क्या बहुसंख्यवाद शब्दों और अभिव्यक्तियों से डर रहा है ?

सामाजिक व्यवस्थाओं पर व्यंग्य असल में मौजूदा विडम्बनाओं को हुक्मरानों से सीधा जोड़ता है, जवाबदेही तय करता है

“सिर्फ़ लिख़ने या कहने से क्या होगा, पॉलिटिक्स में उतरो और कुछ करो”

“यहाँ इतना बोल रहे हो, पाकिस्तान/सीरिया में जा कर बोल के देखो तब पता चलेगा”

“तब क्यों नहीं बोले, तब कहाँ थे?”

 

सरकार से या सिस्टम से सवाल पूछते या विभिन्न सामाजिक मसलों पर अपनी असहमति जताते हुए लोगों ने प्रायः इस तरह के तर्क सुने होंगे। इन सब तर्कों का शाब्दिक अर्थ अलग-अलग हो सकता है पर भाव एक ही है – कि बस, चुप रहो।

सत्तारूढ़ दक्षिणपंथियों (राइट विंग) को गाँधी से चाहे जितनी समस्या हो पर गाँधी के चुप रहने वाले बन्दर को इन्होंने अपने हिसाब से ढाल लिया है कि “सरकार के विरोध में कुछ बुरा ना बोलो”। अगर कुछ लिखना, कहना, गाना, पेंट करना, फिल्मांकन करना इतना ही महत्वहीन और निष्फल है तो इन सारी अभिव्यक्तियों पर आपत्ति क्यों है?

“सिर्फ़ लिखने या कहने से क्या होगा, पॉलिटिक्स में उतरो और कुछ करो” — किसी होटल का भोजन पसंद ना आने पर आप वहां स्वयं भोजन बनाने लगते हैं या होटल बदलते हैं? और अगर प्रजा भी राज करेगी तो करेगी किस पर?

“यहाँ इतना बोल रहे हो, पाकिस्तान/सीरिया में जा कर बोल के देखो तब पता चलेगा” — जाना ही है तो किसी स्कैंडिनेवियाई देश क्यों ना जाया जाए जहाँ की वैज्ञानिक और धार्मिक चेतना हम से बेहतर विकसित और सर्व-समावेशी है?

“तब क्यों नहीं बोले, तब कहाँ थे?” — तब नहीं बोले उस से अभी बोलना कैसे अमान्य हो जाता है? वैसे ये तर्क सबसे अधिक वो देते हैं जो “तब” भी चुप थे और “अब” भी चुप हैं, बस अब निहित स्वार्थ जुड़ गए हैं।

“पेन इज़ माइटर दैन अ सॉड्‌!” नेपोलियन यह जानता था तभी उसने कहा कि आपसे सवाल करते या आपके विरुद्ध 4 अख़बार 1000 हथियारों से अधिक शक्तिशाली हो सकते हैं। कला का कोई भी रूप हो, वो अपने में उकेरी हुई बात पर हमें सोचने पर विवश करता है। आप जब सोचते हैं तो बतौर एक सामाजिक प्राणी आप उस विषय पर अपने मित्रों, परिवार से संवाद स्थापित करते हैं।पहले पहल आभास तो नहीं होता पर फ़िर कुछ संवाद फिर कभी कभी एक सामाजिक सोच बन जाने में सशक्त होते जाते हैं और इतिहास स्वयं साक्षी है कि एक सशक्त सामाजिक सोच ने इतिहास बदले हैं।

 


शब्द और कला जनमानस में पीढ़ियों तक तैरते हैं, शायद इसीलिए कहते हैं कि “शब्द ब्रह्म होते हैं” क्यूंकि उन में सोच, विचार, व्यवहार और संसार बदल देने की शक्ति होती है। शब्दों से निकली कल्पनाएँ वो उम्मीद दे सकती हैं कि दुनिया जो अभी है वो बदल सकती है। शब्द आपको वो विश्वास दिला सकते हैं कि दुनिया को बनाने में भागीदारी आपकी भी हो रही है। और इसीलिए शायद नेपोलियन अगर साहित्य और कला का आदर करता था तो डरता भी था। था तो आख़िर शासक़ ही।


कला के विभिन्न रूप या फिर कला की वो सारी अभिव्यक्तियाँ आपको व्यक्तिगत, पारिवारिक, और सामाजिक मुद्दों से जज़्बाती तौर से जोड़ती हैं। हास्यकारों की दुनिया में कहते हैं कि “satire is an extension of irony” अर्थात व्यंग्य विडंबना का ही एक विस्तार है। सामाजिक व्यवस्थाओं पर व्यंग्य असल में मौजूदा विडम्बनाओं को हुक्मरानों से सीधा जोड़ता है, जवाबदेही तय करता है। और जवाब देना किस राजा को पसंद हुआ है आज तक? वरना बीते समय में भारत में विभिन्न हास्यकारों (वीर दास ,मुनावर फ़ारूक़ी, कुणाल कामरा, अग्रिमा जोशुआ) पर कसी गयी प्रशासनिक नकेल और क्या थी?

तो अगर एक भारत में कंजकें खिलाई जाएँ तो उसी भारत में कन्या भ्रूण हत्या कैसे संभव है या फ़िर उसी भारत में यह कैसे संभव है कि लड़का हुआ तो सम्बन्धियों को टेलीफोन करके ख़ुश ख़बरी देंगे पर लड़की हुई आउटगोइंग बंद हो जायेगी कुछ दिन तक? ऐसे में वीर दास की 2-इंडिया की कल्पना कैसे ग़लत है?

 

जो लोग आपके जज़्बातों की अभिव्यक्तियों को कोई भी तर्क दे कर रोकना चाहते हैं वो सिर्फ इसलिए है कि वो ख़ुद उसकी दूरगामी संभावनाओं से अभिज्ञ हैं और डरते भी हैं। अपनी बात रखना, एक निर्णायक अभिव्यक्ति होती है और हाकिमों की रोटी निर्णायक प्रजा से नहीं अनुयाइयों के ढोल-मंजीरों से सिंकती है। इसलिए किसी भी बात को लिखने या अपने तरीक़े से व्यक्त करने से चूकिए मत। आपके रुक जाने से उन ढोल मंजीरों की कर्कशता इंसानी सद्भाव ख़त्म कर देगी।

 

अपनी बात कहते, लिखते, गाते, सुनाते, बजाते, दिखाते रहिये। फ़िक्र इसकी नहीं कि वो बात पढ़ेंगे कितने, बल्कि इसकी कि आपकी आने वाली पुश्तें ना सोचें कि हमारे पुरखे चुप क्यों रह गए?