“इस भारत देश में तर्क की चिता जल चुकी है, अब जिद्द की परवरिश जारी है।” मेरे एक मित्र जो कि दो-तीन छात्र आन्दोलनों का अनुभव रखते हैं उनकी लिखी हुई एक कविता है.
जो जिंदा हैं वो सड़कों पर बैठे हैं,जो मर चुके संसद में बैठे हैं.
सड़कों की आवाज़ दीवार तोड़ देगी तुम्हारे संसद की,जो खामोश हैं वो घरों में बैठे हैं.
जिस तरह सरकार किसान आंदोलन को लेकर जिद्द में है, ऐसा प्रतीत होता है कि महान भारत देश इस समय अपने इतिहास के एक बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है। सरकार की जिद्द है कि वो किसानों को वो नहीं देगी जो उन्हे चाहिए बल्कि वो देगी जो सरकार को ठीक लगता है। किसान सरकार की बात और नीयत दोनों से इत्तेफाक नहीं रखता। जिस तरह सरकार के विभिन्न मंत्री, प्रवक्ता और समर्थकों के भाषण/वक्तव्य सामने आ रहे हैं उससे लगता है कि सरकार को ये बात नहीं समझ आ रही है कि इस भीषण ठंड में सड़क पर 15 से 16 किलोमीटर लम्बाई तक फैले इस आंदोलन में न सिर्फ़ गहराई है बल्कि जज़्बे का वो सैलाब है जो राष्ट्रीय राजमार्गों से होते हुए भारत की राजधानी में बहने को बेताब है। जरा सोचिए इस वक्त दिल्ली अपने ठंड के रेकॉर्ड्स को प्रतिदिन तोड़ रही है, और ऐसे समय में हजारों की संख्या में बच्चे, बूढ़े, महिलायें और जवान सभी,किस तरह इस ठंड का सामना कर रहे होंगे।
मैं यहाँ अपने इस लेख में किसान बिल की बात बिल्कुल नहीं करूंगी, उसकी कमियों को उजागर करती हुई तमाम बातें पब्लिक डोमेन में पहले से ही हैं। लोग चर्चा परिचर्चा कर रहे हैं, कुछ सरकार के समर्थन में हैं तो बहुत सारे ऐसे हैं जो सरकार के समर्थन में बिल्कुल नहीं है। राजनीतिक दलों की बात करना तो बेमानी ही है, सबके अपने अपने दामन हैं और अपने अपने दाग। मेरे हिसाब से जो बात करने योग्य है वो है ‘आंदोलन’ की बात, किसानों की बात, किसानों की जिजीविषा की बात और सरकारी जिद्द की बात।
मौसम के ठंड का सामना तो लोग आग जलाकर और कपड़े पहनकर कर सकते हैं लेकिन ‘सरकारी ठंडक’ का सामना कैसे किया जाए। इतिहास गवाह है,चाहे वो आजादी से पहले का ब्रिटिश काल हो या आजादी के बाद का समय ‘सदियों से पड़ी राख में सुगबुगाहट’ जनांदोलनों से ही होती है। ये जन आंदोलन ही होते हैं जो सरकारी ठंडक से राख बने लोकतान्त्रिक मूल्यों में फिर से आग लगा देते हैं। राख बने लोकतान्त्रिक मूल्यों में आग लगाने और बिल्कुल अलग अर्थों का जनांदोलन किसान आंदोलन आज हमारी पीढ़ी के सामने है। पर हमेशा की तरह ‘कम लोकतान्त्रिक सरकारें’ पहले आंदोलन को नहीं स्वीकारतीं, फिर रोकती हैं, उसके बाद तोड़ती हैं, फिर बदनाम करती हैं, फिर खामोश बैठकर आंदोलन की समाप्ति की राह देखती हैं, बात और संवाद का ढोंग भी करती हैं और इस पर भी आंदोलन चलता रहा तो घुटनों के बाल झुक कर जनता को प्रणाम करने को बाध्य होती हैं।
झुकने और प्रणाम करने से मुझे याद आया कि रविवार को लोककल्याण मार्ग के मुखिया,सिक्खों के 9वें गुरु, गुरु तेग बहादुर को नमन करने गए थे,मत्था टेकने के बाद उन्होंने अपनी फोटो शेयर की और कहा कि “मुझे ऐतिहासिक गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब में मत्था टेकने का सौभाग्य मिला …विशेष कृपा है कि हमारी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही हमें श्री गुरु जी के 400 वें प्रकाश पर्व को मनाने का अवसर मिल रहा है.” मेरे समझ में ये नहीं आया कि जब रकाबगंज तक आये थे तो सड़कों पर आन्दोलन कर रहे किसानों से मिल लिए होते,मध्यप्रदेश के रायसेन के 20 हजार किसानों को संबोधित कर लिया पर लोककल्याण मार्ग से होते हुए सिंघु बोर्डर और टिकरी बोर्डर की दूरी इतनी लम्बी लगी उन्हें, कि गुरु के आगे तो मत्था टेक लिया पर गुरु के शिष्यों की कोई सुध नहीं ली? जब जिम्मेदार संस्थाएं अनदेखी करती हैं तो आशा करने वाली संस्थाएं कमजोर पड़ती है और हिंसक भी हो सकती हैं,परन्तु गाँधी के देश में हिंसा को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता है.
गाँधी जी अहिंसा को ‘रचनात्मक ऊर्जा’ मानते थे। दिल्ली की कई सीमाओं पर चल रहे इस किसान आंदोलन में ‘प्रचंड अहिंसा’ है। ऐसा लगता है कि इसी प्रचंड अहिंसा और रचनात्मक ऊर्जा से किसानों ने मौसम की ठंड को तो गर्दन मुरेड़कर अपने बिस्तर के नीचे बिछी पुआल और गद्दे में दबा दिया है और सरकारी ठंडक का सामना करने के लिए नित नई रचनाओं को जन्म दे रहे हैं। ऐसी ही एक रचना है “ट्रॉली टाइम्स’। ट्रॉली टाइम्स सिर्फ इस आंदोलन की ही नहीं 21 वीं सदी की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। असल में यह एक 4 पन्नों का अखबार है जिसे आंदोलन स्थल से ही शुरू किया गया है। ताकि सरकार द्वारा पोषित मेनस्ट्रीम मीडिया में आ रही फर्जी खबरों और सरकारी वाहवाही के लेखों से आंदोलन को बचाया जा सके। ये सच है कि मात्र 2 हजार की संख्या में छापा जा रहा यह अखबार करोड़ों लोगों तक पहुँच रखने वाले बिक चुके ज्यादातर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया से संख्या में बहुत कम है परंतु इसका जज़्बा और आग़ाज़ उस सुई की तरह है जो निर्लज्ज खालों, रूमालों और खयालों के धागे उधेड़ सकती है।
देश की राजधानी में एक तरफ जन आंदोलन है तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के हाथरस में अपना जीवन खो चुकी बलात्कार पीड़िता है। हाथरस बलात्कार मामले में सीबीआई ने 4 आरोपियों के खिलाफ अपनी चार्जशीट न्यायालय में दाख़िल कर दी है। इसमें सीबीआई ने माना है कि पीड़ित के साथ बलात्कार हुआ था,परन्तु उत्तर प्रदेश के ADG लॉ एंड ऑर्डर जो कि तमाम डिग्रियों MSc (भूगर्भ विज्ञान),MBA (आपदा प्रबंधन),MPhil (डिफेन्स एंड स्ट्रेटेजिक स्टडी) से सुशोभित हैं उन्होंने कहा कि बलात्कार हुआ ही नहीं.
हाथरस घटना में 19 वर्ष की लड़की जो कि इस भीषण दर्द से गुजरी वह दलित थी और आरोपी एक सवर्ण जाति से संबंधित थे। कुछ लोगों को जाति के चश्में से इस घटना को देखने में आपत्ति हो सकती है, तो इसे उस ‘जनजाति’ के चश्में से देखिए जिसका नाम ‘प्रशासन’ है। हाँ वही प्रशासन जिसने पीड़िता की सुध लेने में देर कर डाली, वही प्रशासन जिसने पीड़िता के मृत शरीर के साथ “शासनात्कार” किया और बिना परिवार से अनुमति लिए उसके शरीर को अंतिम संस्कार के बहाने फूँक दिया, वही प्रशासन जिसके ADG (कानून एवं व्यवस्था) प्रशांत कुमार (IPS 1990 बैच ) ने ‘बलात्कार नहीं हुआ’ कहकर एक मृत शरीर में फिर से घाव दे दिए, वही प्रशासन जिसके हाथरस DM प्रवीण कुमार लक्सकर (IAS 2012 बैच) MA (इतिहास),MA (हिंदी),BEd ने पीड़ित परिवार पर स्टेटमेंट बदलने का दबाव डाला (ऐसा आरोप है)।
हाथरस घटना को देखकर ऐसा लगता है ‘प्रशांत’ इतने ‘प्रवीण’ नहीं हैं और ‘प्रवीण’ कभी इतने ‘प्रशांत’ नहीं। पर कोई बात नहीं उत्तरप्रदेश सरकार उसी जिद्द की परवरिश कर रही है जिसका जिक्र लेख के शुरुआत में मैंने किया है। इसके बावजूद प्रवीण कुमार को हाथरस DM पद से नही हटाया गया और न ही ADG प्रशांत कुमार से जवाब तलब किया गया। आखिर इतने गैर जिम्मेदाराना प्रशासनिक रवैये के लिए कौन जिम्मेदार है? खैर,घटनाओं की जिम्मेदारी लेना,और जिम्मेदार होना भी परवरिश की बातें हैं, और आज के राजनैतिक हालात ऐसे तो नहीं दिखते कि प्रशासन में कोई आगे बढ़े और जिम्मेदारी ले। उन्हे तो बस आकाओं को खुश करना आता है जबकि कसम खाई थी कि “भारत के लोग” की रक्षा ही उनका परम कर्तव्य है। पर कोई बात नहीं आप अपनी कसम भूल जाइए कोई बात नहीं “भारत के लोग” जानते हैं कि कैसे आपको और आपके आकाओं को कसमें याद दिलवानी हैं।
किसान आंदोलन और हाथरस की घटना को देखकर लगता है कि भारत में आज गाँधी की लड़ाई गोडसे से है। जहाँ गाँधी जिम्मेदार लाठी और सत्य,अहिंसा के साथ प्रतिरोध के धागे से जोड़कर सबको साथ लेकर चलने के प्रतीक हैं वहीं गोडसे उच्छृन्खलता और गैर जिम्मेदाराना परवरिश का उत्पाद। भारत में आज ऐसे उत्पादों की संख्या टिड्डी दलों की तरह बढ़ रही है इससे पहले की ये टिड्डी दल भारत की लाठी अर्थात गाँधी पर आकर बैठें और देश के “आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन्स” को परेशान करें, भारतीयों को पर्याप्त मात्रा में दवा छिड़क देनी चाहिए।