क्या आपका वोट इस बार भी उन्माद के लिए है?

देश में करोड़ों युवा बेरोजगार हैं। लेकिन क्या, युवा बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट डालने के लिए एकमत हैं?

बेरोजगारी का दर्द उस पिता से पूछा जाना चाहिए जो हाथ में डिग्री लिए अपने बेटे से अपने बुढ़ापे का सहारा बनने की आस लगाए बैठा है। इस दर्द को वो माँ बयाँ करेगी जिसने अपने बेटे को सफल होते देखने के लिए न जाने कहाँ कहाँ के पत्थरों पर माथा टेका है।



 

पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार से सटे एक हिस्से को पूर्वांचल कहा जाता है। पिछले कुछ सालों में गाँवो ने जरूर कुछ प्रगति की है। गाँव से शहर को जोड़ने वाली सड़क ने गाँव और शहर के बीच की दूरी को भले ही कुछ कम कर दिया हो पर अब भी रोजगार और बेहतर जीवन प्रत्याशा की ललक नौजवानों को गाँव से शहर की ओर लगातार खींच रही है।

आज़ादी के 70 सालों के बाद भी यहाँ रोजगार के नाम पर खेती के अलावा कुछ खास नहीं है। स्कूल और कॉलेज से निकलने के बाद जो मेधावी हैं वो आगे की पढ़ाई के लिए शहर चले जाते हैं और जो औसत हैं वो लग जाते हैं सरकारी नौकरी की तैयारी में। लगभग हर गाँव में 18 से 22 साल के युवाओं का एक जत्था देखा जा सकता है जो सुबह सुबह अपने सपनों को पंख देने के लिए सड़कों पर निकल पड़ता है। 10 से 12 किमी की दौड़ हो या फिर ऊंची कूद या फिर गोला फेंक ये इनकी दिनचर्या का हिस्सा है।

 

बेरोजगारी क्यों महसूस नहीं होती?

हर जाति, हर वर्ग से ताल्लुक रखने वाले इन बच्चों को पहली नजर में देखकर कोई भी कह सकता है कि ये निहायत ही मेहनती और कर्मठ लोग हैं जिनके लिए जाति सिर्फ ‘बेरोजगार’ और धर्म सिर्फ ‘नौकरी’ है, पर जैसे ही आप इनसे बात करें आपकी समझ गच्चा खा जाएगी। न्यूज़ चैनलों और व्हाट्सएप्प फारवर्ड के रूप में इन बड़े बच्चों को भी कार्टून देखने की सुविधा मिल गई है।

टॉम और जेरी की रेस के ज़रिए इनके मन में ये बात बैठा दी गई है कि इनकी बेरोजगारी का मूल कारण पिछली सरकारें हैं। इनसे ये पूछा जाना चाहिए कि नेहरू ने 70 साल पहले ऐसा क्या किया जिससे आज भी वर्तमान सरकार के हाथ बंधे हैं। बढती जनसंख्या का रोना रोने वालों को बताया जाना चाहिए कि कैसे चीन ने अपनी बड़ी जनसंख्या का फायदा उठाते हुए खुद को मैनुफैक्चरिंग हब बनाया और पूरी दुनिया के बाज़ारों को अपने सामान से भर दिया।

पक्ष और पार्टी से परे बेरोजगारी हर राज्य की समस्या है। एक भी भर्ती या बहाली ऐसी नहीं जो संदेह या कोर्ट के दखल के बगैर पूरी हुई हो। सरकारें दुनिया के सबसे जवान मुल्क के युवाओं को ‘ऐज फ़ॉर ग्रांटेड’ क्यों ले रही हैं? इन युवाओं से पूछा जाना चाहिए कि वे अपना वोट रोजगार, शिक्षा या स्वास्थ्य के मुद्दों पर देते हैं या फिर जाति या धर्म के नाम पर? जिस देश में बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह बाए खड़ी है वहाँ जाति और धर्म की राजनीति क्यों? क्या नफरत से भरी राजनीति में युवा शामिल नहीं? क्या धर्म और जाति की राजनीति करके आप अपनी समस्या का समाधान कर लेंगे? कर लीजिए!

 

क्या आपके व्हाट्सएप ग्रुप में महंगाई की तरह बेरोजगारी को भी जस्टिफाई क़रने वाले मैसेज आते हैं? धर्म के नाम पर आपके व्हाट्सएप ग्रुप में इस कदर नफरत परोसी जा रही है कि कब आपके अपने बच्चे विशाल झा, मयंक रावत और श्वेता सिंह की तरह ‘बुल्ली बाई’ ऐप बनाकर एक खास वर्ग की महिलाओं की बोली लगाने लगे; आपको पता भी नहीं चलेगा।

 

आखिर उन्हें इतनी हिम्मत कहाँ से मिली कि वो किसी महिला की बोली लगाने की जुर्रत करने लगे। किस विचारधारा ने उनके अंदर एक समुदाय के प्रति इतना ज़हर भरा? क्या भारतीय संस्कृति इसी दिन का इंतजार कर रही थी? पड़ताल करेंगे तो पता चलेगा कि यूपी में बी.ए और एम.ए पास लड़के रिकॉर्ड नंबरों में श्रमिक कार्ड बनवा रहे हैं सिर्फ 500 रुपये के लिए। बेरोजगारी का आलम ये है कि किसी तरह युवाओं के अंदर रोजगार मुद्दा न बने इसलिए व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से एक के बाद एक उन्मादी पाठ्यक्रम रिलीज़ किया जा रहा है।

 

क्या रोजगार अब एक मरा हुआ मुद्दा है?

कुल 36 राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में यूपी 32वें पायदान पर है अर्थात् निचले स्तर पर। 23 करोड़ की आबादी में से 15 करोड़ से ज्यादा लोग मुफ्त राशन पर निर्भर क्यों हैं। जब आप इसका जवाब खोजेंगे तो आपको इसका भी जवाब मिल जाएगा कि क्यों यूपी चुनावों में धर्म का नशा चढाया जा रहा है।


जिस राज्य की प्रति व्यक्ति आय निचले पायदान पर हो, जिस राज्य के युवा 500 रुपये वाला श्रमिक कार्ड बनाने के लिए लालायित हों उस राज्य के युवाओं के मुद्दे क्या होंगें ये नेताओं को भली भांति पता होगा। पर क्या फ़र्क पड़ता है। फ़र्क तो तब भी नहीं पड़ा जब क्लास में टीचर नहीं था और लाइब्रेरी में किताबें नहीं थी। चुप रहने की, सहने की और हद दरजे तक खुद को बरबाद कर देने की गज़ब की परंपरा कायम की है हमारे युवाओं ने।


जिस दौर में आपको ये बताने की कोशिश की जा रही है कि पढ़ाई के लिए बाहर (यूक्रेन) जाने के जरूरत ही क्या है उसी समय मगध यूनिवर्सिटी में 3 साल की ग्रेजुएशन 5 साल में भी पूरी नहीं हो पाने के ख़िलाफ़ छात्र संघर्ष कर रहे हैं। बेरोजगारी का दर्द उस पिता से पूछा जाना चाहिए जो हाथ में डिग्री लिए अपने बेटे से अपने बुढ़ापे का सहारा बनने की आस लगाए बैठा है। इस दर्द को वो माँ बयाँ करेगी जिसने अपने बेटे को सफल होते देखने के लिए न जाने कहाँ कहाँ के पत्थरों पर माथा टेका है।

 

 

नींद आने के लिए सैकड़ो दवाईयाँ हो सकती हैं पर ‘बेरोजगारी’ का एक दंश आपकी नींद उड़ाने के लिए काफी है। मेरा सवाल इन माँ बाप से भी है। सच सच बताना क्या आपने इस बार अपने बच्चे के भविष्य के लिए वोट किया है या हर बार की तरह इस बार भी आप अपने आप को उन्मादी बनने से नहीं रोक पाए।