“इतने सारे लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं कि यदि उनको आप सपोर्ट नहीं करेंगे तो सामाजिक विद्रोह हो जाएगा”- प्रो.अरुण कुमार

सरकार की नीतियां कोई प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न ही नहीं कर रही है। वह तो कॉम्पटीशन को खत्म कर रहे हैं; जो उनके फेवरेट बिजनेसमैन है उनको प्रमोट करने में लगे हैं।

प्रोफेसर अरुण कुमार के लिए वर्तमान GST कोई कर सुधार नहीं बल्कि असंगठित क्षेत्र को झुलसा देने वाला ‘ग्राउन्ड स्कोर्चिंग टैक्स’ है। ‘इंडियन इकोनॉमीज ग्रेटेस्ट क्राइसिस’, ‘डिमोनेटाइजेशन एण्ड द ब्लैक इकोनॉमी’ जैसी बेस्टसेलर किताबों के लेखक प्रो. कुमार के लिए अर्थशास्त्र का अध्ययन प्रकाशीय संस्कार है ताकि अर्थव्यवस्था के अंधेरे गड्ढों पर सही समय पर समुचित प्रकाश डाला जा सके।

उनकी प्रिन्सटन की फिज़िक्स ने सरकारों की नीतिगत भौतिकी को समझने में मदद की है। वर्षों तक जेएनयू में पढ़ा चुके प्रो. कुमार वर्तमान में इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस मैलकम आदेसेशियाह के चेयर प्रोफेसर हैं। प्रोफेसर अरुण कुमार जी से स्तंभकार एवं ब्यूरोचीफ, कर्म कसौटी लखनऊ, वंदिता मिश्रा के कार्यक्रम ‘द गोल्डन आवर’ में चर्चा।

 

 

पब्लिक सेक्टर और असंगठित क्षेत्र की दुर्दशा व राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन की अप्रयोज्यता पर प्रो.अरुण कुमार(भाग-2)

 

वंदिता मिश्रा: आपकी किताब ‘इंडियन इकोनॉमीज़ ग्रेटेस्ट क्राइसिस’ पढ़कर लगता है कि कोरोना से पहले ही अर्थव्यवस्था धराशाई होने की ओर थी, आप विमुद्रीकरण(2016),जीएसटी(2017),एनबीएफसी क्राइसिस(2018), के बाद असंगठित क्षेत्र को बिल्कुल उखड़ा हुआ पाते हैं।प्रश्न यह है कि चारों तरफ नीतियाँ, सूचकांक, अभियान,पैकेज, दावे, वादे सब हैं और कानून प्रकाश की गति से पारित हो रहे हैं, क्या आपको लगता है कि हम लोग पॉलिसी पैरालिसिस के नए युग की तरफ बढ़ रहे हैं?

प्रो.अरुण कुमार: नहीं, असल में हमने गलत नीतियां अपना ली हैं, हमने कॉपी कर लिया कि साउथ ईस्ट एशिया की तरह हम विकास कर लेंगे। भारत की जो स्थिति है वह बाकी देशों से बहुत भिन्न है; जो चीन कर सकता है (वहां डेमोक्रेसी नहीं है) हम नहीं कर सकते। जो दक्षिण एशिया के अन्य देश कर सकते हैं; हम नहीं कर सकते क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था उनसे बहुत अलग है।  हमें डेवलपमेंट, एजुकेशन, हेल्थ पर जो ध्यान देना चाहिए था वह हमने नहीं दिया। मलेशिया जीडीपी का 10% अपनी शिक्षा पर खर्च करता था, हम तो 4% पर भी नहीं रहे हैं; अभी भी हम 3:80% के आस-पास ही रहते हैं। पब्लिक एजुकेशन पर हमने ध्यान नहीं दिया,1947 में हमने माना कि जो आम व्यक्ति(इंडिविजुअल) की समस्या है, उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि वह अपने लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि नहीं उपलब्ध करा सकता है, गरीबी अपने आप नहीं खत्म हो सकती है, तो हमने राज्य को इन सब चीजों की रिस्पांसिबिलिटी दे दी।

लेकिन टॉप डाउन नीतियों के चलते हम कलेक्टिव तरीक़े से इन समस्याओं का हल नहीं कर पाए फिर भी काफी कुछ तो किया। पर 1991 में हमने इन नीतियों को 180 डिग्री पर टर्न कर दिया और कहा कि अगर आपके पास रोजगार नहीं है तो बाजार में जाओ, आपकी गलती है कि आपके पास रोजगार नहीं है इत्यादि; और बाजारीकरण कर दिया, परिणाम ये हुआ कि बाजारीकरण की नीतियों से असमानता और बढ़ गई है। इस बाज़ारीकरण से असंगठित क्षेत्र की समस्याएं बढ़ गई और जब यह सरकार आई तो इसने और ज्यादा गड़बड़ी फैला दी। इसने पॉलिसी इन्ड्यूस्ड क्राइसिस पैदा कर दिया, नोटबंदी करके, जीएसटी लागू करके उसने असंगठित क्षेत्र को ही सबसे ज्यादा धक्का पहुँचाया।

हालांकि असंगठित क्षेत्र को जीएसटी से बाहर रखा है, और उनकों जीएसटी नहीं चुकाना पड़ता पर यही उसके लिए समस्या बन गया। डिमांड असंगठित क्षेत्र से संगठित क्षेत्र की तरफ शिफ्ट कर गई, प्रेशर कुकर इंडस्ट्री के चेयरमैन श्री जगन्नाथन ने 2018 में कहा था, कि जीएसटी लागू होने के बाद जो पांच यूनिट संगठित क्षेत्र में हैं वे बहुत खुश है, इनकी डिमांड 24% बढ़ी है और अगले ही वाक्य में उन्होंने कहा कि जो 25 यूनिट असंगठित क्षेत्र में हैं वह संभल नहीं पा रहे हैं तो डिमांड हमारी तरफ आ रही है।

दूसरी तरफ आप देखिए ई-कॉमर्स बढ़ रहा है; ई-कॉमर्स तो संगठित क्षेत्र का है ई-कॉमर्स में पहले डिमांड मॉल्स की तरफ़ शिफ्ट हुई थी लेकिन तालाबंदी के समय डिमांड ई-कॉमर्स में शिफ्ट हो गई क्योंकि अब लोग घरों से कम निकलते हैं, इससे छोटे उद्योग छोटी दुकानें/धंधे हैं वह बंद होने लगे और वहां पर रोजगार कम हो गया। हमारी सरकार प्रो-कारपोरेट है। 2019 में कार्पोरेशन टैक्स काट दिया, लेकिन रोजगार पैदा नहीं हो रहा है और संगठित क्षेत्र तथा ई-कॉमर्स बहुत ऑटोमेटेड होता है वहां पर इतना असंगठित क्षेत्र से बहुत काम रोजगार इस्तेमाल होता है।

यूपी में 2015 में 260 प्यून की नौकरी निकली थी, उसमें करीब 23लाख लोगों ने आवेदन किया जिसमें 380 पीएचडी 2लाख बीटेक एमटेक थे, एमकॉम बीकॉम थे, मतलब जहां क्लास 5 की और साइकिल चलाने की योग्यता चाहिए थी वहाँ इतने डिग्री वाले नौकरी करने को तैयार थे, सरकार को ये इंटरव्यू कैंसिल करना पड़ा, इसी तरह 2017 में रेलवे की 90 हजार, निचली श्रेणी की नौकरियों के लिए 2.3करोड़ लोगों ने आवेदन किया। इसका मतलब हुआ कि नौकरियां उपलब्ध नहीं है, असमानता बढ़ रही है, एक तरफ करोड़पतियों की संख्या बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ गरीबी और बेरोजगारी की समस्या बढ़ रही है। वजह है डिमांड की कमी। जो असंगठित क्षेत्र है उसकी आमदनी कम है वह डिमांड ज्यादा नहीं कर सकता। जब डिमांड कम हो जाती है तो अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाती है।

नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र ज्यादा तेजी से गिर रहा है। असंगठित क्षेत्र के आंकड़े हम जीडीपी में लेते ही नहीं, यह मान लिया जाता है कि जिस रफ़्तार से संगठित क्षेत्र चल रहा है उसी तरीके से असंगठित क्षेत्र भी चल रहा होगा, जो कि नोटबंदी के पहले सही था पर नोटबंदी के बाद सही नहीं है।

नोटबंदी ने सबसे ज्यादा असर असंगठित क्षेत्र पर डाला और उसके 8 महीने बाद जीएसटी आ गया फिर उसने असर कर दिया फिर एनबीएफसी क्राइसिस आ गया उसने भी असंगठित क्षेत्र पर बुरा असर किया, जब पैनडेमिक(महामारी) आया तो असंगठित क्षेत्र और बर्बाद हो गया, एकदम धराशाई हो गया। असंगठित क्षेत्र में जो 94% लोग काम करते हैं उनकी आमदनी बहुत घट गई है इसलिए डिमांड बहुत कम हो गई। जब डिमांड कम हो जाती है, तो प्रोडक्शन कम हो जाता है, जब प्रोडक्शन कम होता है तो इन्वेस्टमेंट गिर जाता है – जो इन्वेस्टमेंट हमारा 2012-13 में साढ़े 36% के स्तर पर था गिर के 30% हो गया और महामारी में यह गिर कर 23% हो गया।

वंदिता मिश्रा: सर, क्या आप मानते हैं कि मनरेगा, रोजगार के लिए एक स्थाई कार्यक्रम है? या भारत के करोड़ों गरीबों को जिंदा रखने का साधन मात्र है। क्या मनरेगा श्रमिक के जीवन का स्तर; मनरेगा से ऊपर जा सकता है या वह अर्थव्यवस्था में डिमांड का कारक है या उसे सिर्फ व्यस्त रखा गया है?

प्रो.अरुण कुमार: देखिए, जैसा मैंने कहा कि 1991 के बाद जो नई आर्थिक नीतियां आईं वे असमानता बढ़ाती हैं। मतलब जो गरीब है उनको अपने हाल पर छोड़ दिया है। सरकार कहती रहती है कि गरीब लोग कम हो गए हैं पर मेरा मानना है कि हमारे देश में गरीब कम नहीं हुए हैं।

मैं आपको एक उदाहरण देता हूं; आप लद्दाख में रह रहे हैं तो आप एक जाड़ा भी नहीं काट सकते यदि आपके पास अच्छा कपड़ा और अच्छा घर, अच्छा खाने पीने का और अच्छी ऊर्जा का इंतेज़ाम न हो। मतलब जो वहाँ का गरीब होगा वो यहाँ का मिडिल क्लास होगा; तमिलनाडु में आप एक वेस्टी पहनकर, छप्पर के नीचे, केला खाकर, ज़िंदगी बसर कर सकते हैं। तो गरीबी की रेखा तमिलनाडु की और लद्दाख की एक नहीं हो सकती है न? गरीबी की रेखा, स्पेस और टाइम पर निर्भर करती है। मतलब किस जगह पर और किस समय पर आप उसे परख रहे हैं। अमेरिका की गरीबी रेखा भारत जैसी नहीं है। मेरा मानना कि हमारे देश में जो अतिगरीब हैं वो 22 करोड़ हैं और जो गरीब हैं वो 70%हैं। तो जो गरीब है समस्या उसी की सबसे ज्यादा है। वर्ल्ड बैंक ने कहा कि सेफ्टी नेट की जरूरत है, वर्ल्ड बैंक ने रिकॉग्नाइज किया कि 1991 से जिन नीतियों को उसने आगे बढ़ाया है उससे गरीबी बढ़ती है, ऐसे में सेफ़्टी नेट की जरूरत है। ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, राइट टू फूड(खाद्य सुरक्षा का अधिकार), सभी सेफ़्टी नेट हैं, जिससे सोशल रिवोल्ट(सामाजिक विद्रोह) ना हो जाए। वर्ल्ड बैंक कहता है कि आपको एक सपोर्ट देना पड़ेगा, जिससे आपके लोगों को कहीं रोजगार मिल जाए, खाने पीने का प्रबंध हो जाये।

यूपीए की सरकार को यह सेफ्टी नेट लगाना पड़ा; नहीं तो सोशल एक्सप्लोजन और ज्यादा हो जाता; मोदी सरकार आई तो पहले इसने MGNREGS प्रोग्राम के खिलाफ बात की लेकिन अब इसी नीति का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। अब तो इतने सारे लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं कि यदि उनको आप सपोर्ट नहीं करेंगे तो सामाजिक विद्रोह हो जाएगा और उसका असर राजनीति पर पड़ेगा। जब तक लोगों को प्रोडक्टिव काम नहीं देंगे, सम्मानजनक वेतन नहीं देंगे; समाज में सोशल इकनोमिक और पॉलिटिकल परेशानी बढ़ती चली जाएगी। अब तो हालात इतने खराब हैं, टेक्नोलॉजी ऐसी आ गई है कि रोजगार और भी  कम हो रहा है, पिछले 7 सालों से वर्ल्ड बैंक यूनिवर्सल बेसिक इनकम प्रपोज कर रहा है। 2015 के बाद से इंडिया के चीफ इकोनामिक एडवाइजर भी यूनिवर्सल बेसिक इनकम की बात कर रहे हैं। मेरा मानना है कि ये यूनिवर्सल बेसिक इनकम सही नीति नहीं है क्योंकि जो वर्क है वह ही डिग्निटी देता है, यदि आप घर पर बैठे-बैठे पैसे लेते रहेंगे तो आपकी अपनी डिग्निटी खत्म हो जाएगी। ‘Work should bring dignity to people and dignity to people means citizenship’ अगर आप डिग्निटी नहीं देंगे तो सिटीजनशिप ही खत्म कर रहे हैं।

ऐसी अर्थव्यवस्था चलाने की जरूरत ही क्या है; जहां पर आधे से ज्यादा लोगों को डिग्निटी ही ना हो। जरूरी नहीं कि हम वैश्वीकरण के चलते कहें कि दुनिया भर में जो हो रहा है वह हमारे यहां भी हो। हम अपने ढंग से अपनी अर्थव्यवस्था चला सकते हैं, यह कहा जाता है कि हम अलग-थलग पड़ जाएंगे, हम वर्मा(म्यांमार) या, नॉर्थ कोरिया की तरह हो जाएंगे। यह बात जरूर है कि श्रीलंका या त्रिनिदाद टोबैगो है वह अपनी पॉलिसी खुद अलग-थलग नहीं चला सकते क्योंकि वह बहुत छोटे देश हैं; भारत तो बहुत बड़ा है और ऐसी स्थिति में है कि अपनी अर्थव्यवस्था खुद अपने अलग तरीके से चला सकता है।

हमारे यहां रिसोर्सेज कम नहीं है। रिसोर्सेज की कमी अमीरों के लिए है, गरीब आदमी के बच्चे को स्कूल जाना है उसको पीने के लिए साफ पानी चाहिए, इत्यादि। इन सबके लिए कोई विदेशी टेक्नोलॉजी चाहिए क्या हमें? उसके घर को बनाने के लिए हमें कोई बाहरी तकनीक चाहिए क्या? वो तो जो लग्जरी में रहते हैं उनको इटैलियन मार्बल चाहिए, वो प्लंबिंग इंपोर्ट करेंगे जो भोग विलास है, महंगी कारें इम्पोर्ट केरेंगे, इत्यादि। इतनी कारों को चलाने के लिए हमें पेट्रोलियम इम्पोर्ट करना पड़ रहा है। असंगठित क्षेत्र वाले तो महंगी कारें खरीद ही नहीं सकते हैं।

वंदिता मिश्रा: हमारे यहां से फोर्ड मोटर्स को क्यों जाना पड़ा? क्या ऑटोमोबाइल सेक्टर में डिमांड कम हो गई है? फोर्ड के द्वारा अपना पूरा मैन्युफैक्चरिंग समेटने का क्या कारण हो सकता है जबकि भारत तो बहुत (ह्यूज)बड़ा मार्केट है?

प्रो.अरुण कुमार: देखिए, यहां पर तो बहुत ही स्पेशल कारण है! दुनिया में तकनीकों(ऑटोमोबाइल) के मामले में चाइना बहुत आगे निकल गया, जापान पहले से बहुत आगे था। फोर्ड वो कॉम्पटीशन इंडिया में नहीं कर पा रहा था जो उसको करना चाहिए था, पिछले 20 सालों में उसके 2 बिलियन डॉलर के लॉस हो गए थे। हमारे गरीब देश में बेसिक वस्तुओं की डिमांड ज्यादा है। यह गलतफ़हमी है कि हमारा मार्केट ह्यूज(बड़ा) है, हमारा मार्केट बहुत छोटा है; हालांकि हम लोग संख्या में बहुत ज्यादा हैं। बड़ा मार्केट का मतलब होता है पर्चेजिंग पावर(क्रय शक्ति)। आम जनता की खरीदने की क्षमता बहुत कम है, दिल्ली का सामाजिक आर्थिक सर्वे-2018 दिखाता है कि 98% दिल्ली के परिवार 50 हजार रुपये/माह से कम खर्च करते हैं और 90% परिवार 25हजार रुपये/माह से कम खर्च करते हैं, जबकि दिल्ली की प्रतिव्यक्ति आय, पूरे देश की प्रतिव्यक्ति आय से ढाई गुना ज्यादा है। हमारा कार मार्केट बस 3%-4% लोगों के बीच में है। लगभग सवा चार करोड़ लोग, मतलब एक यूरोपियन देश के बराबर की जनसंख्या जो हमारे देश में है उसी के पास इतनी क्रय शक्ति है कि वो एक कार का खर्च उठा सकता है।

वंदिता मिश्रा: 2014 में 142वीं रैंक से 2019 में 63 वीं रैंक तक ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की यात्रा के क्या कारण है? क्या सच में भारत में व्यापार करना 2014 की अपेक्षा 200% आसान हो गया है? क्या इस तथ्य को समर्थन देने  के लिए सरकार के पास कोई तर्क है? या कुछ ऑनलाइन कंपनियों के यूनिकॉर्न व डेकाकॉर्न बन जाने से यह रैंकिंग जस्टिफाइड है या यह एक मिथ है?

प्रो.अरुण कुमार: यह एक भ्रामक स्थिति है यह जो ईज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस है यह 2 मेट्रो सिटीज का है और वह भी ऑर्गेनाइज सेक्टर का है, हमने देखा कि सारी समस्या अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर की है, वो बिजनेस कर ही नहीं पा रहे हैं वो डूबते जा रहे हैं। वर्ल्ड बैंक ने पाया कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की जो मेथाडोलॉजी है वह गलत है, इसे बहुत मेनिपयुलेट किया जा रहा था इसलिए हाल ही में इसको बंद कर दिया गया है, अब तो यह एक प्रोपेगेंडा है उन लोगों के लिए जो यह कहते रहते हैं कि हमारे यहां इज ऑफ डूइंग बिजनेस में उन्नति हुई है। यह जरूर है कि कॉरपोरेट सेक्टर को बहुत सारी छूट मिल गई है, ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का मतलब तो यह होना चाहिए कि आपका जो असंगठित क्षेत्र है वह ठीक से चल रहा है। आप आंकड़े देखिए हमारे यहां स्टॉक मार्केट में 6 हजार कंपनियां रजिस्टर्ड है- इज ऑफ डूइंग बिजनेस उनके लिए हैं, उनके लिए टैक्स वगैरह कट हुआ। हमारे यहाँ 6 लाख स्मॉल और मीडियम यूनिट्स है; मतलब रजिस्टर्ड बड़े यूनिट्स से 100 गुना ज्यादा और उस से 100 गुना ज्यादा 6 करोड़ माइक्रो यूनिट्स है जिसे असंगठित क्षेत्र कहते हैं। तो ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इन 6 करोड़ यूनिट्स के लिए होना चाहिए पर इसी को हम खत्म करने में लगे हुए हैं। डिजिटाइजेशन, डिमॉनेटाइजेशन और जीएसटी इन सबसे यही तो खत्म हुआ तो फिर ईज ऑफ डूइंग बिजनेस कहाँ है? ये तो बिल्कुल भ्रामक है।

हमारे यहां तो इस समय क्रोनी कैपिटलिज़्म चल रहा है, इस समय तो इंफोसिस पर भी अटैक हो गया वह एंटी नेशनल हो गया है, टाटा पर अटैक हो गया है। कुछ बड़ी-बड़ी कंपनियां है, उन्हें ही प्रमोट किया जा रहा है एक बड़ा बिजनेस हाउस है जो इस सरकार का फेवरेट है उसको एक साथ इतने सारे एयरपोर्ट दे दिए गए, इतने सारे पोर्ट्स दे दिए गए। एक दूसरा विजनेस हाऊस है उसके लिए टेलीकॉम में मोनोपोली क्रिएट की जा रही है, उनको पेट्रो गुड सेक्टर में बढ़ावा दिया गया है। तो अभी जब क्रोनीकैपिटलिज्म चल रहा है तो ईज ऑफ डूइंग बिजनेस कहाँ से हो जाएगा? जो बिजनेस मैन है वो इतना घबराया हुआ है कि वह बोलता ही नहीं। यहां तक कि सीआईआई के पूर्व मुखिया श्री नौशाद फोर्ब्स कह रहे हैं कि गरीब के हाथ में पैसा दो, वो डिमांड नहीं करेंगे तो हम इन्वेस्ट कैसे बढ़ाएंगे।

वंदिता मिश्रा: सर, कॉम्पटीशन कमीशन ऑफ इंडिया (CCI)कहां है? मैंने पिछले 7 सालों से इस संस्था का नाम भी नहीं सुना?

प्रो.अरुण कुमार : कहीं नहीं है! सरकार की नीतियां कोई प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न ही नहीं कर रही है। वह तो कॉम्पटीशन को खत्म कर रहे हैं; जो उनके फेवरेट बिजनेसमैन है उनको प्रमोट करने में लगे हैं। यह तो एक खेल है, ईज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस में कुछ पैरामीटर्स देखे जाते हैं, उन पैरामीटर्स को आप बढ़ावा  दो और कह दो कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस है ,पर वह तो सब सैद्धांतिक तौर पर ही है ना; आम बिजनेसमैन तो घबराया हुआ है और परेशान है।

वंदिता मिश्रा: सरकार ने कहा कि वह ‘असेट मोनेटाइजेशन’ के माध्यम से 6लाख करोड़  रुपए कमाएगी। इस बात पर लगभग सभी अर्थशास्त्री सहमत नजर आ रहे हैं ऐसा क्यों है?

प्रो.अरुण कुमार: नहीं, ऐसा नहीं है कि सभी! पता नहीं आपने किस अर्थशास्त्री को पढ़ा है पर देखिए पहली बात तो सरकार 110 लाख करोड़ रुपए इन्वेस्ट करना चाह रही है, तो 6 लाख करोड़ तो ऊंट के मुँह में जीरे की तरह हुआ न? उस पर आप क्रोनी कैपिटलिज्म करेंगे और जो आपके फेवरेट बिजनेसमैन उनको सब औने-पौने दाम में दे देंगे। आज जब लोगों की आमदनी गिर गई है, आम बिजनेस की आमदनी गिर गई है और आप खुद कह रहे हैं कि यह ब्राउनफील्ड ऐसेट है और ढंग से चल नहीं रहा है तो समस्या का हल नहीं निकलेगा। अगर कुछ ढंग से नहीं चल रहा है तो इसका मतलब है कि उसकी आमदनी कम है तो आप उसको औने पौने दाम में दे देंगे? इससे सरकार को और पब्लिक को बहुत बड़ा लॉस हो जाएगा। जैसे- बालको(भारत अल्युमिनियम कंपनी) का उदाहरण है, पहले ये कंपनी बहुत ज्यादा प्रॉफिट कमाती थी फिर उसका प्रॉफिट धीरे-धीरे घटा कर 500 करोड़ रुपया कर दिया, फिर उसका निजीकरण कर दिया, और उसको किसी कंपनी को 5000 करोड़ रुपया में बेच दिया गया, मतलब 50000 करोड़ रुपये की संपत्ति आपने ने 5000 करोड़ रुपये में दे दी, उसी तरह एयर इंडिया है; पहले एयर इंडिया को फेल करा दो, उसका हर तरीके से मिस यूज़ करो, ढेर सारे एरोप्लेन ऑर्डर कर दिए जिसकी जरूरत नहीं थी, फिर उस पर बोझ बढ़ गया। विजय माल्या जैसे व्यक्ति जो एयरलाइन चला रहे थे और पार्लियामेंट्री कमेटी के चेयरमैन थे, उनके एयरलाइन की फ्लाइट एयर इंडिया की फ्लाइट से 10 मिनट पहले निकलती थी। इस तरह काफी ट्रैफिक उधर चला गया, यह मैनिपुलेट किया गया। जब एमटीएनएल को डुबाना था, क्योंकि प्राइवेट प्लेयर आ रहे थे; दिल्ली में 2007-08 में हर हफ्ते खबर आती थी कि 5000 लाइनें डेड हो गई है क्योंकि प्राइवेट वाले लाइन काट देते थे। फिर पता चलता कि किसी ने वायर चोरी कर लिया। ये सब चीजें तो जानबूझकर के पब्लिक सेक्टर को डुबाने के लिए हैं न, फिर कहा जाता है कि यह तो प्रॉफिटेबल नहीं है प्रॉफिट नहीं दे रही है, अब इसको प्राइवेट कर दो। ये पब्लिक का लॉस है। देखिए कोरोना जैसी महामारी ने यह एहसास करा दिया है कि इस देश को एक मजबूत पब्लिक सेक्टर की सख्त जरूरत है। कोरोना के दौरान जब प्राइवेट हॉस्पिटल सामने नहीं आए तो लोगों को पब्लिक हॉस्पिटल का सहारा लेना पड़ा, ट्रांसपोर्ट के लिए इंडियन रेलवे को इस्तेमाल करना पड़ा।  प्राइवेट ट्रांसपोर्ट वाले तो गरीब आदमी से खूब पैसे कमा रहे थे, एयर इंडिया की फ्लाइट बंदे भारत लेकर आई। एजुकेशन में बहुत सारे गरीब बच्चे हैं जो प्राइवेट स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूल में जा रहे हैं यह सब मैंने अपनी ‘इंडियन ईकानमी’ वाली किताब में डिस्कस किया है। अगर अगला क्राइसिस आता है तो उस क्राइसिस से निपटने में आपको मजबूत पब्लिक सेक्टर की जरूरत पड़ेगी। सरकार के संसाधन आप दे देंगे तो वह कल कम हो जाएंगे। जब पब्लिक सेक्टर को और स्ट्रांग करना चाहिए और भी ज्यादा रिसोर्सेज लगाने चाहिए तो आप उसे और कमजोर करते जा रहे हैं, इसलिए जो मोनेटाइजेशन ऑफ एसेट है यह ना तो लॉन्ग टर्म (दीर्घावधि)में सही है ना शार्टटर्म (लघुअवधि) में सही है। रेलवेज में इन्होंने प्राइवेट ट्रेन चलाई वह चली नहीं, क्योंकि भारत गरीब देश है उसी तरीके से हाईवेज है, पावर सेक्टर है, जहां पर बहुत एनपीए हो गए। हम गरीब देश में हाई कॉस्ट इंफ्रास्ट्रक्चर बनाएंगे तो कामयाब नहीं होगा। अमेरिका में हो सकता है कि आप एक यूनिट पावर इस्तेमाल करें, तो ₹30 दे दीजिए; हमारे यहां तो ₹30 में कोई बिजली कंज्यूम नहीं कर पाएगा। हमारे देश को क्या चाहिए आज उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है सिर्फ बिजनेस को क्या चाहिए इस पर ध्यान है।

वंदिता मिश्रा: देश के कुछ अर्थशास्त्रियों ने कहा था कि एफसीआई की मुंबई की 120 एकड़ की जमीन बेचकर के सरकारी कर्ज चुकाना चाहिए, यह तो एक ऐसे शराबी की आदत है जो अपने घर के गहने बेचकर के शराब का कर्ज चुकाता है; और दूसरी चीज है कि जो राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन में 30 साल के लिए जमीन की लीज है, उससे सरकारी संपत्ति की देखरेख और उसकी प्रतिष्ठा सब गिरेगी नहीं? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह जमींदारी प्रथा में जमींदार और रैयतवाड़ी प्रथा में ब्रिटिश से मिलता जुलता प्लान है और यह सरकारी संसाधन की दुर्गति करने के लिए है?

प्रो.अरुण कुमार: मुझे तो ऐसा लगता है कि यह भले कहें कि यह 25-30 साल के लिए देंगे, पर किसने देखा? फिर उस समय कहेंगे कि भाई ठीक है और आगे बढ़ा लो। मैं तो कहता हूँ कि यदि किसी सार्वजनिक कंपनी को हम नहीं चला पा रहे हैं, तो क्या प्राइवेट सेक्टर चला पाएगा? वो तो किराये की गाड़ी की तरह चलाएगा। रेलवे को जब सरकार नहीं चला पाएगी तो और कौन चला पाएगा; प्राइवेट सेक्टर वाले एक ट्रेन तो चला नहीं पा रहे हैं, उस पर भी कह रहे हैं कि हम 100 से अधिक ट्रेन दे देंगे। ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो पब्लिक सेक्टर में होना जरूरी है, और उसको पब्लिक सेक्टर के तौर पर ही चलाना जरूरी है, उसे प्राइवेट सेक्टर नहीं चला पाएगा। पहले वीएसएनल(विदेश संचार निगम लिमिटेड) सरकार के हाँथ में था, उन्होंने उसे टाटा के हाथ में दे दिया; टाटा ने उसे बंद करके जमीन से फायदा उठा लिया। वह दिल्ली-मुंबई की सैकड़ों करोड़ की जमीन थी। तो जो भी प्राइवेट सेक्टर आएगा उसके दिमाग में यह होगा ही कि अब ये हमारी चीज हो गई और अब हम इसे अपने ढंग से चलाएंगे। पब्लिक का ध्यान नहीं होगा, और उसमें फिर एकाधिकार वाली समस्या आएगी, और जब इन क्षेत्रों में एकाधिकार स्थापित होगा तो फिर वो दाम बढ़ाएंगे और जब दाम बढ़ाएंगे तो आम जनमानस का बहुत नुकसान होगा। इसलिए मेरा मानना है कि यह जो इतनी सारी संपत्तियों का मोनेटाइजेशन है वह सही नहीं है और समय भी सही नहीं है।

वंदिता मिश्रा: आपको नहीं लगता कि इनको सार्वजनिक संपत्तियों को बेचने का नशा हो गया है?

प्रो.अरुण कुमार: ये सरकार असल में महामारी का फायदा उठा रही है, देखिए इस समय विपक्ष काफी कमजोर है, वो पब्लिक को संगठित नहीं कर पा रहा है, ये लोग पब्लिक को संगठित होने देंगे नहीं, किसान संगठित हुए पर ये लोग उन किसानों की बात नहीं सुन रहे हैं, उनसे कोई बातचीत नहीं कर रहे हैं, इनका रुख किसानों के प्रति ऐसा है कि करते रहो जो करना है।

मेरा मानना है कि 2014 से ही इनका प्रो-बिजनेस एजेंडा है, उस समय ये इस नीति को कार्यान्वित नहीं कर पा रहे थे क्योंकि विपक्ष था। अब चूँकि विपक्ष धराशाई है इसलिए वो इसे बहुत तेजी से आगे बढ़ा रहे हैं। महामारी के दौरान इन्हें एक गोल्डन मौका मिल गया है तो ये इस समय का फायदा उठा रहे हैं, और भी ज्यादा प्रो-बिजनेस नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं; जो कि हमारे देश में दीर्घकाल के लिए बहुत नुकसानदायक है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, अगर मेरे घर में आग लगी है और कोई बाहर से आकर मुझे आश्वासन देता है कि मैं आपके घर पर एक दमकल खरीद कर रख दूंगा, आपके घर के पास एक दमकल घर बना दूंगा, तो उसको तो करते-करते कई साल लग जाएंगे; मेरा घर तो आज जल जाएगा? आज तो उस पर पानी फेंकने की जरूरत है, आज जो उन्हें डिमांड-साइड-पॉलिसी अपनानी चाहिए तो वो सप्लाई-साइड-पॉलिसी बना रहे हैं, जिससे बिजनेस को फायदा पहुंचाया जा सके, सप्लाई-साइड-पॉलिसीज के लिए तो डिमांड जरूरी है ना! बिजनेसमैन के पास डिमांड नहीं आएगी तो वो क्यों प्रोड्यूस करेगा? जब इन्होंने 2019 में कॉर्पोरेट टैक्स कट किया था तो सोचा था, कि इससे इन्वेस्टमेंट बढ़ेगा; पर कॉर्पोरेट ने इस पैसे से अपने पुराने ऋण को चुकता किया न कि इनवेस्टमेंट बढ़ाया। इस तरह आज जो भी नीतियाँ अपनाई जा रहीं हैं वो शॉर्ट टर्म और लॉंग टर्म दोनों में ही हमारे देश को बहुत नुकसान पहुंचाएंगी।

वंदिता मिश्रा: भारतीय अर्थव्यवस्था पर यह इंटरव्यू एक अभिलेख के रूप में काम करेगा। इतनी जटिल व्यवस्था को इतनी आसानी से समझाने के लिए आपका बहुत धन्यवाद!

प्रो.अरुण कुमार: थैंक यू वंदिता।