मनुष्य का सच्चा सुख सन्तोष में निहित है। जो मनुष्य असन्तुष्ट है वह कितनी ही सम्पत्ति होने पर भी अपनी इच्छाओं का दास बन जाता है। और इच्छाओं की दासता से बढ़कर दूसरी कोई दासता इस जगत में नहीं है। सारे संतों और पैगम्बरों ने पुकार-पुकार कर यह घोषणा की है कि मनुष्य ही अपना बुरे से बुरा और मनुष्य ही अपना अच्छे से अच्छा मित्र हो सकता है। स्वतंत्र रहना या दास बनना उसके अपने हाथ में है। और जो बात व्यक्ति के लिए सच है, वही समाज के लिए भी सच है।
हरिजन, 01-02-1942; पृ. 27