“धन नदी के समान हैं। नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात नीचे की ओर बहती है इसी तरह धन को भी जहां आवश्यकता हो वही जाना चाहिए परंतु जैसे नदी की गति बदल सकती है। धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है कितनी ही नदियां बहने लगती हैं आस-पास बहुत सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती है। इन्हीं नदियों में बांध बांधकर जिधर आवश्यकता हो उधर उसका पानी ले जाने से वहीं पानी जमीन को उपजाऊ और आसपास की वायु को उत्तम बनाता है मनमाना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है गरीबी बढ़ती है । सारांश यह है वह धन विष तुल्य हो जाता है । पर यदि उसी धन की गति निश्चित कर दी जाए उसके नियम पूर्वक व्यवहार किया जाए तो बांधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है।”
“धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है”
धन की गति निश्चित कर दी जाए उसके नियम पूर्वक व्यवहार किया जाए तो बांधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है।
by editor