आलोचना जम्हूरियत का साबुन है!

मीडिया का एक बड़ा वर्ग डर गया या डरा दिया गया कहना मुश्किल है लेकिन उस डर को साफ महसूस किया जा सकता था

अभी तो 1 महीना भी नहीं हुआ प्रतियोगी परीक्षा का रिजल्ट आये। खुशी से झूम उठा था राजीव (काल्पनिक नाम) मेरिट लिस्ट में अपना नाम देखकर। बहुत संघर्ष हो गया अब सारे सपने पूरे होंगे। बंद कमरे में छत को निहारते हुए राजीव अतीत में खो सा गया। चार साल हो गए जब इश्तिहार छपा था अखबार में इस वेकेंसी के लिए; तब से लेकर अब तक परीक्षा से लेकर रिजल्ट तक हर पड़ाव किसी युद्ध से कम नहीं था। बेटे की नौकरी लग जाए तो वैष्णो माता का दर्शन करूँगी माँ को ऐसा कहते सुना था उसने पड़ोस की चाची से।

एक कहानी 

माँ की मन्नत पूरी करनी है। पिताजी 50 के हो जाएंगे अगले महीने। अभी भी 12-12 घंटे खेतों में मेहनत करते हैं। अब उन्हें भी थोड़ा सुकून मिलेगा। क़ाबिलियत होती तो कहीं हो नहीं जाता अरे फ़ालतू में माँ बाप के पैसे उड़ा रहा है जैसे ताने अब नहीं सुने जाते। अब रिश्तेदारों और पड़ोसियों की ज़बान बंद हो जाएगी। दोस्तों के साथ शिमला और मनाली घूमने का दिल मे दबा अरमान अचानक से कुलांचे मारने लगा। इसी उधेड़बुन में कब सुबह के 4 बज गए पता ही नहीं चला। सुबह-सुबह जाने वाली पैसेंजर ट्रेन की सीटी उसे अतीत से खींचकर वर्तमान में ले आई। सुबह हुई और पता चला कि परीक्षा में धांधली की वजह से बहाली अगले आदेश तक रोक दी गयी है। सारे सपने रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गए। टूटे हुए सपनों का इलाज किसी अस्पताल में नहीं होता। कोई मेडिकल इन्श्योरेंस या आयुष्मान योजना इसकी भरपाई नहीं कर सकती।


उपरोक्त कहानी ना तो किसी एक राजीव की है और ना ही किसी एक वेकेंसी की। पिछले कुछ समय से एक ट्रेंड सा चल गया है। हर वेकेंसी या तो लटक जा रही है या लटका दी जा रही है। ऐसी एक घटना के साथ किसी एक का सपना नहीं मरता बल्कि उससे जुड़े कइयों के अरमान टूटते हैं। कभी आपने सोचने की कोशिश की कि ऐसा हो क्यों रहा है? 30 या 40 हजार की नौकरी लेकर कोई ताजमहल तो बनवा नहीं लेगा फिर आज के युवा को सम्मान से जीवन जीने ( लाइफ टू डिग्निटी) से क्यों महरूम किया जा रहा है? आइये सिलसिलेवार तरीके से इसे समझने की कोशिश करते हैं।


एक दशक पीछे चलते हैं। भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरी तत्कालीन सरकार की साख आंदोलनों की आंधी में मानो उड़ सी गयी थी। लोगों के दिलों में भ्रष्टाचार के खिलाफ सुलग रही चिंगारी एक बारूद का रूप ले चुकी थी और इसी बारूद की बुनियाद पर एक महामानव के अवतार की कहानी गढ़ी गयी। एक ऐसा महामानव जिसके शब्दकोष में असंभव था ही नहीं, हर समस्या का समाधान था उसके पास। विश्वगुरु बनने का ऐसा प्रलोभन कि क्या ग्रामीण क्या शहरी क्या अनपढ़ क्या शिक्षित सब इस आंधी में उड़ चले। रोजगार हो या भ्रष्टाचार,शिक्षा हो या स्वास्थ्य सारे मुद्दे बौने हो चुके थे। एक ऐसी लहर जिसने पिछले 30 सालों के सारे प्रतिमानों को धता- बताते हुए प्रचंड बहुमत की सरकार चुनी। चुनावी पंडितों ने इस लहर को ‘सुनामी’ का नाम दिया।

सुनामी अक्सर अपने साथ विध्वंस भी लेकर आती है। ये सुनामी भी कुछ अलग नहीं थी। धीरे धीरे विरोध में उठने वाली हर आवाज को देशद्रोही घोषित किया जाने लगा। धन -बल,साम, दाम, दंड, भेद जो जिससे चुप रहे उससे चुप कराया जाने लगा। विरोध में उठने वाली हर आवाज को कुचल देना ही जैसे एकमात्र मकसद रह गया हो।

इसमे भरपूर साथ दिया मुख्य धारा की डरी हुई मीडिया ने। मीडिया का एक बड़ा वर्ग डर गया या डरा दिया गया कहना मुश्किल है लेकिन उस डर को साफ महसूस किया जा सकता था। बकौल रवीश कुमार “एक डरा हुआ पत्रकार मरा हुआ समाज पैदा करता है”। यहाँ तो पूरा धड़ा ही महामानव के सामने रेंग रहा हो जैसे। समस्याएं यहीं से शुरू होती है।

समस्या है क्या?

एक किसान दिन रात मेहनत करने के बाद भी अपनी फसल को उचित मूल्य पर नहीं बेच पा रहा; ये समस्या है। स्कूल और कॉलेज में 16 से 18 अनमोल साल गुजारने के बाद भी बच्चों को रोजगार के लिए तरसना पड़े ये समस्या है। नर्सरी स्कूल में बच्चे के एडमिशन के लिए आप डोनेशन देने के लिए मजबूर हैं ये समस्या है। महामारी के समय एक ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए आप दर-दर भटकें ये समस्या है।

आपके सोचने और समझने की ताकत को दुष्प्रचार द्वारा खत्म करने की कोशिश की जा रही है ये समस्या है। बचपन से ही आपके बच्चों के मन मे नफ़रत की जो चिंगारी सुलगाई जा रही है वो बारूद बनकर कभी भी फट सकती है ये समस्या है। थोड़ा ठहरिए और सोचिए कि इससे बाहर कैसे निकलें।

दरअसल ये लोकतंत्र के तसव्वुर में कंगाली का दौर है। हम सवाल करने से डरने लगे हैं। मत भूलिए आलोचना जम्हूरियत का साबुन है इसे जितना रगड़ेंगे उतना ही चमकेगा। चुनावी बयार बह रही है देखिए कौन आपकी समस्याओं के साथ खड़ा है और कौन आपको इससे दूर ले जाने की कोशिश कर रहा है। जब तक आप मजहब और जाति को देखकर अपने प्रतिनिधि को चुनेंगे आप इस मकड़जाल से नहीं निकल पाएंगे।


योग्यता जाति और धर्म की मोहताज नहीं होती। सवाल पूछिए अपने प्रतिनिधियों से। कटघरे में खड़ा कीजिए उन्हें चाहे वो किसी भी पक्ष या विचारधारा के हों। लोकतंत्र ने आपको अधिकार दिया है। बोलते रहिए लिखते रहिए।