पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफ़रसन को लगता था कि राष्ट्रों के लिए “स्वतंत्र मीडिया ही एक मात्र सुरक्षा है”, उनको ये भी लगता था कि यदि उन्हें समाचार पत्रों के बिना सरकार और सरकार के बिना समाचार पत्र में से एक का चुनाव करना हो तो वो दूसरा विकल्प ही चुनेंगे। लेकिन शायद दुनिया भर की सरकारें उनसे बिल्कुल सहमत नहीं है और इसी का परिणाम है पेगसस स्पाइवेयर। जासूसी के हथियार ‘पेगसस’ और उसकी पेरन्ट कंपनी NSO ने एक महायुद्ध को जन्म दे दिया है जिसमें राष्ट्रों के स्वतंत्र नागरिकों की निजता की बलि चढ़ाई जानी है। भरोसा करना कठिन है कि जबकि हम पाषाण युग जैसे काल में न होकर आज सभ्यता के उच्च पायदान पर हैं, जहां मानवाधिकारों को सभी अधिकारों के मुकाबले उच्च दर्जा प्राप्त है, जिस दौर में संयुक्त राष्ट्र जैसे महासंगठन वैश्विक दिशानिर्देश तय कर रहे हैं, विभिन्न शक्तिशाली राष्ट्र लोकतंत्र का पालन कर रहे हैं; ऐसे दौर में NSO के स्पाइवेयर ‘पेगसस’ को मात्र एक सॉफ्टवेयर माना जा रहा है। जबकि उसके कार्यों के आधार पर पेगसस को एक आतंकवादी हथियार और इस कंपनी को एक आतंकवादी संगठन के रूप में वर्णित किया जाना चाहिए।
“दुनिया में किसी ताकतवर देश को इस बात से शायद ही कोई आपत्ति हो; क्योंकि कौन सी वैश्विक ताकत नहीं चाहेगी कि हिन्द महासागर में एक जबरदस्त सामरिक स्थिति रखने वाला एक विशाल देश सिर्फ एक भूखंड बनकर रह जाय ताकि समय समय पर उसका इस्तेमाल किया जा सके. मैं पुख्ता तौर पर तो नहीं कह सकती कि क्या होगा पर ऐसा हो सकता है कि हम उधार के धन से थोडा धनी हो जाएँ पर यह धन हमारी राजनैतिक स्वतंत्रता को बेचने के बाद पैदा हुई सम्पन्नता का प्रतीक होगा. हम अपने देश में अपने ही मुट्ठी भर लोगों द्वारा गुलाम बना दिए जायेंगे. अगर किसी को लगता है कि उस समय भारत का कोई धर्म होगा तो वो बिलकुल सही है, भारत में सिर्फ एक धर्म का शासन होगा जिसका नाम है ‘गुलाम धर्म’. जो लोग गुलामी के मंदिरों/पूजागृहों में माथा नहीं टेकेंगे उन्हें ख़त्म कर दिया जायेगा”
जो कंपनी अपने उत्पाद को ‘संप्रभु’ देशों को ही बेचे जाने के नाम पर चंद लोगों के हाथों में अरबों लोगों की निजता को बेच रहा है, उसका उद्देश्य सामान्य नहीं हो सकता। NSO कहता है कि पेगसस आतंकवाद से निपटने के लिए संप्रभु सरकारों को दिया गया है तो मैं यह कहना चाहूँगी कि आतंकवाद से लड़ने का इससे घटिया और विध्वंसकारी तरीका कुछ और नहीं हो सकता। एक अदृश्य और सफेदपोश आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए ऐसे तर्कों को खारिज किया जाना चाहिए, संयुक्त राष्ट्र महासभा इसे क्यों खामोशी से देख रही है इस बात पर भी प्रश्न उठाया जाना चाहिए। जिस विश्व में निशस्त्रीकरण संधि, NPT, CTBT और MTCR जैसे प्रोटोकॉल दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए किए जा रहे हैं, वहाँ पेगसस जैसे हथियारों को किस आधार पर छूट दी रही है। खुलेआम सफेदपोश ‘एंजेल’ इन्वेस्टर्स और वेन्चर कैपिटलिस्ट इस तकनीकी डायनासोर पर पैसा लगा रहे हैं, बिना इसकी परवाह किए कि जिस दुनिया को इतने विध्वंसक युद्धों और तानाशाहियों के बाद बनाया और बचाया गया वो एक बार फिर गर्त में जा सकता है। लगभग सभी लोकतान्त्रिक सरकारें कमोबेश यही चाहती हैं कि वो सत्ता में चुनाव जैसे कानूनी माध्यम से हमेशा बनी रहें जिससे उन पर कोई प्रश्न न उठाया जा सके और पेगसस इन सरकारों को ऐसी छूट प्रदान करता है ताकि उनके रास्ते पर आने वाली किसी भी नागरिक शक्ति को आसानी से जासूसी के माध्यम से कुचला जा सके।
“सरकार को बहुतायत में लकवा खाए हुए नागरिकों की जरुरत है जिनमें सिर्फ वो सोचने का सामर्थ्य हो जो उन्हें सोचने को कहा जाय. ऐसे नागरिक जो चलायमान किन्तु ‘आत्ममृत’ हों”
भारत भी इससे अछूता नहीं है, क्योंकि भारत तो इस समय अपने ‘अस्तित्त्व की समस्या’ से गुजर रहा है। भारतीय लोकतंत्र के चार स्तंभों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व मीडिया को मिलकर भारत के अस्तित्त्व को स्थायित्त्व प्रदान करना है। भारत के अस्तित्त्व को तभी ख़त्म किया जा सकता है जब भारत को स्थायित्त्व प्रदान करने वाले इन स्तंभों को या तो कमजोर किया जाए या फिर इन्हें तोड़ दिया जाए. वर्तमान सरकार और उसके ताकतवर कलपुर्जे इस समय लोकतंत्र की अदृश्य इमारत के सामने विशालकाय हथौड़ों को लेकर खड़े हैं और लगातार एक स्तम्भ, मीडिया, को उखाड़ फेंकना चाहते हैं और उसकी जगह एक अत्यंत मोटा और आकर्षक दिखने वाला किन्तु अन्दर से खोखला स्तम्भ स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. इस खोखले स्तम्भ को न जमीन दी जाएगी और न ही छत यह बीच में लटका रहेगा. आनेवाली पीढियां इसे भारत की बर्बादी के एक शानदार आर्किटेक्चर के रूप में जानेंगी। इस स्तम्भ के समाप्त होते ही विधायिका और न्यायपालिका अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष करते हुए अपनी जान गँवा देंगे और तब भारत एक लोकतान्त्रिक कार्यपालिका के रूप में जाना जाएगा. जिसमें चुनाव तो होंगे लेकिन संसद नहीं होगी कोई बहस नहीं होगी कोई प्रश्न नहीं होगा, क्योंकि चुनकर आने वाले लोग सिर्फ एक दल से होंगे और उन सभी को कोई न कोई सरकारी कुर्ता जरुर पहनाया जायेगा इस तरह भारत एक कार्यपालिका लोकतंत्र के रूप में स्थापित हो जायेगा. दुनिया में किसी ताकतवर देश को इस बात से शायद ही कोई आपत्ति हो; क्योंकि कौन सी वैश्विक ताकत नहीं चाहेगी कि हिन्द महासागर में एक जबरदस्त सामरिक स्थिति रखने वाला एक विशाल देश सिर्फ एक भूखंड बनकर रह जाय ताकि समय समय पर उसका इस्तेमाल किया जा सके. मैं पुख्ता तौर पर तो नहीं कह सकती कि क्या होगा पर ऐसा हो सकता है कि हम उधार के धन से थोडा धनी हो जाएँ पर यह धन हमारी राजनैतिक स्वतंत्रता को बेचने के बाद पैदा हुई सम्पन्नता का प्रतीक होगा. हम अपने देश में अपने ही मुट्ठी भर लोगों द्वारा गुलाम बना दिए जायेंगे. अगर किसी को लगता है कि उस समय भारत का कोई धर्म होगा तो वो बिलकुल सही है, भारत में सिर्फ एक धर्म का शासन होगा जिसका नाम है ‘गुलाम धर्म’. जो लोग गुलामी के मंदिरों/पूजागृहों में माथा नहीं टेकेंगे उन्हें ख़त्म कर दिया जायेगा. यह कोई राजनैतिक गल्प नहीं भारत का वर्तमान रास्ता है. यह देश और इसके आकाओं का इतिहास यही रहा है कि यदि लोगों ने नहीं रोका तो आका जितना नवाचार शोषण के तरीकों में कर सकते हैं, उसकी कल्पना भी नामुमकिन है. आप खुद सोचिये ऋग्वैदिक काल की ‘सभा’ और ‘समिति’ आगे ख़त्म कर दी गयीं, बाद में जानबूझकर जाति प्रथा आ गई, मन नहीं भरा तो शूद्र के बाद ‘अछूत’ को जन्म दे दिया. ऋग्वैदिक काल की अपाला, घोषा की सशक्त स्थिति और मध्यकाल में मीरा की पितृसत्ता को चुनौती के बावजूद ‘सती प्रथा’ में महिलायें जिन्दा जलायी गईं. जिन शूद्रों और महिलाओं को पहले वेद पढने नहीं दिया गया, उन्हें बाद में पुराण भागवत लिखकर चुप कराया गया कि इसे ये दोनों वर्ग पढ़ भी सकते थे और सुन भी सकते थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में छीनकर ‘प्रदान’ करने को एहसान के रूप में, उदारता के रूप में वर्णित किया जाता रहा है. यह सच है कि भारत का मूल चरित्र उदार है व्यापकता लिए हुए है लेकिन जब-जब किसी को भगवान माना गया, चाहे कोई व्यक्ति हो या पुस्तक, उसने ‘भक्तों’ का ही शोषण करना शुरू कर दिया, यदाकदा को छोड़ दें तो यहाँ शायद ही कभी शोषण के खिलाफ नागरिक विद्रोह किया गया होगा, विशेषकर अपने देश के सत्ता और प्रतिष्ठाओं के खिलाफ. शोषण तब तक नहीं रुके जब तक किसी ने राजा राम मोहन राय की तरह आकर अपनी मजबूत टांगों से शोषण को औंधे मुंह नहीं पटक दिया. आज जो चल रहा है वो भी रुक सकता है, इसके लिए सभी को सरकार के झूठ, शोषण, कुर्सीलोलुपता और गुलाम बना देने की मानसिकता को औंधे मुंह पटकने के लिए संगठित होना पड़ेगा. क्योंकि वर्तमान सरकार लोकतंत्र की संस्थाओं और स्तंभों को ख़त्म कर भारत को लकवाग्रस्त करना चाह रही है, वास्तव में यह सरकार राष्ट्र/भारतमाता(भारत की जनता ) के साथ द्रोह कर रही है. सरकार को बहुतायत में लकवा खाए हुए नागरिकों की जरुरत है जिनमें सिर्फ वो सोचने का सामर्थ्य हो जो उन्हें सोचने को कहा जाय. ऐसे नागरिक जो चलायमान किन्तु ‘आत्ममृत’ हों. इन दिनों भगवान्, भक्ति, अशिक्षा और गलत सूचनाओं के कैंसर ने देश को इस दिशा में प्रकाश के वेग से आगे बढ़ाया है.
देश के नेताओं को भगवान मानने का हर्ष, मौत की पीड़ा को पार कर गया है, जहां फूटी हुई शिक्षा व्यवस्था से ज़्यादा मंदिर को लेकर उत्तेजना हो, जहाँ अस्पतालों में लगी लाइन और व्याप्त भ्रष्टाचार सामाजिक शिष्टाचार बन चुका हो वहाँ किसे फिक्र है कि कोई उसकी बातें सुन रहा है या उसकी प्राइवेसी ख़त्म हो रही है या उसे चुपके से देखा या सुना जा रहा है। उसके देश के पत्रकारों(सूचना क्रांतिकारियों) का दमन किया जा रहा है उसे कुछ समझ नहीं आता कि सरकार स्टंट कर रही है या सच बोल रही है, ग़रीबी और लाचारी के कारण अभी भी धर्म और जाति के सामने लड़ने की हिम्मत नहीं है।
‘हम भारत के लोग’ सिर्फ़ दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ हिमालय के मालिक ही नहीं अब हिमालय से भी ऊँची असंवेदनशीलता के रक्षक भी हैं, क्योंकि यहाँ दर्द और उत्पीड़न का आँकलन जाति और धर्म के आधार पर लगाया जाता है। पेगसस मामले में सरकार का डिनाइयल मोड भारतीय जनमानस की निष्क्रिय संवेदना का मूर्त किंतु शक्तिसंपन्न स्वरूप है। किस हिम्मत के साथ एक राज्य का मुख्यमंत्री अपराधियों से लड़ने के बहाने लोगों की सम्पत्ति सीज करने की धमकी देता है, किस हिम्मत से बिना साबित सिर्फ़ शक के आधार पर आरोपियों की फ़ोटो राजधानियों में लगवाता है, किस आधार पर अपराधियों के एंकाउंटर और प्रदेश को सुरक्षित रखने के नाम पर हत्या करवाता है, किस हिम्मत से एक देश का प्रधानमंत्री उस झूठ को भारत के लोकतांत्रिक मंदिर संसद में फैलने देता है जिसमें सरकार की असक्षमता से उत्पन्न मौत के नाच को छिपाया जाता है, किस हिम्मत से ‘गोली मारो.. जैसे नारे वाले मंत्री को प्रमोशन दिया जाता है, किस हिम्मत से सरकार के ख़िलाफ़ लिखने और छापने वाले मीडिया हाउसेज़ को सरकार अपने स्पाइनलेस कलपुर्जों से धमकाती है। ये हिम्मत सरकार को मिलती है नागरिकों के बीच फैली फूट से; जिसे स्वयं राजनीतिक दल पानी देते हैं, खाद देते हैं और ज़रूरत पड़े तो खुद पकड़कर महीनों खड़े रहते हैं ताकि फूट का पेड़ लम्बा और मजबूत बने जिससे कभी भी भारत और उसके नागरिक जाति और धर्म के बाहर सोचने की हिम्मत भी ना जुटा सकें और अगर कोई जुटा भी लेता है तो उसे समय रहते हमेशा के लिए मिटा दिया जाता है। आज भारत को एक ऐसे राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की जरूरत है जो स्वतः संज्ञान लेकर इस दमनात्मक मिटान के खिलाफ सशक्त किन्तु लोकतान्त्रिक प्रतिक्रिया को आकार प्रदान कर सके।