गोडसे के पास चाहे जो भी कारण रहे हों लेकिन हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता और अखंड भारत की आखिरी उम्मीद को गोडसे ने अपनी रिवाल्वर से 30 जनवरी 1948 को खत्म कर दिया था। हिन्दू महासभा से जुड़ा रहा यह शख्स जिस विचारधारा का प्यादा था उसने भारत के आखिरी संत को लील लिया। और अगले दिन द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक खबर छपी जिसमें लिखा था
“एक हिन्दू ने गाँधी की हत्या कर दी”।
वो धर्म जो सनातन था, जिसमें उदारता थी और जो लाखों आक्रमणकारियों और अंग्रेजों के हमलों से भी पूरी तरह न सिर्फ संरक्षित था बल्कि विकसित भी हो रहा था, अब एक हत्यारे से पहचाने जाने वाला था। हत्या का कारण था गाँधी के विचारों से ‘असहमति’! जिसे विचारों से नहीं दबाया जा सका, घृणा और भय से नहीं विचलित किया जा सका उसे हत्या कर हमेशा के लिए सुला दिया गया। ऐसी ही कोशिश आज एक तथाकथित धर्मसंसद ने की है।
भारतीयों को मालूम होना चाहिए कि भारत की लोकतान्त्रिक बुनियाद संविधान सभा में तय नहीं हुई। भारत का लोकतंत्र दशकों तक चले स्वतंत्रता आंदोलन की कार्यशैली और मूल्यों से तैयार हुआ है।
संविधान सभा ने तो सिर्फ उसे एक सफेद पन्ने में लिखने का कार्य किया है। विश्वामित्र और चार्वाक का सहअस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि भारतीयों ने विचारों की असहमति के कारण कभी खून नहीं बहाया क्योंकि असहमति तो इस देश के लिए एक विचार था और विचारों पर तो उपनिषद लिखे गए जिनमें प्रायः विरोधाभासी संकल्पनाओं का समावेश मिलता है, ऐसे में विचारों का खून कैसे बहाते? ये विरोधाभास ही था जिसने इस भूमि को विविधताओं से भर दिया।
अगर विचारों की हत्या हुई होती तो पूरा भारत एक पूजाघर में बदल गया होता और यहाँ सिर्फ हिन्दू या सिर्फ मुसलमान, शैव, वैष्णव या सिर्फ शाक्त ही रहते। विरोधाभासों ने भारत को वो उदारता दी जिससे वो फैला और विस्तृत हुआ।
‘असहमति के प्रति हमारा दुराग्रह’ एक दिन भारत को कट्टर राष्ट्रों की श्रेणी में लाकर खड़ा ही कर देगा। ‘असहमत भारत का अर्थ देशद्रोही भारत नहीं है। न ही इसका अर्थ धर्मविरोधी भारत है! भारतीय होना स्वयं एक धर्म है जिसका हिन्दू, मुस्लिम या किसी अन्य धर्म संप्रदाय से कोई सीधा संबंध नहीं है।