क्या धर्मान्धता में हम देश और नेशन-स्टेट (राष्ट्र-राज्य) के बीच का फ़र्क भूल जाते हैं?

बिजली, पानी, सुरक्षा, स्वास्थ्य या मंदिर, प्रतिमा, धर्मांधता?

इंसाफ़, तर्कसंगत और चेतना इन शब्दों के सीधे अर्थों को आप देखेंगे तो निश्चित तौर पर कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। पर मैं जिस संदर्भ में आगे बात करने जा रहा हूँ उसकी माला में ये सब मोती हैं।

मैं आपके धर्म पर सवाल नहीं करूँगा, आपके धार्मिक ग्रंथों पर भी नहीं, आपके मंदिरों, मस्जिदों इत्यादि किसी भी संस्थान पर नहीं करूँगा, चाहे आप किसी भी धर्म से हों। लेकिन आपके सामने जब कुछ होता है तो उस पर आपकी राय में मानवीयता और व्यावहारिक बुद्धि कितने शामिल हैं इससे यह ज़रूर पता चलता है कि आप मानवीयता और धर्म के बीच में बंधे किस तरफ अधिक जड़ता से हैं। धर्म की तरफ़ ज्यादा होंगे तो इंसान से ऊपर धर्म दिखेगा और उस धर्म के एवज़ में आप मानवीय भूल दरकिनार कर देंगे। पर मानवीयता की तरफ़ ज़्यादा होंगे तो समझ पाएंगे कि धर्म इंसान ने खुद अपने लिए बनाया, इसलिए मानवीयता धर्म से ऊपर है और आप समझ पाएंगे कि क्यों अमृतसर में दरबार साहिब की नींव मियां मीर ने रखी थी और उसपर कोई प्रतिरोध नहीं हुआ था।  सिखों में पहले 9 गुरुओं में कितने सिख थे? पर फिर भी कितने सिखों को आप यह बात सहजता से मानते हुए देखेंगे कि उनका मूल तो हिन्दुओं से ही हुआ है? “सहजता” का विशेष महत्व है यहाँ।

“मैं करीना की फिल्में अब नहीं देखूंगा, तैमूर और जहांगीर पैदा कर रही है।” – क्या अच्छाई या बुराई नाम से तय होती है? जिन तैमूर और जहांगीर की वज़ह से ये शख़्स करीना से रूठा हुआ है क्या उनके जाने के बाद कभी किसी माँ ने अपने बच्चे के वो नाम नहीं रखे? तो फिर मशहूर अभिनेता प्राण (जिनकी फिल्में देखने के बाद माओं ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया था) और तैमूर और जहांगीर में कोई फ़र्क ही नहीं? वैसे कठुआ केस में मुख्य अभियुक्त का नाम सांजी ‘राम’ था।

क्या उर्दू सिर्फ़ विशेष सम्प्रदाय की भाषा है या ऐतिहासिक तौर पर आम जनमानस की? भाषा धर्म आधारित होती है या क्षेत्र? क्या गुजरात, उत्तर प्रदेश, बंगाल, केरल के हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं? क्या भारत, सोमालिया और अरब के मुस्लिम एक ही भाषा बोलते हैं?

जब चीन में 2019 में कोविड की शुरुआत हुई, तो कुछ भारतीय मुसलमानों ने कहा कि यह चीन के लिए सजा है क्योंकि वहां बुर्क़ा प्रतिबंधित है। मात्र 4 महीने में ये तर्क नदारद था जब कोविड ने भारत में पैर पसारे।

धर्मान्धता में हम देश और नेशन-स्टेट (राष्ट्र-राज्य) के बीच का फ़र्क भूल जाते हैं। जय सिया राम में सिया फिर श्री को अपनी पदवी सौंप देती हैं। हर हर महादेव कब हर हर मोदी बन गया वो आँखें देख नहीं पातीं। बिजली, पानी, सुरक्षा, स्वास्थ्य फिर स्थानीय मुद्दे रह जाते हैं और मंदिर, प्रतिमा, धर्म देश के मुद्दे बन जाते हैं।

उस देश की कल्पना में हैं कौन कौन यह भी फिर धर्मांधों का हुजूम तय करता है लॉ ऑफ़ लैंड नहीं। अमृतसर और कपूरथला में हुए हाल के मसलों में फिर सिख भीड़ भूल जाती है कि अपवित्रीकरण की सज़ा कानून में मुक़र्रर है, दोषियों के शव पर वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर गर्व से शेयर करना किसी भी प्रोटोकॉल में नहीं है। तो फिर पाकिस्तान से क्या फर्क है जहाँ विभाजन के तुरंत बाद पहले तो मुहाजिर, हिन्दुओं, सिखों और ईसाइयों ने जान गंवाई और अब वहां ब्लास्फेमी लॉ के नाम पर अहमदिये, हिन्दू, सिख और ईसाई अभी भी क़ीमत चुका रहे हैं?

आप सारे तर्क दे लीजिये, सारा इतिहास और उस इतिहास की अपनी समझ उड़ेल लीजिये, धर्म और देश की दुहाई बिलकुल दीजिये पर “मेरा धर्म श्रेष्ठ” और “मेरे श्रेष्ठ धर्म की रक्षा” की कल्पनाओं के बीच में इंसान कहाँ है? साक्षात इंसानों के बिना कौन सी सभ्यता, इतिहास और धर्म इस धरती पर टिकायेंगे आप?