वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सामाजिक महत्व क्या है?

क्या हम लगातार अपने विवेक का इस्तेमाल करना कम करते जा रहे हैं? वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव हमें इंसान बनने से रोक रहा है।

अगर एक तर्कसंगत रवैया समाज में फैले अंधविश्वास, भावुकता और तर्कहीनता को किसी भी तरह से कम करता है तो इस बात पर मेरा गहरा विश्वास है कि वह समाज निश्चित तौर पर रचनात्मकता और प्रगति की ओर अग्रसर है।



 

एक समय था जब यह माना जाता था कि सूर्य और अन्य ग्रह पृथ्वी के इर्द गिर्द घूमते हैं (टॉलेमी का भूकेन्द्रीय मॉडल)। कॉपरनिकस ने अपनी पुस्तक “On the Revolutions of the Heavenly Spheres” में जब इस स्थापित अवधारणा को नकारते हुए कहा कि हमारे सौर मंडल के केंद्र में पृथ्वी नहीं सूर्य है तो अधिक प्रतिरोध नहीं हुआ क्यूँकि कॉपरनिकस की जटिल भाषा और व्याख्या लोग समझ नहीं सके थे। पर कुछ दशकों के उपरांत जब वहां के धार्मिक संस्थानों को कॉपरनिकस की कही बात ज्ञात हुई तो वह क़िताब एक व्यापक स्तर पर प्रतिबंधित की गयी।

क्यों?


क्योंकि सदियों से धार्मिक संस्थानों द्वारा टॉलेमी के मॉडल को समर्थन प्राप्त था और इंसानी स्वभाव है कि सालों की अवधारणा, विशेषतः जब उसे धार्मिक मान्यता प्राप्त हो, को चुनौती नहीं दी जा सकती। बहरहाल चुनौती की संभावना भी तभी बनती है जब व्यक्ति स्वयं नयी बात या घटना को स्वीकार कर पाए, जो कि कॉपरनिकस कर पाए थे क्योंकि वह शिक्षित होने के साथ साथ खुले दिमाग से नयी संभावनाओं के लिए तैयार थे।


 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण 

दो शब्दों में कहें तो यह ही है “वैज्ञानिक दृष्टिकोण”।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण ज़रूरी नहीं, उन्हीं का हो जिसने विज्ञान की पढ़ाई की हो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध जीवन को तर्कसंगत तरीक़े से जीने से है, विज्ञान के विषय से नहीं। नहीं तो कॉपरनिकस की बात का विरोध सिर्फ़ धार्मिक ठेकेदारों ने या आम जनमानस ने किया होता, उन सब के साथ मिल कर तत्कालीन खगोल-विद्वानों ने भी नहीं।

नयी संभावनाओं को स्वीकार्यता देने का यह मतलब नहीं होता कि आँख बंद कर के, बिना कुछ सोचे, बिना अपनी शिक्षा और अपने विवेक को प्रयोग में लाये कुछ भी मान लिया जाए।

 

 


1995 की वह घटना याद कीजिये जब सिर्फ़ भारत नहीं अमेरिका में भी रातों रात गणेश की प्रतिमा दूध ग्रहण कर रही थीं और हद यह थी कि कुछ ही दिनों में सिंगापुर में वर्जिन मेरी की प्रतिमा की भी ऐसी ही कुछ ख़बर थी या फिर 2016 में कुछ लोगों का यह मानना कि 2000 के नोट में सिक्योरिटी चिप है।


 

स्वीकार्यता का एक सशक्त उदहारण है, तमाम वैज्ञानिकों द्वारा आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी को एकमत से स्वीकारा जाना – जबकि आइंस्टीन स्वयं और अन्य वैज्ञानिक यह जानते और मानते थे कि इस थ्योरी के कुछ पहलू तब तक सिद्ध नहीं हुए थे और यह भी कि भविष्य में विज्ञान की प्रगति के चलते इस थ्योरी में संशोधनों की भी गुंजाइश है।

 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक आयाम “स्वतंत्रता” भी है – स्वतंत्रता अंधविश्वास, भावुकता और तर्कहीनता से जो कि सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामाजिक मसले भी हैं। 2 नोबेल पुरस्कारों से सम्मानित मेरी क्युरी ने कहा था “व्यक्तिगत प्रगति के बिना सामाजिक प्रगति संभव नहीं”। तो अगर एक तर्कसंगत रवैया समाज में फैले अंधविश्वास, भावुकता और तर्कहीनता को किसी भी तरह से कम करता है तो इस बात पर मेरा गहरा विश्वास है कि वह समाज निश्चित तौर पर रचनात्मकता और प्रगति की ओर अग्रसर है।

 

तर्कसंगत क्या होता है?

जैसा कि मैंने कहा कि तर्कसंगतता का संबंध ज़रूरी नहीं कि विज्ञान के विषय से हो। यह मान लेना कि कोविड-19 सिर्फ़ एक मिथ्या है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। यह कहना कि कोविड-19 एक विशेष समुदाय ने फैलाया किसी भी तरह से तर्कसंगत और वैज्ञानिक नहीं है। यह सब कहते और मानते वक़्त हम यह साबित कर रहे होते हैं कि विज्ञान हमारे लिए सिर्फ़ मोबाइल, कंप्यूटर, चिकित्सा तक सीमित है और उसे हम अपने रोज़मर्रा के जीवन, प्रतिक्रियाओं और फैसलों में अमल करने में विफ़ल हैं।

 

 

इसी संदर्भ में आइंस्टीन ने कहा था कि “द होल ऑफ़ साइंस इज़ नथिंग मोर दैन अ रिफाइनमेंट ऑफ़ एवरीडे थिंकिंग”।

सामाजिक स्तर पर आज भीषण रूप से व्याप्त इन्फॉर्मेशन वारफेयर और कुछ नहीं बस वैज्ञानिक चेतना का पतन है। कोई बात अगर हम किसी मोबाइल, टीवी, कंप्यूटर पर देख, सुन या पढ़ रहे हैं तो बहुत आसानी से उसे सच मान लेते हैं – सिर्फ इसलिए कि वह इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पर है। सूचना के अथाह समंदर के बीच अपने विवेक का इस्तेमाल करना हम अब कम करते जा रहे हैं जिसका नतीजा यह हो रहा है कि हमें यह एहसास नहीं है कि शायद हमारा, हमारी प्रतिक्रियाओं का कोई और इस्तेमाल अपने किसी आशय के लिए कर रहा है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण की सामाजिक महत्ता को समझते हुए ही 1976 में भारतीय संविधान के बयालीसवें संशोधन में साइंटिफिक टेंपर (वैज्ञानिक सोच) को आर्टिकल 51-A में शामिल किया गया था जिसके मूल शब्द यह थे:

“भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद और प्रश्न और सुधार करने की भावना को विकसित करे”

तो,

 

जब संविधान ने यह कहा है कि वैज्ञानिक सोच रखना हर भारतीय का कर्त्तव्य है तो देश के प्रधान सेवक का यह कहना कि “गणेश जी की सूंड प्लास्टिक सर्जरी से हुई” या फिर अन्य नेता का यह कहना कि “महाभारत के समय इंटरनेट था” — क्या सिर्फ उनकी अज्ञानता दर्शाता है या हमारी जिन्होंने उन्हें चुना। प्रतिनिधित्व तो वह हमारा ही कर रहे हैं ? तो वो जो कह रहे हैं उस पर हमारा प्रश्न ना करना क्या हमारी स्वीकार्यता है?