पिछले दिनों भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में देश की विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने चुनावी राजनीति के इतर वैचारिक द्वंद का जिक्र किया, उसी वक्त कर्तव्य पथ पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की विशालकाय प्रतिमा का अनावरण किया गया। और ऐसे कई आयोजन देश में विभिन्न दल करते आ रहे है। सभी दल इन महान नेताओं की राजनीतिक विरासत पर अपना अधिकार स्थापित करने में भरसक प्रयास कर रहे है लेकिन उनके विचारों का क्या? उनके विचारों के देश का क्या? क्या वाकई में इन महान व्यक्तित्व के विचारों से हम अवगत है, क्योंकि इन सभी की प्रासंगिकता आज उनके वैचारिक बोध के कारण ही है।
सौगता बोस अपनी किताब “His Majesty’s Opponent” में जिक्र करते है कि 1945-46 में INA के सदस्यों पर चल रहे लाल किला मुक़द्दमे के दौरान गांधी उनसे मिलने जेल जाते है, जहां INA सदस्य दुखी हो गांधी को बताते है की यहां सब नेताजी की सीख का उल्टा ही प्रतीत होता है और हमें हिंदू चाय या मुस्लिम चाय दी जाती है। गांधी गंभीर होकर पूछते है तो तुम सब क्या करते हो? सभी हंसी से जवाब देते है, हम नेताजी के चेले है पहले दोनो चाय मिला लेते है फिर बांट कर पीते है। ऐसी कई घटनाओं का जिक्र नेताजी के बारे में किया जा सकता है। भारतीय इतिहास में अगर हम नेताओं का वर्गीकरण धार्मिक (हिंदू और मुस्लिम)चरमपंथियों के रूप में करे तो बोस पक्का इन समुदायों की एकता के प्रति अतिवादी कहे जा सकते है।
पंजाब चुनाव समाप्त हुए तो सत्ता में आई नई पार्टी ने अंबेडकर और भगत सिंह को अपना आदर्श बता सरकारी संस्थानों में उनकी तस्वीरें चस्पा करा दी, वैसे पंजाब ही नही पूरे भारत में भगत सिंह यूंही शहीद-ए-आजम नही कहलाते और भगत सिंह का लेख “Why I am an Atheist” से हम अवगत ही है, उनके लिए अगर कोई सबसे बड़ा धर्म रहा तो वो देश की स्वतंत्रता।
कुलदीप नैयर अपनी किताब “Without Fear” में जिक्र करते है की कैसे भगत सिंह झटका और हलाल के मांस एक साथ पकवाते थे ताकि राष्ट्र की स्वतंत्रता के मार्ग में धर्म अवरोध न बने लेकिन क्या उन्हें अपना आदर्श बताने वाला दल उनके आदर्शों को आगे बढ़ा रहा है या उनके चित्र के सहारे अपनी राजनीति को? पिछले कुछ समय में हुई घटनाएं जैसे दिल्ली दंगे, बिल्किस बानो प्रकरण में दल के शिखर पुरुष केजरीवाल जी की चुप्पी ऐसा कोई संकेत नही देती।
भारतीय स्वतंत्रता के पश्चात बाबा साहेब अंबेडकर एक बड़े मतदाता वर्ग को प्रभावित करने वाले नेता के रूप में विकसित हुए और किसी भी राजनीतिक दल के लिए उन्हें नजरंदाज करना सबसे कठिन काम है, हर एक राजनीतिक दल उन्हें अपनी विरासत का हिस्सा बनाने को उत्साहित हो न हो लेकिन मजबूर तो है। कुछ ही समय बीता देश दो और दिलचस्प घटनाओं से रूबरू हुआ : पहली यह की दिल्ली राज्य के मंत्री राजेंद्र गौतम अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराते हुए केंद्र में बैठे दल के निशाने पर आ गए और गुजरात चुनाव में अपनी संभावना तलाश रहे अंबेडकर जी के तथाकथित अनुयाई दिल्ली के मुख्यमंत्री खामोश ही रहे और राजेंद्र गौतम अपना इस्तीफा देकर अंबेडकर के आदर्शों की बलि चढ़ा गए ताकि गांधी के प्रदेश में उनके दल की संभावनाएं बनी रहे जबकि अंबेडकर अपने द्वारा दिए जाने वाले एक वक्तव्य में आयोजनकर्ता के कहने पर अपने दिए जाने वाले भाषण में एक भी शब्द का परिवर्तन करने से मना कर देते है क्योंकि अंबेडकर किसी भी कीमत पर अपने विचारों से समझौता स्वीकार नहीं करते।
दूसरी घटना कर्नाटक से जहां एक दलित परिवार पर 60 हजार का जुर्माना इसलिए लगाया गया क्योंकि एक बच्चे ने भगवान को छू लिया था पर इस परिवार का मुखिया इन हुक्मरानों से अधिक साहसी ही प्रतीत होता है जिसने अपने घर से भगवान की मूर्तियों को हटा अंबेडकर के चित्र को लगाकर जीवन पर्यंत उन्हें ही पूजने का निर्णय लिया।
राज मोहन गांधी अपनी किताब Patel:A Life में जिक्र करते है की सरदार पटेल किसी के पूछने पर की वह अपनी पुत्री मणिबेन पटेल के लिए कुछ संपत्ति छोड़ने पर विचार करें इसके जवाब में सरदार कहते है की संपत्ति से अधिक मैं उसे अपनी वैचारिक विरासत देना चाहूंगा।
आज के भारत में इन महापुरुषों की विशालकाय प्रतिमा बनाई गई हैं ताकि उनके विचार बौने हो जाए पर वो विचार दबाए नही जा सकते है और कभी न कभी उभर कर आयेंगे क्योंकि यह विशालकाय प्रतिमा क्षय होती रहेंगी पर विचार हैं जो चिरकाल तक जीवित रहेंगे।
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