‘प्यासा’ और ‘रॉकस्टार’: सामाजिक वास्तविकताओं को उकेरती कहानियाँ

हम प्रशासनिक ग़ुलामी से तो आज़ाद हो गए थे लेकिन सामाजिक और व्यक्तिगत बेड़ियों से नहीं। सामंती मानसिकता, जातिवाद, अमीर-ग़रीब का फ़र्क़, धार्मिक उन्माद, जो सदियों से मज़बूती से टिके हुए थे, वह एक दशक में कैसे जा सकते थे?

हम प्रशासनिक ग़ुलामी से तो आज़ाद हो गए थे लेकिन सामाजिक और व्यक्तिगत बेड़ियों से नहीं। सामंती मानसिकता, जातिवाद, अमीर-ग़रीब का फ़र्क़, धार्मिक उन्माद, जो सदियों से मज़बूती से टिके हुए थे, वह एक दशक में कैसे जा सकते थे? और साथ में उपजी नई समस्याएं – कृषि संकट, बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण – हमें पीछे खींच रही थीं।



ज़माने पहले गुरु दत्त की फ़िल्म प्यासा देखी थी – शायद 2010 में। एक साल बाद 2011 में रणबीर कपूर की फ़िल्म रॉकस्टार देखी।

क्योंकि प्यासा देखे ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था तो अनायास ही दोनों फ़िल्मों के मुख्य पात्रों – प्यासा के विजय और रॉकस्टार के जॉर्डन – में एक समानता दिखी; उन दोनों में एक ख़लिश और दुनिया और दुनियादारी से उठ चुके मन की मायूसी थी। फ़ौरी तौर पर उस ख़लिश के कारणों को सोचना मुश्किल नहीं है – बड़े भाइयों की बेरुखी, दुनिया-से-प्यार-है-भी-और-नहीं-भी की कश्मकश, अंदर की कला और कलाकार को समाज से इज़्ज़त और तवज्जो की दरकार, अधूरी मोहब्बत और मौकापरस्त व्यापारी द्वारा शोषण।

लेकिन इन सब से पहले मैं मानता हूँ कि उन सारी मायूसियों का सरोकार उनके वक़्त के सामाजिक और आर्थिक हालातों से है। और वैसे भी कहते हैं कि फिल्में समाज का आईना होती हैं क्योंकि वो अपने वक़्त के तमाम समीकरणों से ही उपजी हुई होती हैं। तो दोनों फ़िल्मों में चाहे बड़े भाइयों की बेरुखी हो या इज़्ज़त से महरूम कलाकार, अधूरी मोहब्बत हो या मौकापरस्त व्यापारी – यह सब उन सामाजिक और आर्थिक हालातों के लक्षण हैं, असल कारण नहीं।

प्यासा

प्यासा शुरू होने के कुछ देर में एक सीन है जहां एक प्रकाशक विजय से कहता है “आपकी बकवास कोई शायरी है? पड़ गए भूख और बेरोज़गारी के पीछे लट्ठ ले के। जनाब, शायरी नाम है नज़ाकत का, गुल-ओ-बुलबुल पर शेर कहिये, जाम-ओ-सुराही पर शेर कहिये। आप शायरी करते हैं या हजामत?”। एक शायर अगर भूख और बेरोज़गारी पर लिख रहा है तो यह माना जा सकता है कि उसके अंदर समाज के इन मुद्दों पर कुछ तो बौद्धिक समझ होगी ही। और उस बौद्धिक समझ को अगर हजामत कह कर खारिज़ किया जाना और उसकी सही और ग़लत की समझ को बकवास कह कर दुत्कारना बेशक एक कुंठा को जन्म देगा ही।


आज़ादी से सिर्फ़ 10 साल बाद, सन् 1957 में आई प्यासा विश्व की महत्वपूर्ण फ़िल्मों में से है। असल में वह दौर भी महत्वपूर्ण था। 1947 की आज़ादी के वक़्त भारत ने एक सपना देखा था – कि सदियों की ग़ुलामी के बाद देश एक जुट हो कर एक क़ामयाब लोकतंत्र बनेगा जिसकी बुनियाद सामाजिक समानता और धार्मिक निरपेक्षता पर होगी। नई सरकार, नए संस्थान, नई संभावनाएँ थीं। खेती, उद्योग, शिक्षा, सरकारी मशीनरी, सेनाएँ वगैरह में नई नीतियों और घोषणाओं के चलते नया जोश था।


पर एक अहम कड़ी नहीं थी।

हम प्रशासनिक ग़ुलामी से तो आज़ाद हो गए थे लेकिन सामाजिक और व्यक्तिगत बेड़ियों से नहीं। सामंती मानसिकता, जातिवाद, अमीर-ग़रीब का फ़र्क़, धार्मिक उन्माद, जो सदियों से मज़बूती से टिके हुए थे, वह एक दशक में कैसे जा सकते थे? और साथ में उपजी नई समस्याएं – कृषि संकट, बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण – हमें पीछे खींच रही थीं। आज़ादी के मायनों में देश आगे तो बढ़ रहा था पर समाज में एक निराशा और खिंचाव जगह बना रहे थे। इसे आज के दौर में भी देखा जा सकता है जब दावे 5 ट्रिलियन के हों पर सामाजिक ताना-बाना दिन-ब-दिन टूटता जा रहा है। हुक्मरानों की मनलुभावनी बातों और उस वक़्त की असल सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वास्तविकता के बीच एक गहरी खाई, एक अंतर्विरोध (contradiction)।

और बिल्कुल यही हमें प्यासा के विजय में दिखता भी है जब वह कहता है कि “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं”? यह सवाल वो ख़ुद से और समाज से इसीलिए पूछ रहा है क्योंकि वो देख रहा था की आज़ादी के वक़्त जो वादे किए गए थे उनके सिपहसालार उन्हें मुकम्मल नहीं कर पा रहे। दिखाए हुए सपने और किये हुए वादे अमली शक़्ल ना लें तो मायूसी लाज़िमी है। और इस में अगर सामाजिक और पारिवारिक तिरस्कार जोड़ दें तो विजय का कहना कि “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” भी उतना ही लाज़िमी है।

 

समाज के सपने भव्य थे तो उनका टूटना भी उस वक़्त के फिल्मकारों ने एक बड़े स्तर अपनी कहानियों में दिखाया – राज कपूर (जागते रहो 1956), बिमल रॉय (दो बीघा ज़मीन 1953), गुरु दत्त (प्यासा 1957), सब ने।

 

“प्यासा” सामाजिक हलचल के अलावा विजय की अपनी ख़ुद की भी प्यास की कहानी है – मीना की मोहब्बत, अपने हुनर की सामाजिक स्वीकार्यता की और दुनिया दुनियादारी के मायनों को समझने की प्यास। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसकी नैतिक दुविधा और अंतहीन निराशायें उस दुनिया के बारे में है जिसके तौर तरीके वह समझ नहीं सकता है। और विजय की निराशा और मोह भंग भी ऐसा कि वह गुलाबो के प्यार तक को वापस प्यार नहीं दे सकता। अधूरी मोहब्बत के अलावा विजय की ज़िंदगी में एक मौकापरस्त प्रकाशक भी है जो समाज के अपराध बोध को भुनाते हुए विजय की कविताओं को बेचता है। और ऐसे भाई भी हैं जो पैसों के लिए अपने सगे भाई को ही पहचानने से इंकार कर देते हैं।

समाज की इतनी नग्न सच्चाइयाँ देख लेने के बाद अंदर के गुस्से के उफ़ान का अंदाज़ा विजय की इस बात से लगाया जा सकता है जब वह कहता है कि “जला दो इसे, फूंक डालो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया, तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?”।

रॉकस्टार

जहाँ प्यासा में विजय का जीवन यात्रा सुकून, सच्चाई और समानता की खोज की थी वहीँ रॉकस्टार की भी पूरी कहानी जॉर्डन के समाज की अलग अलग ताक़तों के ख़िलाफ़ अंतहीन संघर्ष की है। एक बे-दिल परिवार, एक चालाक म्यूजिक प्रोड्यूसर, अधूरा इश्क़ और मीडिया, पुलिस और कानून।


रॉकस्टार की शुरुआत रणबीर के एक डायलॉग से होती है – “पता है? यहाँ से बहुत दूर, ग़लत और सही के पार, एक मैदान है, मैं वहां मिलूंगा तुझे”। यहीं से फ़िल्म का एक दिशा तय हो जाती है की अपनी सही और ग़लत की समझ को ले कर जॉर्डन कितना आश्वस्त है। (और शायद कुंठित भी?)


यह फ़िल्म 1950 के दशक की नहीं है, बल्कि तब की है जब इंटरनेट है, तेज़ी है, ब्रांडिंग है, ब्रांडिंग का बेशुमार दबाव है लेकिन कहानी के कुछ शाहकार वही हैं जो 1950 की राज कपूर, गुरु दत्त और बिमल रॉय की कहानियों में भी थे – अधूरा प्यार, दौलत बेशुमार, कलाकार को अस्तित्व और तवज्जो की दरकार और जॉर्डन का दुनिया के तौर तरीकों को इंकार।

जॉर्डन एक साधारण परिवार से हैं जहाँ संगीत के प्रति उसके लगाव को समझने वाला कोई नहीं। घर से निकाले जाने और दरगाह में शरण लेने के बाद उसे अपना एक वजूद मिलता है जो उसके संगीत को एक आधार देता है। संगीत कंपनी के मालिक मिस्टर ढींगरा द्वारा प्राग भेजे जाने अपने अधूरे इश्क़ हीर से उसकी मुलाक़ात तो होती है पर समाज के रिवाज़ों में ब्याहता हीर और जॉर्डन के मिलन को कोई जगह नहीं है, चाहे हीर ख़ुद मन ही मन दोबारा जॉर्डन की हो चुकी है। अंततः हीर शादी तोड़ते हुए जॉर्डन के साथ हो तो जाती है लेकिन रिवाज़ों के दरवाज़े फ़िर से बंद मिलते हैं जब हीर गर्भवती होने के साथ साथ बीमार भी होती है। रिवाज़ों, पुलिस, कानून और मीडिया से अपने संघर्ष के दौरान जॉर्डन के संघर्ष और गुस्से की ब्रांडिंग कर के अपना फ़ायदा बनाता है ढींगरा। इस गुस्से की वेदना को जॉर्डन कुछ ऐसे बयां करता है –

सौ दर्द बदन पर फैले हैं,
हर करम के कपड़े मैले हैं।

प्यासा में जहाँ वो गहरी खाई देश के सपनों और देशवासियों की ज़मीनी हक़ीक़त के बीच थी, रॉकस्टार में वह खाई कॉर्पोरेट के बेशुमार पैसों और युवा की ख़ुशियों के बीच है। विजय व्यक्तिगत और आर्थिक संघर्षों से होते हुए जिस तरह सामाजिक-राजनीतिक-आध्यात्मिक चेतना के शिखर तक पहुँचता है वैसा सफ़र जॉर्डन का जनार्दन जाखड़ से जॉर्डन बनने तक का है। मूलतः कहें तो चेतना का शून्य से शिखर तक का सफ़र।

 

“जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं” में विजय के राजनीतिक-सामाजिक पहलू कुछ वैसे ही हैं जैसे जॉर्डन के “साड्डा हक़” में जहाँ 3 प्रमुख मुद्दों के दृश्य हैं – कश्मीर और पंजाब के मसले और तिब्बत पर चीन का आधिपत्य। दोनों गीतों के शब्द और दृश्य सरकारों के मीठे तानो बानों की सच्चाई उजागर करते हैं।

 

सिर्फ़ राजनीतिक चेतना नहीं बल्कि दोनों फिल्मों में दोनों नायकों की अपनी कहानी भी एक से फलसफ़े पर ख़त्म होती है –

विजय के शब्दों में – “वह समाज छोड़ देना चाहता है जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है, मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना और दोस्त को दुशमन बनाता है…..जहाँ मुर्दों को पूजा जाता है और जिंदा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है…”, वह ऐसी दुनिया में जाना चाहता है जिसे उसे फ़िर से छोड़ कर ना जाना पड़े।

हीर और जॉर्डन ऐसी दुनिया में हैं जहाँ और कोई नहीं है, कोई जर्नलिस्ट नहीं, कोई सोसाइटी नहीं, ना रूल्स, ना हॉस्पिटल, कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं, ना कोई कोर्ट केस, ना हीर की शादी, कोई रोक नहीं, कोई दायरा नहीं – और जहाँ के बहार जॉर्डन अब रह नहीं सकता।

दोनों फिल्मों के ऊपर कहे दोनों डायलॉग के शब्दों में विजय और जॉर्डन की पिछली दुनिया की ख़लिश और नई दुनिया का सुकून समझना मुश्किल नहीं।

 

सतनाम सिंह

(यह लेखक के निजी विचार हैं)