क्या सामाजिक और धार्मिक असुरक्षा से उपजते हैं दंगे?

समुदायों के बीच भरोसे की खाई को बढ़ाकर ही दंगों का मंचन किया जाता है।

“देअर आर मैनी कॉज़ेज़ आई वुड डाई फॉर। देअर इज़ नॉट अ सिंगल कॉज़ आई वुड किल फॉर।” – महात्मा गांधी

 

गांधी अहिंसा का वो प्रतीक हैं जिस ने मार्टिन लूथर किंग, दलाई लामा, नेल्सन मंडेला सरीखी शख्सियतों को अहिंसा की प्रेरणा दी। अहिंसा का संस्करण चाहे गांधी का हो या आपका या मेरा, पर मुझे लगता है कि हममे से अधिकांश अहिंसा को ही समझ नहीं पाए।

 

 


एक देश के द्वारा सशस्त्र सेना ना रखना अहिंसा नहीं है। किसी हिंसा के बदले में चुप रह जाना अहिंसा नहीं है। अहिंसा है किसी हिंसा के उत्तर में हमारा ऐसा प्रतिरोध जिस से हमारा विरोधी हमारी बिना किसी हिंसा के हमारे नज़रिये को समझ और मान सके। इतिहास के पिछले लगभग 100 सालों में ही तमाम ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जो बिना अहिंसा के संभव नहीं थे।


 

1946 में नोआखली में चल रही हिंसा को सामाजिक और प्रशासनिक हिंसा नहीं रोक पाई थी। 4 महीने तक अडिग हो कर दोनों समुदायों को राहत कार्य, संवाद और प्रार्थनाओं के ज़रिये शांत करने और दंगों को कुछ हद तक रोकने में गांधी जी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

 

अंग्रेज़ो की अधीनता में भी उन के ध्वज यूनियन जैक का कभी अपमान ना करना अहिंसा का एक और प्रारूप है।

 

सदियों के पक्षपात के प्रतिरोध में समान अधिकारों का अमेरिकन सिविल राइट्स आंदोलन द्वारा मिलना अहिंसा का एक और बहुत महत्वपूर्ण उदाहरण है जो कि सिर्फ़ मार्टिन लूथर किंग के अहिंसा पर अडिग विश्वास से ही संभव हो सका।

मंडेला भी अहिंसा पर अपने अटूट विश्वास के चलते ही 28 वर्ष के कारावास के बाद भी दक्षिण अफ्रीका को रंगभेद से मुक्ति दिला पाए और वह दिन ला पाए जब अलग वर्णों की 2 परस्पर विरोधी नस्लें सहअस्तित्व को समझ पायीं।

 

जमैका के रेगे संगीतकार, बॉब मार्ले जीवन भर अहिंसा, शान्ति और समानता के सन्देश अपने संगीत से देते रहे। अहिंसा पर उनके विश्वास की हद यह थी कि विरोधियों द्वारा एक संगीत समारोह से 2 दिन पहले गोली मारे जाने के बाद भी उन्होंने वह समारोह घायल अवस्था में किया और वज़ह पूछे जाने पर कहा कि “दुनिया में अशांति फ़ैलाने वाले जब नहीं रुक रहे तब मैं गाना कैसे रोक सकता हूँ?”।

 

अहिंसा की ताकत 

उपरोक्त उदाहरणों के उलट, अहिंसा किन दंगों या हिंसा को रोक पाई?

1946 और 1947 में विभाजन के सम्बन्ध में हुई हिंसा, चाहे वो किसी भी समुदाय ने किसी भी दूसरे समुदाय के साथ की हो, क्या उन ज़ख्मों को पीढ़ियों के बाद भी भर पाई है? अलगाववादियों का अपने धर्म-आधारित देश की कल्पना पर हठ ना करना ही उस हिंसा को रोक सकता था।

 

 

80 के दशक में पंजाब में हुई हिंसा को रोकने के लिए ऑपरेशन ब्लूस्टार करना और फ़िर उसके विरोध में दंगे और प्रधानमंत्री की हत्या करने से हल कुछ भी नहीं हुआ। शांतिपूर्ण तरीके से पीड़ितों के लिए समयबद्ध न्याय ही एकमात्र हल था जो काफ़ी कुछ हल कर सकता था।

90 के दशक की शुरुआत में दक्षिणपंथी उन्माद से उपजे बाबरी विध्वंस ने पहले दंगे, फिर मुंबई धमाके और उसके बाद फ़िर से देश-व्यापी दंगे कराये, क्या दोनों समुदायों में से किसी का भी वो क्रोध और दुःख; हिंसा से कम या ख़त्म हुआ?

 


दंगों में हुई हिंसा के बाद जले घरों, मृतकों, बेघरों और घायलों, अपाहिजों, अनाथों, उजड़े शहरों को जब दशकों तक न्याय नहीं मिलता तो उस हिंसा का हासिल क्या रहा फिर? सिर्फ़ वैमनस्यता, निराशा और कुंठा। परस्पर भरोसे का खो जाना दंगों का सबसे घातक परिणाम है – चाहे वो सरकार और समुदाय के बीच हो या समुदायों के आपस के बीच।


 

दंगों में हिंसा और अहिंसा के दो कितने विपरीत परिणाम हो सकते हैं देखिये

1. मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह है तो काल्पनिक पर उसके पात्र के मानसिक अवसाद की कल्पना कीजिये कि जो 15 वर्षों तक हमेशा खड़ा रहा वो 1947 के विभाजन के बाद एक दिन अपना देश ना मिल पाने के सदमे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच नो-मैन्स-लैंड पर गिर कर दम तोड़ देता है।

2. 1984 सिख विरोधी दंगों में एक हिंदू परिवार एक सिख परिवार को शरण दे कर उसकी रक्षा करता है जिस से दोनों परिवारों में अटूट सम्बन्ध बन जाता है जो अगली कुछ पीढ़ियों तक चलता है।

हैदर फ़िल्म में कही गई बात “इंतक़ाम से सिर्फ इंतक़ाम पैदा होता है।” और गांधी की बात “An eye for an eye makes the whole world blind” कोई बहुत मुश्किल नहीं हैं समझनी अगर हम अपनी धार्मिक और सामाजिक असुरक्षाओं को पनपने ना दें तो।