‘धर्म’ की सही समझ रखना भी धर्म ही है

जब मनुष्य अपनी धारणाओं और अनुमानों को धर्म के नाम पर थोपने लगे तो धर्म से खतरनाक इस संसार में कुछ और नहीं हो सकता।

जब भी किसी धर्म संसद का उल्लेख होगा तो सहसा स्वामी विवेकानंद का 11 सितंबर 1893 का “विश्व धर्म संसद ” में हिंदू धर्म पर दिया हुआ भाषण जेहन में आएगा और आज लगभग 129 सालों बाद भी वह क्षण हर भारतीय को गौरवान्वित करता है, क्योंकि स्वामी विवेकानंद ने अपने धर्म और भारतवर्ष को विश्व के सामने सम्मान दिलाया जबकि आज भारत में हो रहे धर्म संसदों में दिए गए भाषण विश्व पटल में इस भारत को शर्मसार ही कर रहे है।



हिंदू धर्म के दर्शन में धर्म और कर्म की मान्यता है और सद्कर्मों द्वारा ही धर्म की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए धर्म सिर्फ विश्वास नही बल्कि न्यायोचित और तर्कसंगत जीवन भी है। परंतु आज के भारतवर्ष में धर्म का अलग ही स्वरूप है जहां जगह जगह पर धर्म संसद का आयोजन हो रहा है और एक धर्म विशेष को नेस्तनाबूत करने का आह्वान किया जा रहा है। लोग भीड़ में हिंदू ईश्वर के नाम का उद्घोष कराकर मुस्लिम समुदाय को प्रताड़ित कर इसे जायज ठहराने हेतु हिंदू देवी-देवताओं की अस्त्र एवम शस्त्र सहित छवि का प्रयोग करके यह स्थापित करने में लगे है कि उन्होंने भी शत्रुओं के संहार के लिए अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग समय समय पर किया है।

हिंदू धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि सूर्य का धर्म है प्रकाश देना, चंद्र का रोशनी एवं शीतलता देना इत्यादि, इससे एक बात विदित होती है कि किसी का धर्म उसके अच्छे गुणों का प्रयोग करना ही है, अगर सूर्य अपने ताप से भस्म कर दे तो यह उसका धर्म कतई नही, अग्नि हवन में एवं दैनिक कार्यों के लिए जले तो धर्म; अन्यथा किसी विकराल रूप में जले तो धर्म के विपरीत ही है।

धर्म अगर जटिल नहीं तो उसको समझना इतना आसान भी नहीं, क्योंकि धर्म के मार्ग पर चलने का एक मुख्य कारण ईश्वर, स्वर्ग या वैकुंठ की और मार्ग प्रशस्त होना भी है। इसे एक उदाहरण से समझे तो बेहतर रहेगा-

महाभारत के युद्ध में यह युद्ध के पूर्व ही स्थापित था कि धर्म पांडवों के ध्वज तले है और स्वयं नारायण की उपस्थिति उनके खेमे में इसे प्रगाढ़ करती है परंतु फिर भी युधिष्ठिर ही पांडवों में स्वर्ग के योग्य होते हैं जबकि कौरव एवं कर्ण अधर्म के ध्वज तले होते हुए भी स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। अतैव धर्म की सही समझ रखना भी एक धर्म ही है और यह आज के भारत की या ये कहें कि हिंदी भाषी भारत की परम आवश्यकता है।

 

क्योंकि मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब भी किसी धर्म संसद का उल्लेख होगा तो सहसा स्वामी विवेकानंद का 11 सितंबर 1893 का “विश्व धर्म संसद ” में हिंदू धर्म पर दिया हुआ भाषण जेहन में आएगा और आज लगभग 129 सालों बाद भी वह क्षण हर भारतीय को गौरवान्वित करता है, क्योंकि स्वामी विवेकानंद ने अपने धर्म और भारतवर्ष को विश्व के सामने सम्मान दिलाया जबकि आज भारत में हो रहे धर्म संसदों में दिए गए भाषण विश्व पटल में इस भारत को शर्मसार ही कर रहे हैं।

 

ब्रह्मा पुराण में महर्षि व्यास योग और सांख्य की व्याख्या कई ऋषियों के सम्मुख करते है और योगी होने के लिए अनिवार्य योग्यताओं के बारे में बताते है जो कुछ इस प्रकार है -जो लाभ-हानि को समान समझे, जो उस योगी की निंदा करे और जो उसका मस्तक झुकाए, उन दोनो के ही प्रति वह समान भाव रखे। वह वायु का सहधर्मी होकर सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखे। इसी प्रकार विष्णु पुराण में केशीध्वज खांडिक्य को बताते है कि योगी को ब्रह्मचर्य, अहिंसा और सत्य का पालन करना चाहिए।

क्या आज के धर्म पुरोधा इन पैमानों पर लेश मात्र भी खरे उतरते हैं? प्रतीत तो यही होता है कि यह सब एक नया हिंदू धर्म चाहते है तो फिर क्यों वो इसके विश्व में सबसे प्राचीन होने का दावा करते हैं। क्योंकि हिंदू धर्म की मूल भावना आज के धर्म के ठेकेदारों के पहले जो थी; आने वाली हर सदी में भी वही रहेगी।

क्या समस्त देवी-देवताओं की प्रकाशमान छवि उनके अस्त्रों-शस्त्रों सहित का अभिप्राय सिर्फ दानवों का सर्वनाश करना मात्र ही है? जैसा आज का डिजिटल उन्मादी युवा प्रत्यारोपित करने पर आमादा है, इसे मैं अपने स्तर से समझने का प्रत्यन करता हूं। क्योंकि जब मनुष्य अपनी धारणाओं और अनुमानों को धर्म के नाम पर थोपने लगे तो धर्म से खतरनाक इस संसार में कुछ और नहीं हो सकता।

शिव

शिव की कल्पना को हम क्यों उनके त्रिशूल के साथ उनके संहारक रूप में करते है जबकि,

 

यदि हम विचार करेंगे तो पाएंगे कि शिव के परिवार में पुत्र गणेश की सवारी मूषक है जो आसानी से शिव की ग्रीवा में आसीन सर्प का भोजन बन सकता है, इसी तरह कार्तिकेय का वाहन मयूर (सर्प भक्षक), पार्वती के अंश दुर्गा का वाहन सिंह, शिव के प्रिय नंदी का हनन कर सकता है परंतु फिर भी यह सब एक ही परिवार का हिस्सा है अर्थात, एक कुशल एवं संवेदनशील शासक की भाँति शिव इन सबको एक परिवार के रूप में प्रेम में पिरो कर रखते हैं। 

 

एक कुशल शासक को शिव से यह सीख जरूर लेनी चाहिए। हमारा भारतवर्ष भी धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा एवं संस्कृति इत्यादि अनेक पैमानों में विभाजित है और ऐतिहासिक घटनाएं इस वैमनस्यता की खाई को गहरा करती रही हैं जिसे संवेदनशीलता से ही सुलझाकर शिव की भांति विवेकपूर्ण ढंग से प्रेम के बंधन में पिरोए रखा जा सकता है।

श्रीमती राधा रानी

राधा जी को पढ़ने और समझने के बाद प्रतीत होता है कि वो किसी भी युग या कालखंड की सर्वाधिक प्रगतिशील महिला रही होंगी। श्रीमती राधा अभिमन्यु से विवाहित होने के बाद भी अपने प्रेम को कृष्ण के प्रति बनाए रखती हैं और सामाजिक बंधनों के बाद भी अपने प्रेमपथ से नही डिगती। वह गोपियों और सखियों के एक बड़े समूह का नेतृत्व भी करती हैं। शायद यही कारण है कि हमआज भी कृष्ण की बाल लीलाओं की साक्षी वृंदावन नगरी में सर्वप्रथम कृष्ण से पहले राधा को याद करते हैं, परंतु,


अधिकांशतः राधारानी को विरह एवं वेदना के प्रतीक के रूप में ही चित्रित होते पाया है जबकि हम उनके प्रगतिशील और उन्मुक्त स्वरूप को भी चुन सकते हैं क्योंकि किसी भी समुदाय, समाज या राष्ट्र की प्रगति उस समाज की महिलाओ की प्रगति में ही निहित है।


हनुमान

 

लंका स्वयं शिव की थी जो पहले कुबेर और फिर रावण की हो गई, जिसे विश्वकर्मा जी ने बनाया और उसमे आग लग जाना कदापि असंभव था। परंतु पवनपुत्र होने के कारण हनुमान उन्चास मारूत का आह्वान करते है एवं सभी वायु समन्वित हो लंका को जला देती है। रावण की लंका जला देना मात्र ही हनुमान का पराक्रम नही बल्कि वो कैसे दिशा,प्रवाह और वेग में भिन्न मरूतों को एक साथ समन्वित करते है और असंभव कार्य को भी आसान बना देते हैं।

 

हमारा देश भी भाषा, पहनावा, भोजन, जलवायु ना जाने कितने मायनो में भिन्न है पर आवश्यकता है कि भगवान हनुमान द्वारा आह्वान की हुई उन मरूत की तरह हम भिन्न होते हुए भी एक देश के नागरिक के तौर पर समन्वय में रहने का प्रयास करे जो कि विश्वगुरु बनने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रयास होगा।

श्री राम

श्री राम आज हमारे देश के सबसे पूज्य देव कहे जा सकते हैं क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए प्रयासरत सैनिक समूह उन्ही के नाम को अस्त्र की तरह प्रयोग कर रहे हैं। वैसे तो श्री राम, विष्णु का अवतार है और भगवान विष्णु समयांतर में धर्म की रक्षा हेतु पापियों का नाश करने के लिए अवतार लेते रहे है जैसे हिरण्यकश्यप के वध के लिए नरसिंघ अवतार, कंस वध के लिए श्रीकृष्ण अवतार, रावण के वध के लिए श्रीराम अवतार पर क्या कभी विष्णु, हिरण्यकश्यप, कंस और रावण के पुत्रों-पौत्रों के वध के लिए अवतरित हुए? क्योंकि राम और कृष्ण का ऐसा कोई कर्म शायद धर्मसंगत नही होता। बल्कि आप पाएंगे कि कैसे नरसिंह अपना आशीर्वाद प्रह्लाद को देते है जो हिरण्यकश्यप के पुत्र है, श्रीकृष्ण कंस के वध के बाद राजसिंहासन उनके पिता को ही सौंपते हैं, श्रीराम रावण के वध के बाद राज्य उनके भाई विभीषण को देते है। फिर मुगलों के नाम पर सभी मुस्लिम धर्म के लोगों को प्रताड़ित करना कितना धर्मसंगत है? अगर हम एक समाज के तौर पर ऐसा कर रहे है तो यह धर्मसंगत कतई नही और इसके प्रयोजन में श्रीराम और कृष्ण के नाम का प्रयोग अन्यायपूर्ण और अतार्किक है।

 

जिस तरह से श्रीराम का उद्घोष एक धर्म विशेष समुदाय में भय प्रत्यारोपित करने के लिए किया जा रहा है वह श्रीराम, किसी चोल, चालुक्य के तरह एक राजा या अशोक और अकबर के तरह एक सम्राट जिन्होंने अपनी सेना के भय से राज किया, हो सकते है लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम नहीं । श्रीराम अपने पराक्रम मात्र से नहीं बल्कि अपनी सहनशीलता और अपने आचरण, नीतियों एवं कर्म की शुद्धता से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनते हैं । 

 

आजकल राम चित्रों में धनुष बाण खींचे हुए नजर आयेंगे जो शायद श्रीराम समुद्र के रास्ता ना देने पर क्रोध में उठाते है लेकिन भगवान के जीवन का यह एक बिंदु ही तुलसी के राम का संपूर्ण चरित्र नही है। वह सभी जो आवेश में एक धर्म विशेष को भस्म करने हेतु भस्मासुर बने हुए है उन्हें विदित रहे कि इसी हिंदू धर्मानुसार, स्वयं अपने द्वारा भस्म हो जाना ही भस्मासुर की नियति है। हम सब धर्म का सही आकलन कर सके तो वो भी धर्म से कम नही किंतु समस्या यह है कि लंबे समय से चले आ रहे (अंध)विश्वास को हम इतना सत्य मान चले है कि सत्य की विश्वसनीयता ही धुंधली हो चली है।