बैन! बैन! बैन!..आइडिया ऑफ़ इण्डिया?

रकार यह छोटी सी बात नहीं समझ पा रही है कि यह देश आज,कल या पिछले कल नहीं बना इसका निर्माण गीता लिखने और राम के पैदा होने से पहले ही हो चुका था

ये 2021 की फरवरी है और हम भारत के उस दौर में पहुँच चुके हैं जहां “भारत बंद” अब विपक्षी दलों का सत्ता पक्ष पर दबाव बनाने का टूल नहीं बल्कि सत्ता पक्ष का “आइडिया ऑफ इंडिया” बन चुका है। प्रतिदिन किसी न किसी बहाने विभिन्न लोकतान्त्रिक विचारों पर अंकुश लगाने की कोशिश हो रही है।

लोकतंत्र में “लोग” सरकार इसलिए बदलते हैं जिससे लोगों के जीवन स्तर में बढ़ोत्तरी,सुरक्षा और स्वतंत्रता आदि मुद्दों पर कुछ और सकारात्मक बदलाव को देखा और महसूस किया जा सके। हम एक पुरानी सरकार इसलिए नहीं बदलते कि नई सरकार आए और पहले से स्थापित बेहतर संस्थानों/प्रतिष्ठानों की नींव हिला कर उन्हे अपने “एजेंडे” के अनुरूप ढालने लगे। आज देश के विभिन्न स्तरों पर सरकारें नागरिक अधिकारों के संरक्षण में न सिर्फ नाकाम हैं बल्कि उन लोगों/विचारों/संगठनों को प्रश्रय दे रही हैं जिन्हे नागरिक अधिकार बेकार और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता “देशद्रोही” नजर आते हैं। ऐसी सोच मजाक का विषय नहीं है|

मुझे ये ख़तरे की घंटी जैसा महसूस होता है,आपको ये ख़तरे नहीं लगते तो इसका मतलब है कि आप सरकार और जनता के संबंधों को समझ नहीं पा रहे हैं.सरकारें कैसे नागरिक अधिकारों को खत्म कर रही हैं,इसके उदाहरण सामने हैं- पहला है “वेबिनार बंद”, हाल ही में केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा एक नोटिफिकेशन जारी किया गया है, जिसके अनुसार सरकार द्वारा वित्तपोषित शैक्षणिक संस्थान तथा विश्वविद्यालयों समेत सभी सरकारी संस्थानों को किसी भी “अनलाइन/वर्चुअल इंटरनेशनल कांफ्रेंस/सेमिनार/ट्रेनिंग आदि” को आयोजित करने से पहले “संबंधित प्रशासनिक सचिव” से अनुमति लेनी होगी। साथ ही इसके अनुसार मंत्रालय किसी ऐसे वेबिनार के आयोजन की अनुमति नहीं देगा जो “राष्ट्रीय सुरक्षा, सीमा सुरक्षा, उत्तर-पूर्वी राज्य, केंद्रशासित राज्य (जम्मू एवं कश्मीर,लद्दाख) तथा ऐसा कोई मुद्दा जो साफ साफ/पूरी तरह भारत के आंतरिक मामलों से संबंधित हो”। एक नोटिफिकेशन ने एक झटके में लोकतंत्र को जो डेन्ट दिया वो हजार विदेशी ताकतें भी नहीं दे सकीं। इस नोटिफिकेशन का साफ साफ मतलब ये है कि सरकार द्वारा वित्तपोषित शिक्षक, संस्थान व विश्वविद्यालय उन बातों पर चर्चा नहीं कर सकते यदि वो आंतरिक मामले से सम्बंधित हो, यदि चर्चा करनी है तो “अनुमति” लेनी पड़ेगी।

भारत के दो शीर्ष संस्थानों,अकादमी ऑफ़ साइंसेज और इंडियन नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज, ने नाराजगी जताते हुए सरकार से कहा है कि ऐसे नियम, वैज्ञानिक संवाद और बहस को समाप्त कर देंगे। सरकार को क्या लगता है कि भारत के विश्वविद्यालाओं और शिक्षकों द्वारा होने वाली चर्चाएं भारत विरोधी हो सकती हैं? या सरकार यह चाहती है की ऐसी कोई चर्चा ही न हो जिससे सरकार की कोई कमी जो राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषतया आंतरिक सुरक्षा से संबंधित हो, लोगों के सामने आ जाए? या साफ शब्दों में कहा जाए तो क्या सरकार डरी हुई है या डराने का अभियान चला रही है?

उदाहरण नंबर दो “सिनेमा बंद” का है- ओवर द टॉप(OTT) प्लेटफॉर्म्स को लेकर सरकार का रवैया है। मिंट में छपी एक खबर के अनुसार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सरकार पर दबाव डाल रहा है कि जितनी जल्दी हो सके इन प्लेटफॉर्म्स का विनियमन किया जाए। मुझे आजकल सर्वोच्च न्यायालय का रवैया भी समझ में नहीं आता, न्यायालय ने एक तरफ “तांडव” वेबसिरीज के कलाकारों की गिरफ़्तारी पर रोक लगाने से मना कर दिया था और एक अन्य मामले में “मिर्जापुर” वेबसिरीज के निर्माताओं को यह कहकर नोटिस भेज दिया गया कि इस कार्यक्रम के द्वारा मिर्जापुर की छवि को बिगाड़ा गया है, और वेबसिरीज में इस शहर को गुंडों के शहर के रूप में दर्शाया गया है। न्यायालय का पूरा सम्मान करते हुए मैं कहना चाहती हूँ कि मार्टिन स्कोर्सीज़ की फिल्म “गैंग्स ऑफ न्यूयॉर्क(2002)” से न न्यूयॉर्क गुंडों का शहर बना और न ही “अमेरिकन गैंगस्टर्स(2007)” से पूरा अमेरिका गैंगस्टर्स बन गया। 1972 में आयी फिल्म “द डेविल” ईसाई धर्म का बाल भी बांका नहीं कर सकी। ये बात सबको समझनी होगी कि फ़िल्में समाज के निर्माण में एक सहायक बल तो हो सकती है पर प्रमुख गाइडिंग फोर्स नहीं। हाँ यह बात अलग है कि कोई संगठन या दल “लैला” व “सेक्रेड गेम्स” से खुद को जोड़ कर विचलित हो जाए और बंधन/प्रतिबंधों” की मांग करने लगे। अब इतना तो सभी भारतीयों को मालूम होगा कि भारत एक गणराज्य है न कि किसी राजनैतिक/सांस्कृतिक संगठन के आनंद का केंद्र |

उदाहरण नंबर तीन “प्राइवेसी बंद” का है-यह बंद उत्तर प्रदेश सरकार का वो निर्देश है, जिसके तहत सरकार ने एक साइबर कंपनी को किराये पर लिया है ये साइबर कंपनी ये बताएगी कि कौन भारतीय है जो अपने मोबाईल पर पॉर्न देखता है। सरकार का मानना है कि ऐसे लोगों को ट्रैक करने से महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली यौन हिंसा और महिला उत्पीड़न शुरुआती स्तर पर ही रुक जाएगी। मै इस मानसिक मामले को बहुत नहीं समझ पा रही हूँ कि ये रुकेगी या नहीं इसका कोई प्रमाण मेरे पास उपलब्ध नहीं लेकिन “राज्य” की निगरानी में आम आदमी का मोबाईल फोन आ जाए यह उचित नहीं लगता। सरकार व प्रशासन अपनी कमियों को छिपाने के लिए आसान तरीके और स्केपगोट खोजने में लगी है। इस्साक असिमोव (अमेरिकन लेखक) “टेल ऑफ़ द ब्लैक विडोअर्स” में कहते हैं “सरकार अपने सीधे कंट्रोल के सिवाय सूचना के आदान प्रदान का ऐसा कोई सिस्टम नहीं चाहती जो सुरक्षित रहे”, मतलब साफ है सरकारों में सर्विलांस की प्रवृत्ति होती है इसके माध्यम से वो नागरिको को नियंत्रण में और दबाव में रखना जरूरी समझती है।

उदाहरण नंबर चार “बहस बंद” है- उत्तर प्रदेश सरकार ने आगामी विधान सभा सत्र में विपक्ष की ‘कृषि कानूनों पर बहस की मांग’ को खारिज कर दिया है। मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि ये कैसा सदन है और कैसा लोकतंत्र है जहां बहस की मांग को ही खारिज कर दिया जाए। मै मानती हूँ कि सरकार एक शक्तिशाली तंत्र है, ऐसे तंत्रों को “बहस” से डरना नहीं चाहिए,बल्कि खुलकर बहस को आमंत्रण देना चाहिए। एक बहस से सरकारें तो नहीं गिरा करतीं।
उदाहरण पांच “शादी बंद” पर है- लव जेहाद के कानून जिन्हे धर्म परिवर्तन से बचाव के कानूनों के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है। भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल समेत कई राज्यों में यह कानून बन चुका है और कई में बनने वाला है। इसमें भी वही “बंद” और “प्रतिबंध” का तड़का है। शादी से पहले अधिकारी से अनुमति? क्या सच में यह हमारा ही देश है?

उदाहरण नम्बर छ: “पत्रकारिता बंद” पर है- एक ट्वीट के आधार पर एक पत्रकार की नौकरी बंद, एक रिपोर्ट के आधार पर पत्रकार जेल में बंद, केरल का पत्रकार हाथरस रेपोर्टिंग मामले में जेल में बंद है, फतेहपुर में पीड़िता के पक्ष की रिपोर्टिंग पर मुकद्दमा और ऐसे तमाम मामले जिसमें स्वतंत्र पत्रकारिता को बंद किए जाने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा गलत नियत से कदम उठाए जा रहे हैं। न्यायालय की कुंडी शायद अंदर से बंद पड़ी है।
सातवाँ उदाहरण प्रतियोगी छात्रों का है “परीक्षा बंद” का- कोविड 19 के कारण 2020 की यूपीएससी की परीक्षा में न शामिल हो पाए विद्यार्थियों को सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक अतिरिक्त अटेम्प्ट का आश्वासन दिया गया था। अपने इस आश्वासन से केंद्र सरकार उसी सर्वोच्च न्यायालय में पहले मुकर गई फिर जब न्यायालय ने सख्ती की तो अटेम्प्ट दिया लेकिन उन्हे नहीं जिन्हे सबसे ज्यादा जरूरत थी। उन विद्यार्थियों को अटेम्प्ट देने से मना कर दिया जिनकी अर्हता उम्र(सामान्य के लिए 32 वर्ष) व अटेम्प्ट दोनों 2020 में खत्म होने वाले थे।

तो इस समय देश में “बंद” का माहौल है। प्रदर्शनकारी,पत्रकार,विद्यार्थी, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, सरकार को ऐसा कोई भी वर्ग पसंद नहीं है,जो उसके मन का न हो। पक्के से नहीं कहा जा सकता पर लगता तो यही है कि सरकार शायद भय में है और अपने इसी भय के कारण नागरिकों को भी भय में रखना चाहती है। परंतु सरकार यह छोटी सी बात नहीं समझ पा रही है कि यह देश आज,कल या पिछले कल नहीं बना इसका निर्माण गीता लिखने और राम के पैदा होने से पहले ही हो चुका था। यहाँ नागरिक कार्यकर्ताओं और आम जनमानस को डराया नहीं जा सकता। श्रीमद्भागवत गीता के 16 वें अध्याय में दैवीय गुण बताए गए हैं जिसमें “अभय” सबसे ऊपर है। यह भारत का गुण है भारत की आत्मा है। देश के नागरिक अधिकार कार्यकर्ता उस अलार्म के समान हैं जो देश की सरकारों को समाए रहते हुए देश की विभिन्न समस्याओं के प्रति लोकतान्त्रिक चेतवानी देते रहते हैं। अब लोगों ने तो दे दिया है, देखना यह है कि सरकार क्या लेना चाहती है।