न्यू इंडिया की वंदना

आपको कभी महसूस ही नहीं होगा कि आपके जनप्रतिनिधि निकल रहे हैं बल्कि ऐसा लगेगा जैसे माफियाओं का काफ़िला गुजर रहा है, आप उसके सामने कुछ भी नहीं, उसे न आपकी जिंदगी की परवाह है और न ही आपके समय की

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भारत के संविधान में अनुच्छेद 52 ने राष्ट्रपति नाम की संस्था का निर्माण किया और अनुच्छेद 53 में इस संस्था को संघ की कार्यपालिका शक्ति का प्रधान बना दिया गया। यह संस्था अलग अलग गणमान्य भारतीयों से गुजरते हुए इस समय श्री रामनाथ कोविन्द जी में समाहित है। भारत के वर्तमान राष्ट्रपति महामहिम श्री रामनाथ कोविन्द जी तीन दिन के कानपुर प्रवास पर आयें हैं जो कि उनका गृहनगर है। इस बीच राष्ट्रपति कानपुर देहात में स्थित अपने गाँव परौंख भी जाएंगे। महामहिम ने दिल्ली से कानपुर का यह सफर हवाई क्षेत्र से न करके भारतीय रेल के स्पेशल प्रेसीडेंशियल सैलून से करने का निर्णय लिया।

बस कुछ ही दिन बीते हैं, हम सभी ने भारत के इतिहास का सबसे वीभत्स मौत का तांडव देखा, उस तांडव की यादें कभी धूमिल नहीं हो सकतीं और न ही यह बात धूमिल हो सकती है कि ये सब सरकार द्वारा चुनावी प्रचारों और कुम्भ के आयोजन में लगे रहने का परिणाम था। आत्ममुग्धता के बिस्तर पर सोई हुई सरकार जब जागी तब तक भारत कोरोना के कारण मौत का सबसे प्रमुख और आसान पनाहगार बन चुका था। इसी मौत के तांडव से किसी तरह जिंदा बची कानपुर की वंदना मिश्रा, कानपुर की प्रमुख महिला उद्यमी, जो कि एक महीने तक इस बीमारी से लड़ती रहीं थी और एक दिन इमरजेन्सी आवश्यकता पड़ने पर जब उन्हे अस्पताल ले जाने के लिए घर वाले निकले तो भारत के अनुच्छेद 52 से उत्पन्न, संस्थान पर विराजमान भारत के राष्ट्रपति के लाव-लश्कर और सुरक्षा सुविधाओं ने निगल लिया। राष्ट्रपति के आने से पहले ट्रैफिक रोक दिया गया था और उसी दौरान वंदना मिश्रा को अस्पताल जाना पड़ा प्रशासन ने ‘प्रोटोकॉल’ का पालन तो किया पर वंदना मिश्रा को अस्पताल पहुँचने पर बचाया नहीं जा सका। उनको बचाए जाने वाला ‘गोल्डन टाइम’ प्रोटोकॉल की भेंट चढ़ गया। राष्ट्रपति का शोक सन्देश परिवार तक पहुंचा दिया गया और कमिश्नर को लगा कि घटना से सबक सीख लिया गया है अब ऐसी गलती नहीं होगी।

यह तो वंदना मिश्रा जैसी कानपुर की सशक्त महिला थीं जिनकी खबर अखबारों और सोशल मीडिया में आ गई वरना ऐसे बहुत से अनजान और खोए हुए आम इंसान हैं जो अपनी जिंदगियाँ ऐसे प्रोटोकॉल्स की वजह से खो देते हैं। असीम साहब पूरी घटना की जिम्मेदारी एक दरोगा और 3 छोटे पुलिसकर्मियों पर डाल चुके हैं और उस राजशाही रवैये और उनके प्रोटोकॉल्स को बचाने में कामयाब रहे जिनकी वजह से वंदना जी की जान गई। मीडिया में पुलिस की कामयाबी बड़े अधिकारियों द्वारा शेयर की जाती है और नाकामी हमेशा कनिष्ठ अधिकारियों पर थोप दी जाती है।
अब प्रश्न यह है कि क्या महामहिम को यह नहीं पता था कि कोविड को लेकर उत्तर प्रदेश देश का सबसे ज्यादा प्रभावित और सबसे ज्यादा नाकाम प्रदेश रहा है। यहाँ इतनी मौतें हुई हैं कि उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है। किसी तरह संभल रहे प्रदेश में कानपुर जैसे अप्रबंधित शहर का दौरा किस संवेदनशीलता का प्रमाण है। कौन नहीं जानता है कि भारत में कोरोना की दूसरी लहर सरकार की ‘ईवेंट-पसंदगी’ की वजह से आई थी। सरकार की लापरवाही की वजह से कोरोना ने अपना काम बहुत अच्छे से किया। दसवीं और बारवीं के छात्रों की परीक्षाएं टालनी पड़ गईं, देश में हर जगह प्रतियोगी परीक्षाओं को आगे बढ़ा दिया गया, यूपीएससी के अभ्यर्थी अभी तक एक्स्ट्रा अटेम्पट की मांग कर रहे हैं, अर्थव्यवस्था में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई, करोड़ों लोगों के रोजगार छिन गए। ऐसे में देश के नागरिकों को सुरक्षा और जरूरतों को देने में पूरी तरह नाकाम केंद्र सरकार कम से कम अब तो ऐसे इवेंट्स को रोकने में आगे आती! सरकार राष्ट्रपति को इस समय ऐसा दौरा न करने की सलाह दे सकती थी। भारत के राष्ट्रपति तीनों सेनाओं के प्रमुख हैं, राष्ट्रपति जब दौरा करते हैं तो उनके साथ भारत की प्रतिष्ठा और गरिमा भी दौरा करती है, उनकी गरिमा में आई कोई भी आंच, उनपर उठा कोई भी प्रश्न स्वयं भारत पर भारत के संविधान पर प्रश्न है। ऐसे में कोई और उचित समय चुनते, तो बेहतर होता। पद पर बने रहते हुए अपने क्षेत्र और गाँव का दौरा करके महामहिम क्या संदेश देना चाहते हैं? मुझे बड़ा दुख हुआ कि जब राष्ट्रपति की पत्नी ने सुबह का समाचार पत्र पढ़ा तब उन्होंने इस बात को राष्ट्रपति से शेयर किया और तब जाकर संवेदनाओं और ‘गलतियों के एहसास’ का सिलसिला शुरू हुआ, मुझे प्रशासन के इस प्रकार के इंटेन्शन पर खुद को साफ बचा लेने की बू आती है। अपने सबसे महत्त्वपूर्ण समय में ‘जीवन के अधिकार’ से वंचित हुई एक सशक्त महिला के लिए राष्ट्रपति के आधिकारिक ट्विटर हैन्डल से एक ट्वीट भी नसीब नहीं हुआ, जबकि राष्ट्रपति को स्वयं फोन करके जानकारी लेना और संवेदना प्रकट करना चाहिए था। कम से कम प्रदेश के मुख्यमंत्री ही पता कर लेते कि परिवार के हालात कैसे हैं?

वास्तविकता तो ये है कि पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है। अन्य प्रदेशों का तो नहीं कह सकती हूँ, लेकिन दिल्ली और उत्तर प्रदेश में निकलने वाले राजनैतिक काफिले जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री गृहमंत्री या कोई अन्य मंत्री जब निकलता है तो उसके आने से पहले सड़कों को एपोकैलिप्स में पहुंचा दिया जाता है और इसके बाद जब काफिला निकलता है तो उसकी रफ्तार देख कर आपको यह कभी नहीं लगेगा कि इसके अंदर बैठे लोग एक संवेदनशील दस्तावेज ‘भारत के संविधान’ के उत्पाद हैं बल्कि आपको एक खास किस्म की असंवेदनशीलता दिखेगी, पद का रौद्र रूप दिखेगा, भयावहता दिखेगी। आपको कभी महसूस ही नहीं होगा कि आपके जनप्रतिनिधि निकल रहे हैं बल्कि ऐसा लगेगा जैसे माफियाओं का काफ़िला गुजर रहा है, आप उसके सामने कुछ भी नहीं, उसे न आपकी जिंदगी की परवाह है और न ही आपके समय की। अब उस तीन वर्ष के बच्ची का ही उदाहरण ले लीजिए जो तेज रफ्तार CRPF की गाड़ी के नीचे आ गई। यह गाड़ी राष्ट्रपति की सुरक्षा व्यवस्था में तैनाती के लिए जा रही थी इसकी रफ्तार इतनी ज्यादा थी कि पहले उसने उस मोटरसाइकिल पर टक्कर मारी जिसपर बच्ची बैठी थी बच्ची के नीचे गिर जाने के बाद CRPF के ही वाहन से कुचलकर बच्ची की मौत भी हो गई। अस्पताल में उसे बचाया नहीं जा सका।

2013 से ही बीजेपी द्वारा वीआईपी कल्चर पर शोर तो खूब मचाया गया पर इसको खत्म करने का दावा करने वाली अवधारणा जिले के कुछ अधिकारियों तक ही सिमट कर रह गई है। यह न तो देश के शीर्ष नेताओं पर लागू होती है और न ही संवैधानिक पदों पर बैठे राजशाही के अवशेषों पर। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदीजी में एक खास बात है, वो जब बोलते हैं तो रुकते नहीं, इससे कोई मतलब नहीं कि वो जो बोल रहे हैं उसका जमीन पर कितना कार्यान्वयन हो पाएगा। मई 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत से वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के लिए अत्यंत भावपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा था “न्यू इंडिया कान्सेप्ट में VIP की जगह EIP अर्थात ‘प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण’ होना चाहिये” वो यहाँ भी नहीं रुके सीधे 125 करोड़ भारतीयों को ही महत्वपूर्ण बना डाला। लेकिन जब बात उनकी अपनी ही बातों के कार्यान्वयन पर आती है तब उनकी बोली, उनका ट्विटर सब अचानक शांत हो जाता है वो कहीं नहीं दिखते, मानों उन्हे कुछ पता ही नहीं हो। मंत्रिपरिषद के प्रधान होने के नाते उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वो राष्ट्रपति को विभिन्न मुद्दों पर सलाह दें, उन्हे कम से कम यह सलाह तो दे ही दें कि देश इस समय न तो महंगी यात्राओं को झेल सकता है और न ही किसी ऐसे ईवेंट को जिससे भारतीयों के जीवन खतरे में पड़ जाएँ। वंदना मिश्रा जैसे ऐसे बहुत से भारतीय हैं जो कोविड से धीरे धीरे उबर रहे हैं, उन्हे आज भी कभी भी इमरजेंसी सुविधाओं की जरूरत पड़ सकती है। और अगर इसके बावजूद राष्ट्रपति को अपने पैतृक गाँव जाना ही है तो बेहतर होता कि शानोशौकत में थोड़ा कमी और सादगी के साथ जाते। छोटा लश्कर और प्रशासन पर कम दबाव वंदना मिश्रा और उस छोटी बच्ची को बचा सकते थे।

वंदना मिश्रा और उस बच्ची की मौत वास्तव में भारत की वीआईपी संस्कृति और लोकतंत्र में समाहित राजशाही के आतंक का प्रतीक है। जिस संस्कृति को खत्म करने की बात प्रधानमंत्री जी ने चुनावी जुमले के रूप में की, वह संस्कृति भारत के रग-रग में विद्यमान है। नेताओं को भगवान और बाहुबली के रूप में देखने की भारतीयों की आदत ने उन्हे जुल्म ढाने की मशीन बनाकर रख दिया है। वीआईपी नेता का ड्राइवर भी खुद को वीआईपी समझता है उसे सड़क अपनी लगती है और सड़क पर चलने वाले सत्ता और उसके नेता के गुलाम समझ में आते हैं। एक जनप्रतिनिधि जिसकी ताकत उसकी जनता में होनी चाहिए उसका स्थान भारी भरकम कारों और बंदूकों ने ले लिया है। भारत का राष्ट्रपति भारतीय संसद का हिस्सा हैं अर्थात जनप्रतिनिधियों के लोकतान्त्रिक अखाड़े में वो एक मजबूत स्तम्भ हैं ऐसे में उनकी सादगी वो चीज है जिससे ‘न्यू इंडिया’ को दिशा मिल सकती है।
“….विशेष(एक्सेप्शनल) लोगों के पास से मानवाधिकारों को छीन लेने के बाद ही समानता का जन्म हुआ है”। (डिक्टा एण्ड कॉंन्ट्राडिक्टा,1909,कार्ल क्रौस`)