मैंने अनेक बार यह देखने की कोशिश की है कि मैं अपने शत्रु से घृणा कर सकता हूं या नहीं – यह देखने की नहीं कि प्रेम कर सकता हूं या नहीं, पर यह देखने की कि घृणा कर सकता हूं या नहीं – और मुझे ईमानदारी के साथ परन्तु पूरी-पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहिए कि मुझे नहीं मालूम हुआ कि मैं उससे घृणा कर सकता हूं। मुझे यह याद नहीं आता कि कभी भी किसी मनुष्य के प्रति मेरे मन में तिरस्कार उत्पन्न हुआ हो। मैं नहीं समझ सकता कि यह स्थिति मुझे किस तरह प्राप्त हुई है। पर आपसे यह कहता हूं कि जीवनभर मैं इसी का आचरण करता आया हूं।
मुझे किसी के प्रति भी तिरस्कार का भाव नहीं उत्पन्न होता: महात्मा गाँधी
आखिर क्यों गाँधी अपने शत्रु से भी घृणा नहीं करते थे?
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