क्या हिन्दू धर्म का वजूद गाय की चार टांगों पर टिका है?

बौद्ध धर्म के उत्थान के पहले गाय माँ नहीं थी, ईश्वर नहीं थी, ऐसा कुछ भी नहीं थी जिसके लिए किसी इंसान की हत्या न्यायोचित ठहराई जा सके!

दामोदर सावरकर, जिसे आज के दक्षिणपंथी गौ रक्षक पूरी कट्टरता से पूजते हैं, ख़ुद गाय को माँ का दर्जा देने के इस हद तक ख़िलाफ़ थे कि व्यंग्यात्मक भाव में कहते थे कि गाय धर्म विशेष की नहीं बल्कि सिर्फ़ एक बछड़े की माँ हो सकती है; गाय की खाद्य और कृषि में उपयोगिता के तहत उसकी देखभाल की जा सकती है पर उसके पूजन का कोई औचित्य नहीं।



 

नफरतों का असर देखो, जानवरों का बंटवारा हो गया..
गाय हिंदू हो गयी; और बकरा मुसलमान हो गया ।।
मंदिरों मे हिंदू देखे, मस्जिदों में मुसलमान..
शाम को जब मयखाने गया; तब जाकर दिखे इन्सान ।।

गाय के नाम पर हम सब पिछले कुछ वर्षों में हालात तेज़ी से बदलते हुए देख रहे हैं – सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत भी। लेकिन गाय के नाम पर सामाजिक समीकरण हमेशा से ऐसे ही थे? आज जैसे चांद राम नवमी और ईद में बंट गया है क्या पहले गाय हिंदू और बकरा मुसलमान था?

नहीं!

राजनीति हमेशा आधे सच और आधे झूठ पर होती है। गौ-रक्षा की राजनीति भी वैसी ही है। गौ-रक्षा का वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ समझने से पहले हमें गाय का इतिहास एक क्रोनोलॉजी के तहत समझना होगा जो कुछ इस प्रकार है :

वैदिक काल [ऋग्वेद (1500-1100 ई.पू.) > सामवेद (1200-800 ई.पू.) > यजुर्वेद (1100-800 ई.पू.) > अथर्ववेद (1000-600) ई.पू.] > उपनिषद् (7 ई.पू.) > बौद्ध धर्म (6 से 4 ई.पू.) > पौराणिक काल > (3 ई.)

बौद्ध धर्म के उत्थान के पहले तक हिंदुओं में मांस का सेवन ना केवल प्रचलित था बल्कि वैदिक काल और उपनिषदों में पुरजोर रूप से अनुशंसित भी था। गाय सिर्फ़ एक मवेशी थी जिसका प्रयोग बलि, कृषि और दुग्ध उत्पादों के लिए होता था। गाय माँ नहीं थी, ईश्वर नहीं थी, ऐसा कुछ भी नहीं थी जिसके लिए किसी इंसान की हत्या न्यायोचित ठहराई जा सके। उस काल में गाय के सिर्फ़ एक मवेशी माने जाने की कुछ और अभिव्यक्तियां:

1. ब्राह्मण-ग्रन्थ में अतिथि के आगमन पर गाय या बैल की बलि चढ़ा (यज्ञ) कर उसके मांस का भोजन परोसने का कथन
2. बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने लिए एक विद्वान पुत्र चाहता है, तो उसे चावल और घी के साथ बैल या अन्य मांस का भोजन तैयार करना चाहिए।
3. शतपथ ब्राह्मण-ग्रन्थ में याज्ञवल्क्य का कहना कि वह गोमांस तभी खाएंगे जब तक वह नर्म न हो।

पर बौद्ध धर्म के आगमन के बाद समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में 2 महत्वपूर्ण सामाजिक बदलाव आये:

1. बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों में से एक – अहिंसा – के तहत इस बात पर ज़ोर कि किसी भी संवेदन-समर्थ प्राणी का मांस न खाएं। परिणाम स्वरुप जानवरों की बलि घटी और शाकाहार का प्रचलन बढ़ा।
2. बौद्ध धर्म का हज़ारों वर्षों तक एक बड़े स्तर पर फैलाव

उपरोक्त कही गई शाकाहार की बात तो साफ़ है पर बौद्ध धर्म के हज़ारों वर्षों तक एक बड़े स्तर पर फैलाव समझना आवश्यक है। यह वह काल था जब बौद्ध धर्म भारतीय उपमहाद्वीप से शुरू हो कर कोरिया, चीन, जापान, अफ़ग़ानिस्तान, श्री लंका और एशिया के अन्य देशों तक समृद्ध हुआ और विश्व के मुख्य धर्मों में शुमार हुआ। इस दौरान बौद्ध धर्म ने हिंदू धर्म की तमाम मान्यताओं – जैसे कि ब्राह्मणों की जातीय और धार्मिक प्रभुता, वर्ण व्यवस्था के अन्य पहलू, सृष्टि के सृजन, देवताओं के अस्तित्व, यज्ञ के लिए गाय (या किसी भी अन्य जीव) की बलि – इत्यादि को चुनौती दी और यह कहा कि आत्मज्ञान की प्राप्ति न तो जाति पर निर्भर करती है और न ही लिंग पर।

ब्राह्मणवाद को हर तरफ़ से चुनौती देते हुए बौद्ध धर्म सशक्त होता रहा पर वक़्त बदला और गुप्त राजवंश का आगमन हुआ। यह वही काल था जब पुराण लिखे गए। पुराण धार्मिक ग्रंथ तो नहीं पर हिंदू संस्कृति और इतिहास में बेहद अहम स्थान रखते हैं क्योंकि इसी काल में देवी-देवताओं और उनके वंश, राजाओं, ऋषियों, लोक कथाओं, तीर्थ स्थानों, मंदिरों, विज्ञान, व्याकरण, साहित्य, रीति-रिवाजों, समारोहों, बलिदानों, त्योहारों, जाति कर्तव्यों और दान इत्यादि का सृजन हुआ। साथ ही बौद्ध धर्म के साथ चल रही प्रतिस्पर्द्धा के संदर्भों में गाय से जुड़ी नई कल्पनाओं का भी सृजन हुआ; जिन में से एक थी – हिंदुओं में गाय के मांस का सेवन वर्जित है।


यज्ञ की प्रथा के संदर्भ में यह असल में तथ्य कम और एक रणनीति अधिक थी जिनसें बौद्ध धर्म की चुनौती के समकक्ष खड़ा रहा जा सके।बौद्ध धर्म में अहिंसा के अपने मूल सिद्धांत और कृषि प्रधान समाज में गाय की बहुपयोगिता के चलते उसका किसी भी कारण वध करने पर मनाही थी और बौद्ध धर्म के अनुयायी इसका पालन करने के लिए प्रतिबद्ध थे। उस दौर के विशालकाय बौद्ध धर्म के समकक्ष अपना अस्तित्व बचा पाने के संघर्ष में अपेक्षाकृत कमज़ोर ब्राह्मण समाज के लिए गाय एक महत्वपूर्ण ज़रिया बनी।


अब यज्ञ के लिए गाय की बलि की परंपरा को छोड़ने और उसे एक पौराणिक, धार्मिक और दैवीय जामा पहनाने के लिए ब्राह्मण समाज बाध्य हो गया, और उनके द्वारा बौद्धिक चुनौती से निपटने के लिए और भी बहुत से सांकेतिक क़दम उठाए गए। बुद्ध की मृत्यु पश्चात उनके अनुयायियों ने बुद्ध की मूर्तियाँ और स्तूप स्थापित किए। ब्राह्मणों ने इसके अनुसरण में मंदिरों का निर्माण किया और उनमें शिव, विष्णु और राम और कृष्ण आदि की छवियां स्थापित कर कीं। फलतः जिन मंदिरों और प्रतिमाओं का ब्राह्मणवाद में कोई स्थान नहीं था, वे हिंदू धर्म में आ गईं।

तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि गाय पौराणिक काल से एक धार्मिक और राजनीतिक औज़ार बनी।

आज के दौर में इसकी तमाम अभिव्यक्तियां हम देख ही रहे हैं। हाल ही के कुछ बयान और घटनायें:

 

“लेकिन हमें पहलू खान की मौत पर कोई अफसोस नहीं है क्योंकि जो लोग गौ तस्कर हैं वे गो-हत्यारे हैं; उनके जैसे पापियों का ये हश्र पहले भी हुआ है आगे भी होता रहेगा।” – ज्ञान देव आहूजा (भाजपा)
“अगर कोई हमारी मां को मारने की कोशिश करता है तो हम चुप नहीं रहेंगे। हम मारने और मारने के लिए तैयार हैं।”- साक्षी महाराज (भाजपा)
“मुसलमान इस देश में रह सकते हैं, लेकिन उन्हें बीफ खाना छोड़ना होगा। गाय यहां आस्था की वस्तु है।” – मनोहर लाल खट्टर (भाजपा)
“मैंने वादा किया था कि जो लोग गायों को अपनी मां नहीं मानते उनके हाथ-पैर तोड़कर मार डालूंगा।” – विक्रम सैनी (भाजपा)

 

  • यूपी सरकार द्वारा गौशालाओं के कुशल प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए हर जिले में गौ संरक्षण समितियों का गठन।
  • गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में 2018 में कानून के छात्रों के लिए तीसरे सेमेस्टर की परीक्षा में यह प्रश्न आना: “अहमद, एक मुसलमान, रोहित, तुषार, मानव और राहुल की उपस्थिति में एक बाजार में एक गाय को मारता है, जो हिंदू हैं। क्या अहमद ने कोई अपराध किया है?”।

दामोदर सावरकर, जिसे आज के दक्षिणपंथी गौ रक्षक पूरी कट्टरता से पूजते हैं, ख़ुद गाय को माँ का दर्जा देने के इस हद तक ख़िलाफ़ थे कि व्यंग्यात्मक भाव में कहते थे कि गाय धर्म विशेष की नहीं बल्कि सिर्फ़ एक बछड़े की माँ हो सकती है; गाय की खाद्य और कृषि में उपयोगिता के तहत उसकी देखभाल की जा सकती है पर उसके पूजन का कोई औचित्य नहीं।

गौ रक्षा के इस दौर में देश के एक हिस्से में उसके लिए हो रही हत्याओं पर सत्ता धारी पार्टी चुप है तो दूसरे कुछ हिस्सों में उसके सेवन के लिए उसी पार्टी के द्वारा न सिर्फ़ आश्वासन दिए जा रहे हैं बल्कि उसी पार्टी की छत्र छाया में भारत बीफ के सबसे बड़े निर्यातकों के रूप में उभर रहा है। कोविड और लिंचिंग की कुछ घटनाओं के प्रभाव को छोड़ दें तो भारत से बीफ के निर्यात में भारी गिरावट नहीं आयी है और यह बिना प्रशासनिक सहयोग के संभव नहीं।


तो मुद्दा यह नहीं है कि गौ रक्षा के लिए कानून या धर्म क्या कहते हैं बल्कि यह है कि हिंदुओं को असल में गोहत्या या पशु बलि से कोई समस्या नहीं है जब तक कि इसमें दलित, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी शामिल न हों। उनका आक्रोश नकली है। मुद्दा यह भी है कि बीफ संबंधित घटनाएं क्या तथ्य से कहीं से भी जुड़ी हैं या सिर्फ़ कोरी अफवाहों और भावनाओं से। और यह भी है कि देश में क्या कोई और समस्या है ही नहीं कि लगभग हर भाषण, हत्या, टीवी डिबेट, बयान, अख़बार, सोशल मीडिया बस अब बीफ के इर्द गिर्द है ?


क्या हिंदू धर्म का इतिहास, उसका भविष्य और उसका पूरा वजूद गाय की चार टांगों पर टिका हुआ है?

आज जब एक इंसान से अधिक एक गाय की सुरक्षा को अहमियत दी जा रही है तब गौ-हत्या और गौ-हत्या को रोकने के लिए इंसान की हत्या – इन दोनों को मैं एक ही सिक्के के 2 पहलू समझता हूँ।

 

 

सतनाम सिंह

(यह लेखक के निजी विचार हैं)