पश्चिम में लोगों की आम राय यह है कि मनुष्य का एकमात्र कर्त्तव्य अधिकांश मानव-जाति की सुखवृद्धि करना है, और सुख का अर्थ केवल शारीरिक सुख और आर्थिक उन्नति माना जाता है। यदि इस सुख की प्राप्ति में नैतिकता के कानून भंग किए जाते है, तो उसकी बहुत परवाह नहीं की जाती। इस विचारधारा के परिणाम यूरोप के चेहरे पर स्पष्ट अंकित हैं।
शारीरिक और आर्थिक लाभ की यह एकांगी खोज़, जो नैतिकता का कुछ भी खयाल रखे बिना की जाती है, ईश्वरी कानून के विरुद्ध है, जैसा कि पश्चिम के कुछ बुद्धिमान मनुष्यों ने बता दिया है। इनमें से एक जॉन रस्किन था। उन्होंने अपनी “अन्टु दिस लास्ट’ नामक पुस्तक में दावा किया है कि मनुष्य तभी सुखी हो सकते हैं, जब वे नैतिक कानून का पालन करें।
दुनिया के सभी धर्मों में सदाचार एक आवश्यक अंग माना गया है, परंतु धर्मों के अलावा हमारी साधारण समझ भी नैतिक नियमों के पालन की आवश्यकता बताती है। उनका पालन करके ही हम सुखी होने की आज्ञा कर सकते हैं।
(रस्किन-कृत अंटू दिस लास्ट के गांधीजी के अनुवाद की भूमिका से, 1959; पृ. 9-11)