प्रधानमन्त्री होने के ख़तरे ..

प्रधानमंत्री बनने के खतरों में सबसे बड़ा खतरा ये है कि आप जो कहते और करते हैं उसे पूरी दुनिया देखती है, रिकार्ड करती है और समय आने पर उसे बार बार चलाती है,आने वाली भारतीय पीढ़ियों को इससे लज्जित भी होना पड़ सकता है

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण (अनुच्छेद-87) पर धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रधानमन्त्री इतने उत्साहित दिखे तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, मैंने सोचा इस अभिभाषण पर वो इतने केन्द्रित क्यों हैं? यह अभिभाषण तो प्रधानमन्त्री कार्यालय द्वारा,मंत्रालयी सुझावों के आधार पर तैयार किया जाता है,जिसे राष्ट्रपति प्रत्येक नयी लोकसभा और नए साल में संसद को संबोधित करते हुए अपनी आवाज़ देते हैं. अभिभाषण की परंपरा दुनिया के हर देश की संसद में है. यूनाइटेड किंगडम में इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी में हुई तो संयुक्त राज्य अमेरिका में इसकी शुरुआत हुई 18वीं शताब्दी के अंत में। भारत में इसके बीज “भारत सरकार अधिनियम-1919” में देखे जा सकते हैं। स्वतंत्र भारत में पहली बार 31 जनवरी 1950 को, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को संबोधित किया था।

मतलब ये कि माननीय “राष्ट्रपति जी का अभिभाषण” भारत सरकार के ही शब्द हैं. ‘धन्यवाद प्रस्ताव पर’ विपक्ष क्या राय रखता है, यह ज्यादा मायने रखता है; ना कि सरकार अभिभाषण की तारीफ़ के कसीदे पढ़े। जब प्रधानमंत्री सहित सरकार के अन्य मंत्रियों व सत्ता पक्ष के सांसदों द्वारा अभिभाषण को बहुत गर्व के नजरिए से देखा जाता है तो मेरी सामान्य बुद्धि इसे भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं मानती बल्कि इसे एक कहावत “अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना” से जोड़ती है, इस कहावत के तर्ज पर ही हम भारतीय घरों के लोग पहचान लेते हैं कि किस इंसान में कितनी गहराई है।

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि उन्हे “स्टेटस को” अर्थात यथास्थिति पसंद नहीं, वो बदलाव चाहते हैं, नया भारत चाहते हैं जो पहले से अलग हो, वो परंपराओं को भी महत्त्व देना चाहते हैं। मुझे ऐसी सोच का प्रधानमंत्री पाकर नाज महसूस होता है, पर अगले ही पल ये नाज मेरे ही सर पर गाज बनकर गिर पड़ता है। वो इसलिए क्योंकि यदि वो सच में बदलाव चाहते हैं तो उन्हे ‘अपनी और अपनी सरकार की आलोचना’ से शुरुआत करनी चाहिए। उन्हे बताना चाहिए था कि किसानों को रोकने के लिए जिन कीलों और कटीले तारों का इस्तेमाल पुलिस द्वारा किया गया है उससे उनका हृदय भी छलनी हो गया है। उन्हे कहना चाहिए था कि वो उनकी सरकार के मंत्रियों और पार्टी के सांसदों द्वारा किसानों के प्रति इस्तेमाल की गई भाषा से शर्मिंदा हैं। उन्हे संसद में अफसोस जाताना चाहिए था कि बिना किसान संगठनों की राय जाने तीन कृषि कानून को किसानों पर थोप देना गलत था। उन्हे खुले मन से अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेना चाहिए था और बातचीत के लिए ये कहते हुए आमंत्रण देना चाहिए था कि अगर बातचीत में हम किसानों को अपना पक्ष और किसानों का फायदा समझाने में असफल रहते हैं तो हम अपनी गलती मानते हुए कृषि कानूनों को वापस ले लेंगे।

स्वयं प्रधानमंत्री जी और पूरी संसद और भी बड़ा उदाहरण पेश कर सकती थी अगर 200 से अधिक शहीद हो चुके आन्दोलनरत किसानों के लिए वो स्वयं श्रद्धांजलि देते और अफसोस जताते परंतु वो तो तब भी उनकी शांति प्रार्थना के लिए नहीं खड़े हुए जब काँग्रेस नेता राहुल गांधी ने आह्वान किया कि पूरी संसद शहीद किसानों के लिए 2 मिनट का मौन रखे। ये किसी नए भारत को बनाने जैसी बात तो नहीं थी। मेरे हिसाब से संसद में मंत्रियों का किसान शहीदों के लिए खड़ा न होना अहम और भय में डूबी उस सत्ता (दल) का चेहरा है जो अंदर से तमतमाया है लेकिन बाहर से मुस्कुरा कर सब संतुलन में दिखाने की कोशिश कर रहा है। अच्छा होता अगर प्रधानमंत्री जी संसद का उपहास ना उड़ाते और विपक्ष के नेताओं से यह ना कहते कि “मोदी है तो मौका है मजे लीजिए”, क्या ये 21 वीं सदी के तीसरे दशक में पहुँच रही 1.4 अरब आबादी के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधान की भाषा है?

आज का विश्व खुले विचारों का विश्व है, जिसमें सोशल मीडिया जैसे लोकतंत्र के टूल मौजूद हैं। यहाँ हमें तारीफ मिलती हैं तो गालियां भी मिलती हैं। हर पार्टी ने अपनी अपनी गाली देने वाली फौज बना रखी है जिनका वेतन शायद “चुनाव बॉन्ड” योजना के नीचे से निकलता है। पर इसमें भी भारतीय सभ्य समाज को कोई आपत्ति नहीं है। हमें आपत्ति तब होती है जब प्रधानमंत्री देश की संसद में खड़े होकर “आंदोलनजीवी परजीवी” शब्द का इस्तेमाल बड़े गर्व से करते हैं और यह कहते हुए उनमें ये भाव भी आता है कि पूरी संसद और पूरा देश उन्हे शब्दों के मसीहा और शब्दों के आविष्कारक के रूप में देखे। परंतु मुझे यह कहते हुए बेहद अफ़सोस होता है कि ऐसे शब्द संसद जैसे पवित्र पटल पर (जिसकी सीढ़ियों पर झुककर प्रधानसेवक ने पूरे देश की नज़रें खींची और मसीहा बने) बोलना न सिर्फ संसद का अपमान है बल्कि यह सम्पूर्ण भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को भी बेइज्जत करने का प्रयास लगता है। यह गाँधी की, नेता जी की और भगत सिंह,आज़ाद समेत तमाम भारतीय आजादी के दीवानों का अपमान है।

कहने को तो विपक्ष भी सत्ता पक्ष को “मृतोपजीवी” कह सकता था परंतु शायद उन्होंने इस शब्द के लिए पवित्र संसद का इस्तेमाल करने के बारे में उचित नहीं समझा होगा। बाहर बैठे “आन्दोलनजीवी” भी सरकार और प्रधानमंत्री जी के लिए “मृतोपजीवी” शब्द का इस्तेमाल कर सकते थे परंतु उन्होंने नहीं किया क्योंकि उन्हे अपने देश और यहाँ की संस्थाओं से प्रेम है। प्रधानमंत्री जी का आशय इस शब्द से यह था कुछ ऐसे आंदोलनकारी हैं जो हर आन्दोलन में दिख जाते हैं, चाहे वो छात्रों का आन्दोलन हो या किसानों का या फिर मजदूरों का। अरे! ये बड़ी विचित्र बात कही उन्होंने. उन्हें उस आन्दोलनकारी से इतना डर क्यों लगता है? आंदोलन तो किसी भी शरीर रूपी देश, मुख्यतया लोकतंत्र, के लिए बहते हुए रक्त के समान है। लोकतंत्र में मुख्य पिलर तो तीन हैं लेकिन उन पिलर्स को कौन देखेगा उनकी बीमारियाँ कौन ठीक करेगा उनमे दवा कौन पहुंचाएगा मरहम कौन लगाएगा? यह निर्देशन ही तो आंदोलन/जनआन्दोलन करते हैं।

कोई भी देश अगर हजारों वर्षों तक जीवित रहना चाहता है, स्वस्थ रहना चाहता है श्रेष्ठ बनना चाहता है तो उसे कभी आंदोलन रूपी रक्त प्रवाह को बाधित नहीं होने देना चाहिए। अगर कोई सरकार या प्रशासन लोकतान्त्रिक ढंग से चल रहे शांतिपूर्ण आंदोलन को दबाना या कुचलना चाहे अर्थात रक्त का प्रवाह रोकना चाहे तो जनता को आगे आकर स्वयं “सर्जरी” करनी चाहिए।
आंदोलन हमेशा चलते रहना चाहिए और आन्दोलनजीवी हमेशा जीवित, सशक्त और स्वस्थ रहने चाहिए। आंदोलन सरकारों को उनके द्वारा की गई गलतियों की शांतिपूर्ण चुनौती है, और आंदोलनस्थल, असहमति का एक औपचारिक एवं घनीभूत जीवंत केंद्र है। आंदोलन स्थलों में दृढ़ता का निवास होता है जो जनभावनाओं और सत्य के साथ मिलकर इतनी मजबूत हो जाती है कि सत्ताओं की सत्ताएं भी उन्हे आगे बढ़ने से रोक नहीं पातीं।

प्रधानमंत्री तो स्वयं की सरकार द्वारा लिखे गए अभिभाषण की प्रशंसा स्वयं ही खूब करते हैं और पूरे भाषण के दौरान इस बात के लिए खूब खुश दिखते हैं। प्रधानमंत्री जी ने अपने सम्बोधन के दौरान नेताजी सुभाष चंद्र बोस को उद्धृत करते हुए कहा कि “राष्ट्रवाद ही लोकतंत्र है”। क्या सच में प्रधानमंत्री जी इस उद्धरण से सहमत हैं? अगर हैं तो उन्हे बताना चाहिए कि सुभाष ने जिस सत्ता से लड़ते हुए देश की जनता से राष्ट्रवाद का आह्वान किया था क्या उस सत्ता का प्रतिरूप ही वर्तमान भारत सरकार है? क्या आम भारतीय नागरिक आज ब्रिटिश सत्ता से लड़ रहा है? ब्रिटिश सत्ता से कानून वापस लेने की मांग कर रहा है? निश्चित रूप से नहीं! शायद प्रधानमंत्री जी ने गलत समय पर गलत बात उद्धृत कर दी।

अच्छा है! लेकिन अगर अगली बार जब वो संसद में आयें और सच में नए भारत का दृष्टिकोण उनके दिमाग में हो, वो भारत! जो गाँधी, नेहरू, भगत सिंह और नेताजी जैसे तमाम भारतीयों के सपनों को साकार करता हो, उन्हे यह भी जरूर बताना होगा कि उनकी पार्टी,उनकी आलोचना में बोलने और लिखने वाले पत्रकारों को देशद्रोही क्यों समझती है? प्रतिष्ठित अमेरिकी साइबर एनालिटिकल कंपनी आर्सनल कंसल्टेंट ने NIA के खिलाफ जो संदेह पैदा किया है वो किस भारत का दृश्य है? प्रधानमन्त्री चाहें तो अगली बार आन्दोलनजीवी शब्द पर खेद जता सकते हैं, चाहे तो देर से ही सही किसानों की शहादत पर श्रद्धांजलि दे सकते हैं। प्रधानमंत्री बनने के खतरों में सबसे बड़ा खतरा ये है कि आप जो कहते और करते हैं उसे पूरी दुनिया देखती है, रिकार्ड करती है और समय आने पर उसे बार बार चलाती है,आने वाली भारतीय पीढ़ियों को इससे लज्जित भी होना पड़ सकता है। इसलिए PM अगर चाहें तो “त्रासदी टू ईवेंट” की सोच में बदलाव ले आयें. …और अगर प्रधानमंत्री चाहें तो …भारत को बदल दें नहीं तो भारत “बदलना” जानता है।