क्या एक शिक्षित व्यक्ति निश्चित तौर पर ग्रहणशील और उदार-चित्त होगा ही? पूर्वग्रह से मुक्ति कौन दिलाता है – साहस या विद्या?
आपने प्रायः पढ़ा या सुना होगा लोगों को यह कहते हुए की “पढ़ा लिखा होता तो यह न करता”। या फिर “इतना पढ़ने लिखने होने के बाद भी ऐसी बात कह रहा है “। अपने जीवन के एक बहुत लम्बे समय तक मैं भी यह ही मानता था की शिक्षा इकलौता माध्यम है समाज और इंसान की कमियों को दूर करने का। पर समाज और इंसान ने ही यह दिखाया और समझाया कि साहस के बिना हम अपनी शिक्षा कार्यान्वित नहीं कर सकते।
कई उदाहरण दिए जा सकते हैं —
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तीन बहनों का बी.टेक किया हुआ छोटा भाई जब शादी करता है तो सोचता है की बहनों की शादी में जितना दाज (दहेज) दिया उतना तो अपनी शादी में ज़रूर लूंगा वर्ना पिताजी को क्या मुँह दिखाऊंगा।
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“हम दहेज नहीं मांगेंगे, ओपन माइन्डिड हैं, पर कोई देगा तो मना क्यों करेंगे?” — यह कहते हुए MBA किये हुए नौजवान के चेहरे पर एक भेड़ की मुस्कराहट (sheepish grin).
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“रिजर्वेशन समाप्त होनी चाहिए पर बड़े बुज़ुर्ग सयाने थे, कुछ सामाजिक नियम (वर्ण वयवस्था) बना कर गए हैं उसका पालन करने में कोई बुराई थोड़े ही है।” — सामाजिक समानता की दुहाई देता हुआ जनरल क्लास(सामान्य वर्ग) से MBBS किया हुआ एक प्रगतिशील डॉक्टर।
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“करवाचौथ तो हमारे घर में सभी महिलाएं मनाती आयी हैं हम कैसे मना कर दें और फिर हमारी पत्नी अपनी मर्ज़ी से व्रत रखती है हमने कभी फ़ोर्स नहीं किया” — घर की सभी महिलाओं और पत्नी से “मजबूर”, IIT मेंस के ज़रिये मर्चेंट नेवी इंस्टिट्यूट से पढ़ा हुआ एक कैडेट।
उपरोक्त उदाहरणों में उल्लिखित शैक्षिक योग्यताओं में ऐसी कौन सी योग्यता है जो दहेज, करवाचौथ, वर्ण वयवस्था को मना करने के लिए नाकाफ़ी थी? COVID महामारी के प्रारम्भ में दिया जला कर और थाली बजा कर देश का मनोबल बढ़ाने का जुलूस क्या सिर्फ अशिक्षितों ने निकाला था?
मेरी समझ में शिक्षा एक औज़ार है हमारी मंशाओं को एक स्वरुप देने का। लेकिन उस औज़ार का सही उपयोग करने का साहस अगर नहीं है तो वो शिक्षा सिर्फ आजीविका कमाने का ज़रिया मात्र है। जो कि एक अशिक्षित भी कमा सकता है।
थोड़ा साहस जुटा कर अगर हम तय मानसिकताओं, प्रचलनों, पूर्वग्रहों से अलग नहीं चल सकते तो हम में और हमारी पिछली पीढ़ी में फ़र्क सिर्फ गैजेट्स का है, बाकी सोच और कर्म तो वो ही हैं।