चार्ल्स स्विंडौल ने कहा था – “प्रेज्यूडिस इज़ ए लर्न्ड ट्रेट। यू आर नॉट बॉर्न प्रेज्यूडिस्ड, यू आर टॉट इट।” अर्थात्त – “पूर्वग्रह एक सीखा हुआ लक्षण है। आप पूर्वग्रही पैदा नहीं हुए हैं; इसे आपको सिखाया गया है।”
प्रेज्यूडिस और कुछ नहीं बस एक तथ्य विहीन राय है। ऐसी कितनी ही बातें होती हैं जो प्रेज्यूडिस/पूर्वग्रह से भरी हुई होती हैं पर समाज में पूरी स्वीकार्यता से कही और मानी जाती हैं। हर प्रेज्यूडिस किसी न किसी स्टीरियोटाइप से जन्म लेता है। स्टीरियोटाइप जैसे:
“तुम्हारे 82% आए हैं, साइंस लो, आर्ट्स ले कर नॉवेल लिखना है? नाक कटवाओगे मेरी” :- बच्चे के दसवीं के मार्क्स से गर्वित लेकिन आर्ट्स के प्रति उसके रुझान से फिक्रमंद एक पिता।
आर्ट्स का नाक कटने से जो सम्बन्ध इस पिता ने अपने ज़हन में बना रखा है उस में तथ्य कुछ नहीं है, सिर्फ़ एक खोख़ली राय है। सचिन तेंदुलकर दसवीं पास थे। रबीन्द्रनाथ टैगोर जैसे विद्वान् ने आर्ट्स के एक नहीं कई रूपों में अभूतपूर्व योगदान दिया – लेखन, काव्य, नाटक, संगीत, पेंटिंग।
“अरे इस डॉक्टर को कुछ नहीं पता, लगता है आरक्षण का फ़ायदा उठा कर आया है” :- रोग से कम और आरक्षण से ज़्यादा “रुग्ण” एक जनरल वर्ग का रोगी।
यहाँ दिक़्क़त आरक्षण से इसलिए है क्यूंकि हमारे आस पास का परिवेश हमारे अंदर यह भर देता है कि आरक्षित जनों के पास अक़्ल नहीं होती। और फिर यह पूर्वग्रह ही नस्लीय भेदभाव को जन्म देता है। हज़ारों साल तक जानवरों की तरह फ़िर भेदभाव होता है जिस से बचाव के लिए फ़िर अंबेडकर आरक्षण लाते हैं। भेदभाव मन में है इसीलिए उसका बचाव (आरक्षण) कानून में लाया गया है।
तो आज अगर राइट विंग आरक्षण हटाने की बात करती है तो वो इसलिए नहीं कि उन्हें समानता चाहिए बल्कि ये बात नौकरी या कॉलेज सीट हाथ से निकल जाने की असुरक्षा से अधिक और कुछ नहीं है। तो जाति पहले मन से हटाइये उसके बाद आरक्षण संविधान से हटाइये।
“बुर्का नहीं तो क्या बिकिनी पहन लें, हिन्दुओं में घूंघट भी तो कुछ सोच कर ही लिया जाता है” – बुर्के और घूंघट दोनों के पक्ष में दलील देता हुआ एक मुस्लिम युवक जिसे बुर्के और बिकिनी के बीच में कोई और लिबास ही नहीं पता।
इसे मैं “कनविनिएंट नेशनलिज़्म” कहता हूँ कि बीजेपी का विरोध आप इसलिए तो कर रहे हैं कि वो मुस्लिम विरोधी है पर जहाँ बात बुर्के पर आयी वहां आपको घूंघट भी जायज़ लगने लगा। पर इन सबके बीच उस भेदभाव का क्या जो आप महिला के साथ कर रहे हैं बुर्का और घूंघट पहना कर?
“घर संभालना भी एक काम ही है, नौकरी क्यों करनी फिर?”: – अमेरिका में रहने वाली बी.टेक पत्नी का बी.टेक पति।
यह पतिदेव बोलना असल में यह चाहते थे कि “औरत का काम है घर पर रहना, वो तो ठीक है की पढ़ाई का शौक़ था तो बी.टेक कर लिया”, पर अपनी इमेज प्रोग्रेसिव दिखानी होती है तो बोल नहीं सकते। और इसी तरह से फ़िर ये स्टीरियोटाइप पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है और अगर आगे चल कर महिला नौक़री करने की अपनी इच्छा को मज़बूती से जब रखती है तो ज़हन में उसके ख़िलाफ़ एक प्रेज्यूडिस बन ने में देर नहीं लगती।
“4 बच्चे? इतने बच्चे तो मुसलमानों के ही होते हैं ” – 5 सिख भाइयों और 2 बहनों की तीसरी बहन। ऐसी ही एक और धारणा है कि हर मुस्लिम की 4 पत्नियां होती हैं। इस तरह की तमाम भ्रांतियों से फ़िर पूर्वग्रह जन्म लेता है जो हमें यह यक़ीन दिला देता है कि मुस्लिम समाज में ग़रीबी, आबादी, अपराध इत्यादि की यह ही वजहें हैं। और ऐसे ही पूर्वग्रह फ़िर धार्मिक भेदभाव का रूप ले लेते हैं। आज दक्षिणपंथी (राइट विंग) विचारधारा के चरम दौर में हम इस भेदभाव की अलग अलग अभिव्यक्तियां देख ही रहे हैं।
तो क्रोनोलॉजी समझिये – स्टीरियोटाइप कब प्रेज्यूडिस बन जाता है और वो प्रेज्यूडिस कब फ़िर भेदभाव की शक़्ल ले लेता है इसे समझने और इसके निवारण में पीढ़ियां निकल जाती हैं। इसे और गहराई से समझें तो स्टीरियोटाइप एक सोच के स्तर पर हमारे अंदर आती है, वक़्त बीतने के साथ वो फिर प्रेज्यूडिस बन कर भावुक स्तर पर हमें जकड़ती है, और उसी भावुकता में फ़िर हम उस प्रेज्यूडिस को भेदभाव के रास्ते से अमली स्तर पर लाते हैं।
जाति, लिंग, भाषा, धर्म वगैरह के आधार पर जो पूर्वग्रह हम ने अपने माहौल से आत्मसात किये हैं उन्हें हमें ख़ुद ही समझ कर आगे की पीढ़ियों में जाने से रोकना है। यह सरकार या मंदिर मस्जिदों गुरद्वारों का नहीं बल्कि हर किसी का व्यक्तिगत दायित्व है। तो किसी और नहीं तो कम से कम आने वाली पीढ़ी के लिए ही यह करिये क्यूंकि हम बनाम वो (Us v/s Them) की कश्मक़श में कब कौन किस पाले में होगा यह कोई नहीं जानता।