के कारण रुक्षता होती है और कुछ ऐक्वायर्ड है उसे लगता है कि गुस्सा तो सार्वजनिक अभिव्यक्ति की चीज है पर प्रेम/स्नेह दिखाना सही नहीं है,वरना तुम शासन नहीं कर पाओगे। आपने देखा होगा बहनों के पतियों को या सुना होगा,उनके दोस्त/लड़के कहते हुए पाए जाते हैं कि कि ‘बिल्ली मार लेना’ (अर्थात डोमिनेट करना सीख जाना,मतलब पहले बात मत करना ) आपने हिन्दू विधियाँ देखी होंगी जब वरमाला पहनाई जाती हैं उसमें इस तरह के खेल खेले जाते हैं और ये सब पावर स्ट्रक्चर बनाने की जो कोशिश की जाती है इसी कारण से उनके एक्सप्रेशन, भाषा और सब्जेक्ट में अंतर हो जाता है।
वन्दिता मिश्रा: आपको नहीं लगता कि महिलाओं के शोषण का आधार उनके शरीर की बनावट और बुनावट ही है?
अनामिका जी: हमारे जो कुछ अनुभव हैं, खुद हमारे ही हैं, हमारी देह जो है, उसके साथ खुद हमारे दो तरह के रिश्ते हैं, आप सही कह रही हैं, जितने स्त्री संबंधी अपराध हैं उनकी आधारभूमि हम लोगों का शरीर ही है, चाहे वो भ्रूणहत्या हो, भावहीन संभोग हो(यदि बिना प्रेम कोई किसी से संबंध बनाता हो, बलात्कार नहीं करता तो कुछ भी ऐसा, जिसमें स्त्री की रुचि न हो)। देह जैसे बड़े अभाग के साथ बिना प्रेम के कोई मेस अप कर दे, तो मारपीट जैसी ही स्थिति हुई ना? बिना प्रेम बिना आदर के आपकी देह को कोई छुए तो ये डिप्रेशन की बात है, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी, बोर्डर पार बच्चों का निर्यात, मारपीट, गाली गलौच, डायन कहना ,दहेज दहन, पर्दा प्रथा, इन सबमें तो स्त्री देह ही शामिल है। तो हमारे दुखों और अपराधों की जड़ तो देह ही है,पुरुष हमारे मन, हमारे शरीर और हमारी भाषा को समझ नहीं पाते, पुरुषों को चाहिए पहले स्त्री को मानसिक छंद बनाए।
वन्दिता मिश्रा: साहित्य अकादमी (2021) से अलंकृत आपका काव्य संग्रह ‘टोकरी में दिगंत: थेरीगाथा 2014’ जिसके विषय में मैं आपसे नहीं पूछूँगी,क्योंकि उसे लोग पढ़ें तो ज्यादा बेहतर होगा,उसकी शुरुआत करते ही आपके मन में ये सवाल आया कि क्या महात्मा बुद्ध जैसा संबुद्ध व्यक्ति ये मानने को विवश थे कि “स्त्रियाँ नर्क का द्वार हैं”? महिलाओं को त्याग कर पुरुष खुद को तपस्वी क्यों कहता है? एक तरफ दुःख और शोषण, अपमान तो दूसरी तरफ हीरोइज़्म? ये कैसा कनेक्शन है?
अनामिका जी: बुद्ध ने यही कहा था, यही सवाल आम्रपाली और थेरियाँ कहने गईं थीं कि हमे भी सन्यास लेना है, हमें तो सबसे ज्यादा इसकी जरूरत है किसी भी वर्ग की स्त्री जहां भी जाती है उसे सिर्फ शरीर के रूप में अवमूलित करके देखा जाता है, स्त्री मे प्रज्ञात तत्व भी है मानस तत्व भी है, ये कोई समझने को तैयार नहीं है,पूर्वग्रह से समाज मुक्त हो और हम इस पूर्वग्रहों के बंधन से मुक्त हों, इसलिए हमें सन्यास लेना है, हमारे रहने से तो उग्र समाज मे शांति ही स्थापित होगी, स्त्री तो समग्रता में ही सबको पहचानती है और चाहती है कि उसे भी समग्रता में पहचाना जाए। जो हमारी आत्मा का तेज है उसपर किसी का ध्यान नहीं जाता तो हमें आप अपनी शरण में ले लें क्योंकि आप ही हैं जो हमें शरीर के रूप में अवमूलित करके नहीं देखते। बुद्ध ने शायद कहा कि मुझे तुम पर कोई शक नहीं है लेकिन जो पुरुष समुदाय है वो अभी बुद्धत्व को प्राप्त नहीं हुआ उसमें अभी भी काम क्रोध लोभ का अतिरेक है,पहले मैं वो शमित कर लूँगा फिर इस आश्रम में स्त्रियाँ सुरक्षित रह सकेंगी वरना इस आश्रम का जीवन भी बहुत क्षणिक होगा, मुझे पुरुष की वृत्तियों पर विश्वास नहीं है, तुम पर अविश्वास का सवाल ही नहीं है। इस काव्य संग्रह मे दो तरह के संवाद हैं एक तो छठवीं शताब्दी की स्त्रियों का संवाद है,जिसमें बुद्ध से उन्होंने आर्ग्यूमेंट किया है (कल्पना की है मैंने),और दूसरा एक थेरीगाथा पुरानी किताब है जिसमें थेरियों ने उद्गार व्यक्त कियें हैं बुद्ध से। आज की बात करें तो मैंने थेरियों के माध्यम से कहने की कोशिश की है, पहले तो ये स्त्रियाँ तन मन से सेवा करती थीं अब तन मन धन से घर बाहर दोनों काम करती हैं,इसी किस्म के प्रश्नों को उठाया गया है और बुद्ध से संवाद किया गया है। हमारी मुक्ति का जो मार्ग होगा वो तो जो होगा वो होगा,पर पुरुष के पूर्वग्रहों का क्या होगा, तो उनको लगता है कि संवाद ही माध्यम है। जनतंत्र मे तो संवाद ही माध्यम है, पुरुषों का मन ऐसा हो गया है जैसे हलवाई का चीकट कड़ाहा, इसको रगड़ रगड़ के साफ करना होगा, तुम भी यही कर रही हो मै भी यही कर रही हूँ, किताब में मताएं अपने बेटों से संवाद करती हैं कि तुमको ऐसा पुरुष नहीं बनना है जो यशोधरा को सोती हुई छोड़कर चला जाए; तुमको संवाद करने वाला पुरुष बनना है तुम्हें विनीत और धीर पुरुष बनना है। मैंने टाइम ट्रैवल किया है और देखा है कि बुद्ध इधर उधर टहल रहे हैं। सच कहूँ तो जब हम संबोधित करते हैं तो परपुरुष मे हम बुद्ध को ही खोजते हैं। हर स्त्री ने यह काम किया होगा तुमने भी और मैंने भी, हमने अनवरत किया है जब भी हमने समाज मे पुरुषों को असंगत व्यवहार करते देखा है, तो हमने अपने व्यक्तित्व की शालीनता और आचरण से उसको समझाने का काम किया होगा, पुराने जमाने में ममथ ने साहित्य को अन्तःसंबद्ध उपदेश कहा था, महिला जब कुछ समझाती है तो इसका असर पड़ता है क्योंकि वह बहुत आसानी से आपकी आत्मा को संबोधित करती है।
वन्दिता मिश्रा: तो क्या स्त्रियों के दायित्व बहुत बड़े हैं तो क्या स्त्रियों को इस बात की समझ नहीं कि उनके लालित्य और उनके समझाने की जरूरत पुरुषों की जरुरी जरूरत है और उन्हे ये काम अपने हाँथ मे ठीक से ले लेना चाहिए?
अनामिका जी: मैं सिर्फ समझाने के स्तर की बात नहीं कर रही हूँ, हम तो दुनिया मे जितनी भी फिल्में बनाते हैं मतलब स्त्रियाँ (अब तो हम सभी काम कर रहे हैं ना) हमें सीरियल बनाकर ,स्टीरियोटाइप (रूढ़ियां) को तोड़ना पड़ेगा ऐसी महिलाओं को पुरुषों से वादा लेना पड़ेगा की तुम मेरे साथ मिलकर ऐसा समाज बनाओगे जिसमें स्टीरियोटाइप टूट जाएं, पुरुषों में अब ये भावना जाग जानी चाहिए कि वो प्यार के काबिल नहीं रहे, बहुत सारी लड़कियां अब अकेली रह जाती हैं क्योंकि अपने बराबर का पुरुष नही मिलता, वो सोचती हैं कि क्या जरूरत है हमें ऐसे पुरुष की जो बात बात में ताव खाए।
वन्दिता मिश्रा: आजकल आर्थिक रूप से सशक्त स्त्रियाँ शादी करने के बाद दो दो टाइटल लगाती हैं, आपके नाम में तो कोई टाइटल नहीं है, तो ये डबल टाइटल वाली स्त्री अन्य स्त्रियों और अपने पुरुष को क्या संदेश देना चाहती है?
अनामिका जी: पता नहीं क्यों लगाती हैं? मुझे तो लगता है टाइटल ड्रॉप कर देना चाहिए पर देखा जाए तो वो असर्ट तो करती हैं कि पिता का जो भी मेरे साथ है उसके साथ हम तुम्हें स्वीकार कर रहे हैं, अपना पुराना हम ड्रॉप नहीं करेंगे; ये प्रतिकार है इन्क्लूजन है पर इसके दबाव मे पुरुष तो उनका टाइटल नहीं ले रहे ना, पतियों को तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
वन्दिता मिश्रा: अर्चना दीदी ने कहा कि उन्होंने आपकी कविता ‘बेजगह’ पढ़ी तो उन्हें रात भर नींद नहीं आई, उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं “राम पाठशाला जा! राधा खाना पका! राम आ बताशा खा!राधा झाड़ू लगा! भैया अब सोयेगा,जाकर बिस्तर बिछा! अहा, नया घर है ! राम, देख यह तेरा कमरा है! ‘और मेरा?’ ‘ओ पगली’ लड़कियां हवा,धूप,मिट्टी होती हैं उनका कोई घर नहीं होता…..”
अनामिका जी: बचपन में हमें जो पढ़ाया जाता है हम उसे स्टैंडर्ड मानने लगते हैं इसीलिए मैं कहती हूँ कि शिक्षा में परिवर्तन बहुत जरूरी है, एक क्रिएटिव राइटिंग की किताब बन रही थी उसमें हमने जितने पिक्चर बनाए थे उसमें स्टीरियोटाइप टूट रहा था, जैसे पिता रोटी बना रहा है और माँ बल्ब बदल रही है अब बच्चे के मन में जो प्रभाव पड़ेगा डिवीजन ऑफ लेबर(श्रम विभाजन) को लेकर ये उसी उम्र में बढ़ेगा, आजकल जब हम कोरोना के दौर में हैं तो कहा जा रहा है कि ‘दिस इज अ न्यू नॉर्मल’। अरे भई तो हमें और भी न्यू नॉर्मल बनाने हैं जिससे श्रम की गरिमा बनी रहे, हम धीरज, करुणा ,ममता और अहिंसा को बुरा नहीं मानते, कहा जाता है कि लज्जा स्त्रियों का गहना है, अरे भई कुछ गहने तुम भी पहन लो, हम ये नहीं चाहते की सारे सद्गुणों के कोश हमारे ही पास रहें और जितने अवसर और संसाधन हैं वो पुरुषों के पास रहें। ये कैसा बंटवारा है संसाधनों और अवसरों का? बंटवारा समान रूप से होना चाहिए। कुछ सद्गुणों का कोश बराबर मात्रा में पुरुषों में बांटना चाहिए और ये होगा तभी जब शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था सचेत होगी। हमारा मीडिया सचेत होगा,क्योंकि हम बिंबों में सोचते हैं। जो गाने लड़के सुनते हैं उसी गाने के माध्यम से वो प्रणय निवेदन भी करते हैं, जो भी फैलाया जाता है वो फैलता ही है, सिर्फ वायरस नहीं फैलता, इमेज भी फैलती है। चित्त का निर्माण कैसे होगा? वैज्ञानिक कहते हैं कि मन तो बिंबों से ही बनता है,और इसे हम अपने परिवेश से ग्रहण करते हैं। अगर किसी का मन बदलना है तो बिम्ब बदलने पड़ेंगे। नया मीडिया, नई शिक्षा और लगातार बातचीत से, आप लोगों की बड़ी भूमिका है, लिखने वालों की कम पर देखने वाले मीडिया की बड़ी भूमिका है क्योंकि उन्हें ज्यादा लोग देखते हैं। मै तो कहती हूँ कि साहित्य का मंचन होना चाहिए,सीरियल को थियेटर का रूप देकर, नुक्कड़ नाटक का रूप देकर साहित्य का मंचन करना चाहिए, अन्तःकारण का परिष्कार होता है इन सब चीजों से। “उसने कहा था” कहानी आपने पढ़ी होगी, यदि कोई प्रेम करने चले तो ये कहानी जरूर पढे। यदि हमें जेंडर फ़्रेंडली समाज चाहिए तो ये सब करना ही होगा।
वन्दिता मिश्रा: काश ये बातचीत का सिलसिला यूं ही चलता रहे पर समय हम पर पाबंदियाँ लगाता रहता है,अंत मे मैं आपसे ये जानना चाहती हूँ कि आपकी पसंदीदा फिल्मों मे वो कौन-कौन सी फिल्में हैं जिन्हे देखने की सलाह आप लड़के, लड़कियों और समाज को देना चाहेंगी?
अनामिका जी: अभी तो मुझे ‘मिर्च मसाला; याद आ रही है, ‘सत्यकाम’ है, जो चेतना का विस्तार करती है,चित्त का परिष्कार करती है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिसे सोचकर मैं आपको बता दूँगी, लेकिन ये बहुत ही जरूरी है की अच्छी फिल्मों की लिस्ट जारी की जाए। ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल है जिसका जवाब मैं देने मे और समय लूँगी, मै इस पर बहुत दिनों से विचार कर रही थी; अच्छा हुआ आपने ये सवाल पूछ लिया जैसे ‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’(फ्योडोर डोसतोविस्की), ‘मिडल मार्च’ ये फिल्में अंग्रेजी की हैं पर डब्ड है। जहां भी स्त्री के शुभागता वाला रूप हाइलाइट होता है और उसको सही पुरुष मिल जाता है तो दोनों कमाल का समाज बनाते हैं। अच्छा सिनेमा यह बताने में सक्षम है कि स्त्री चाहती क्या है उसकी सूक्ष्म इच्छाएं क्या हैं,जो कभी सुनी नहीं गईं। पर देखा जाता है की पढ़ी लिखी लड़की अकेली ही रह जाती है, उसको अपने टक्कर का पुरुष नहीं मिलता तो वो अकेले ही रहना पसंद करती है। वो जितना अकेले कर सकती है करती है। मै किशोरों और लड़कियों के लिए फिल्मों की अच्छी लिस्ट तैयार करूंगी और आपको अगले इंटरव्यू मे बताऊँगी।
वन्दिता मिश्रा: आपको महिलाओं की आवाज़ को कविता बद्ध करने के लिए धन्यवाद और साहित्य अकादमी के लिये बहुत शुभकामनाएं आप इसी तरह लिखती रहें और महिला समुदाय को रास्ता दिखाएं इसी के साथ आपका बहुत धन्यवाद।
अनामिका जी: आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद वंदिता।