विद्यार्थी-जीवन में पाठ्यपुस्तकों के अलावा मेरा वाचन नहीं के बराबर समझना चाहिए। और कर्मभूमि में प्रवेश करने के बाद तो समय ही बहुत कम रहता है। इस कारण आज तक भी मेरा पुस्तक-ज्ञान बहुत थोड़ा है। मैं मानता हूँ कि इस अनायास के या ज़बरदस्ती के संयम से मुझे कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचा है। पर हाँ, मैं यह कह सकता हूँ कि जो भी थोड़ी पुस्तकें मैंने पढ़ी हैं, उन्हें ठीक तौर पर हजम करने की कोशिश अलबत्ता मैंने की है। और मेरे जीवन में यदि किसी पुस्तक ने तत्काल महत्त्वपूर्ण रचनात्मक परिवर्तन कर डाला है, तो वह रस्किन की ‘अन्टू दिस लास्ट’ पुस्तक ही है।
बाद में मैंने इसका गुजराती में अनुवाद किया था और वह सर्वोदय के नाम से प्रकाशित भी हुआ है। मेरा यह विश्वास है कि जो चीज़ मेरे अंतरतर में बसी हुई थी, उसका स्पष्ट प्रतिबिंब मैंने रस्किन के इस ग्रंथरत्न में देखा और इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमा लिया और अपने विचारों के अनुसार मुझसे आचरण करवाया। हमारी अंतःस्थ सुप्त भावनाओं को जाग्रत करने का सामर्थ्य जिस में होता है वह कवि है। सब कवियों का प्रभाव सब पर एकसा नहीं होता, क्योंकि सब लोगों में सभी अच्छी भावनाएँ समान मात्रा में नहीं होती।
“सर्वोदय’ के सिद्धांत को मैं इस प्रकार समझा हूँ:
1. सबके भले में अपना भला है।
2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिए, क्योंकि
आजीविका पाने का हक दोनों को एकसा है।
3. सादा मज़दूर का और किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।
पहली बात तो मैं जानता था। दूसरी का मुझे आभास हुआ करता था। पर तीसरी तो मेरे विचार-क्षेत्र में आई तक न थी। पहली बात में पिछली दोनों बातें समाविष्ट हैं, यह बात सर्वोदय’ से मुझे सूर्य-प्रकाश की तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी। सुबह होते ही मैं उसके अनुसार अपने जीवन को बनाने की चिंता में लगा।
आत्मकथा भाग 4, अध्याय 18