राजनैतिक औजार के रूप में दंगे!

दंगे हो कर सिर्फ़ ख़त्म नहीं हो जाते। बल्कि एक चेन रिएक्शन की तरह पीढ़ियों तक ज़ख्म देते रहते हैं।

“दंगे” शब्द मोटे तौर पर आज सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम के सन्दर्भ में देखा जाता है। पर हमेशा से ऐसा नहीं था।

क़रीब 100 साल पहले, 1921 में, जब देश भर में गाँधी जी का असहयोग आंदोलन चल रहा था, तब इंग्लैंड के उस वक़्त के राजकुमार एडवर्ड के भारत आगमन पर पारसियों, यहूदियों और एंग्लो-इंडियन अल्पसंख्यकों के कई सदस्यों ने उन का स्वागत किया।जिसके विरोध में एक तरफ़ गांधी समर्थक हिंदुओं और मुस्लिमों और दूसरी तरफ़ पारसियों, यहूदियों और एंग्लो-इंडियन अल्पसंख्यकों के बीच में दंगे हुए। इतिहास में यह प्रिंस-ऑफ-वेल्स दंगों के नाम से दर्ज है।

 

जी! हिन्दू और मुस्लिम एक तरफ़। भारतवर्ष ने वो समय भी देखा है जब यह दो बड़े समुदाय किसी दंगे में एक तरफ़ थे।

 

पर उस समय यह ख़िलाफ़त अंग्रेज़ों के सन्दर्भ में थी। जिस एडवर्ड का शांतिपूर्वक बहिष्कार करने की अपील गांधी जी ने की थी, उसी का स्वागत पारसियों, यहूदियों और एंग्लो-इंडियन अल्पसंख्यकों के कुछ सदस्यों द्वारा किया जाना – यह गांधी समर्थकों के रोष का कारण बना और गांधी जी की शान्ति की अपील को दरक़िनार करते हुए गांधी समर्थक हिन्दू और मुस्लिम एक तरफ़ से लड़े। लूटपाट, आगजनी और हत्याएं हुईं।

 


आज सन्दर्भ बदल चुके हैं। नहीं ऐसा नहीं है कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे राइट विंग के आने के बाद ही शुरू हुए। 1969 गुजरात, 1980 मुरादाबाद, 1984 भिवंडी, 1984 सिख विरोधी, 1989 भागलपुर, 1989-90 कश्मीर, 1992 मुंबई, 2002 गुजरात, 2013 मुज़फ्फरनगर – ऐसे तमाम उदाहरण हैं।। पर पिछले कुछ दशकों में दंगों के मायने बदल चुके हैं। और पिछले एक दशक में तो दंगों के तरीक़े और रूपरेखा भी।


 

दंगा या “पॉलिटिकल कंस्ट्रक्ट”?

सांप्रदायिक दंगे सम्प्रदाय से नहीं बल्कि “पॉलिटिकल कंस्ट्रक्ट” से उपजते हैं। 1921 में जब हिन्दू मुस्लिम एक तरफ़ से लड़ रहे थे उसके कुछ ही सालों बाद जैसे जैसे आज़ादी के हम क़रीब थे, हिन्दू और मुस्लिम में परस्पर वैमनस्यता आ चुकी थी और वो धर्म से नहीं उस समय की राजनीतिक पैंतरेबाजी से पैदा हुई थी। जो आज तक है। बहुसंख्यवाद हमेशा एक सा नहीं रहता। बदलते समीकरणों के साथ बदलता है। वैसा ही बदलाव जैसा की प्रिंस-ऑफ़-वेल्स और उसके बाद के दंगों में हिन्दू-मुस्लिम एकता में देखने को मिला।

सिर्फ़ इंसानियत है जो पाले नहीं बदलती।

समाज में दंगों को जब एक औज़ार के रूप में स्वीकृति मिल जाती है तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि 1984 सिख-विरोधी दंगे, एक पार्टी का नहीं एक बेटे का निर्णय था जो अपनी माँ की हत्या से आक्रोशित था और जिसके हाथ में नयी नयी सत्ता आयी थी पर 1992 के दंगे एक समूह की जुर्रत।

ग़लत दोनों थे।

दंगा एक चेन रिएक्शन 

दंगे हो कर सिर्फ़ ख़त्म नहीं हो जाते। बल्कि एक चेन रिएक्शन की तरह पीढ़ियों तक ज़ख्म देते रहते हैं क्यूँकि दंगों में लिप्त नेता, प्रशासन और दंगाइयों के बाद जो रह जाता है वो है पीड़ित, जो नेताओं और प्रशासन के हाथों ठगा हुआ महसूस करता है। ग़लती किस की थी, शुरुआत किसने की – इसका प्रारंभिक छोर वक़्त की सिलवटों में खो जाता है।

 

इस से फ़िर फ़र्क नहीं पड़ता कि गांधी परिवार ने 1984 के लिए माफ़ी मांगी, बल्कि इस से पड़ता है कि 38 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। या फ़िर वो माफ़ी न्याय देने से इंकार करने का एक तरीक़ा थी? इस से फ़िर फ़र्क नहीं पड़ता कि 2002 के लिए सद्भावना व्रत किया गया बल्कि इस से कि उन दंगों के बाद पीड़ितों को न्याय, इलाज और नौकरियों का प्रावधान होता। राज धर्म यह ही तो होता है , चाहे विंग राइट हो या लेफ्ट।

 

पॉलिटिकल कंस्ट्रक्ट से दंगे जन्म अवश्य लेते हैं पर कुछ और भी आयाम जुड़े होते हैं – जैसे कि सामाजिक, ऐतिहासिक, आर्थिक। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था कि “अ रायट इज़ द लैंग्वेज ऑफ़ द अनहर्ड”। तो दंगाइयों के जो भी पहलू हों, चाहे सामाजिक हों या ऐतिहासिक या आर्थिक, अगर वो सरकार और प्रशासन द्वारा अनसुने नहीं रह जाते तो वो दंगाई नहीं बनते, धर्म और जाति के नाम पर सुध नहीं खो देते।

 

तो कोई नेता स्टेज पर चढ़ कर सरे आम “देश के ग़द्दारों को, गोली मारो …को” नहीं कहता। वो ऐसा इसलिए कह पाता है क्योंकि वो जानता है कि जो यह सुन और मान रहे हैं उन्हें सुध ही नहीं है कि ग़द्दारों को सज़ा देने की जिम्मेदारी कानून की है, और किसी की नहीं।

 

 

जंग का रंग सुनहरा समझा, लेकिन बाद में गहरा समझा।
जंग का रंग तो काला रे।
– ब्लैक फ्राइडे