क्या असहमति देशद्रोह बन गई है?

आज जब असहमति देशद्रोह है और हमें एक कल्ट/हीरो की लालसा है, तब यह जानना कठिन नहीं कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।

लोग बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं। यह वो लोग हैं जिनका मानना है कि नफरत की आँधी इस देश के संस्थापक मूल्यों में से नहीं है।आवश्यकता है अपने विवेक, तर्कशीलता और अहिंसा का प्रयोग करते हुए संगठित रहने की।



 

लोकतंत्र में ख़ास अहमियत रखने वाले कुछ शब्द जैसे कि सेक्युलर, लिबरल वगैरह जब सिकुलर, लिबटार्ड बन जायें तो इसका मतलब आप आश्वस्त हैं कि वह लोकतंत्र का उच्चतम दौर चल रहा है?

लोकतंत्र दुनिया में हमेशा से किसी ना किसी रूप या स्तर में रहा। शुरुआत हुई जंगल और गांव के वासियों से जो छोटे समूहों में रहते थे और अपने मसलों पर सबसे संवाद, सबकी रायशुमारी और आम सहमति के बाद फैसले लेते थे। वहां से “लोक” तंत्र की यह प्रक्रिया ग्रीस, भारत, रोम, इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस इत्यादि के शहरों में विकसित होते हुए वहां पहुंची जहाँ आज हम हैं। इन में, जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख में कहा कि, फ्रेंच क्रांति एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जब राजा की प्रभुत्ता को समाज ने चुनौती देते हुए अपने अधिकारों की मांग की और राइट विंग, लेफ्ट विंग जैसे शब्द प्रशासनिक स्तर पर सही मायनों में लोकतंत्र की प्रक्रिया से जुड़े।


तमाम देशों में लोकतंत्र के विकास की यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव और भी था – सार्वभौमिक मताधिकार (Universal Suffrage) का, जिस के तहत एक समाज के सभी वयस्कों को आर्थिक, लैंगिक, धार्मिक, सामाजिक, जातीय आदि के बिना किसी भेदभाव के समान रूप से वोट डालने का अधिकार सुनिश्चित हुआ।


 

वास्तव में लोकतंत्र क्या है?

मूलतः लोकतंत्र का तात्पर्य स्वतंत्रता से है – विचारों की, अभिव्यक्ति की, सहभागिता की। पर क्या लोकतंत्र परिपक्वता के बाद भी वैसा ही रहता है या कुछ और गुंजाइशें बनती हैं?

स्कॉटलैंड के जाने माने लेखक, जज और इतिहासकार एलेग्जेंडर टाइटलर ने कहा था कि लोकतंत्र एक निरंतर चलने वाले चक्र के 8 पड़ावों में से महज़ एक अस्थायी पड़ाव है। मानव इतिहास की शुरुआत से समझें तो वह 8 पड़ाव हैं:

1. दासता (bondage) – शासक की दासता
2. आस्था (faith) – नैतिक तौर पर ऐसी एकता पर विश्वास जो कि दासता से मुक्ति दिला सकती है
3. साहस (courage) – बढ़ती एकता से आया साहस जो शासक के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का रास्ता तैयार करे
4. स्वतंत्रता (liberty) – दासता से स्वतंत्रता
5. प्रचुरता (abundance) – स्वतंत्रता के उपरांत आयी भौतिक, आर्थिक और सामाजिक विलासिता
6. आत्मसंतुष्टि (complacency) – स्वतंत्रता के उपरांत अपने हासिल और अपनी उपलब्धियों से आत्मसंतुष्टि
7. उदासीनता (apathy) – अति आत्मसंतुष्टि से दूसरों की सोच, सवालों और मसलों पर उपजी उदासीनता
8. निर्भरता (dependence) – उदासीनता से आयी सामाजिक और आर्थिक दिक्कतों के चलते शासक पर निर्भरता

और फ़िर निर्भरता की इस अवस्था से पुनः दासता की ओर जहाँ स्वतंत्रता का पुनः पतन होता है।आज के भारत को आप इन में से किस पड़ाव पर देखते हैं यह फैसला आपका है। पर उस फैसले पर आने से पहले हमें कम से कम पिछले 100 वर्षों के इतिहास को जानना और समझना होगा।

बात सिर्फ़ सरकारों या राजनीतिक पार्टियों की नहीं है। बात सरकारों के तरीकों, रुझानों और उनकी जड़ों की है। आज जब असहमति देशद्रोह है, अल्पसंख्यकों (धार्मिक, जातीय और आर्थिक) और बहुसंख्यकों के बीच हम-बनाम-वो की बढ़ती खाई है, धार्मिक/जातीय हिंसा और कुंठाओं को सामाजिक वैधता है, एक कल्ट और हीरो की लालसा है, तब, यह समझना मुश्किल नहीं है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।

 

संघ कुछ और नहीं बल्कि अपनी स्थापना के क़रीब 100 वर्ष पूरे होने की ओर अग्रसर एक वो संगठन है जिसने स्वयं को ऐतिहासिक और वैचारिक तौर पर हमेशा से इटली के मुसोलिनी और जर्मनी के हिटलर के नज़दीक व्याख्यायित किया है। संघ के संस्थापकों में से एक ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि भारत असल में सिर्फ़ उन्हीं का देश है जो स्वयं को या तो हिंदू या हिन्दुओं का वंशज मानते हैं – जैसे कि सिख, बौद्ध और जैन, बाक़ी सब बाहरी तो हैं ही पर भारत में उनकी जगह भी कोई नहीं। नस्लीय उच्चता और संप्रभुता की ऐसी ही आत्ममुग्धता स्टालिन और हिटलर में भी थी। CAA-NRC उसी दिशा में सरकार का एक क़दम है।

 

प्रजातंत्र के 3 स्तंभ – विधायिका (legislature), न्यायपालिका (judiciary) कार्यपालिका (executive) और इन पर नज़र ऱखने के लिए चौथा स्तंभ पत्रकारिता (media) – यह सब समान सुर में आज जिस तरह से प्रजा का नहीं बल्कि सत्ताधारियों का बख़ान कर रहे हैं उस में उसी आत्ममुग्धता की झलक है।

 

यह सही है कि इन सभी स्तम्भों में खामियां पहले भी थीं पर वह खामियां अब किस स्तर पर हैं इसके कोई मायने नहीं? उन खामियों के बढ़ने को सिर्फ़ इसलिए अनदेखा कर देना चाहिए कि वह पहले भी थीं? लोकतांत्रिक संस्थानों की हालिया दासता के कुछ उदहारण और भी हैं:

1. पुलिस का सत्ताधारी दल के इशारे पर काम करना – हाथरस
2. रक्षा बलों के कुछ चुनिंदा अधिकारियों का प्रत्यक्ष रूप से राजनेताओं का पक्ष लेना – भूतपूर्व अधिकारी
3. संसद में बहुमत के दुरुपयोग से संवैधानिक तौर पर असंगत कानूनों को पारित करना – कृषि बिल, UAPA बिल, RTI Amendment बिल इत्यादि
4. विश्वविद्यालओं और छात्रों पर हिंसा – JNU, जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

 

भावनाओं, ताकतों, हिंसा, प्रभुत्ता के इस आवेग में स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, रोज़गार और ज़िंदगियां फ़िर असल में मुद्दे रह ही नहीं जाते, मुद्दा रह जाता है सिर्फ़ एक – “हिंदू ख़तरे में हैं”। वरना जिस सांसद के क्षेत्र में सालों से और प्रदेश में कोविड की दूसरी लहर में हज़ारों लोग ऑक्सीजन की कमी से मर गए, उसके दोबारा मुख्यमंत्री बनने का और कोई कारण नहीं हो सकता।


पहले से ही बंटा हुआ समाज और भी अधिक बंटता जा रहा है हर दिन हर घटना के साथ। टाइटलर ने कहा था कि मानव इतिहास में श्रेष्ठ्तम सभ्यताओं की भी औसत आयु 200 वर्षों के लगभग रही है, उस हिसाब से भारत अभी शायद प्रजातंत्र की अपनी शैशवावस्था में है।


पर उल्लेखित घटनाओं, रुझानों और संकेतों से ऐसा प्रतीत होता है अवस्था कोई भी हो पर पतन तेज़ी से हो रहा है। सार्वभौमिक मताधिकार का अधिकार, जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया, दुनिया को और हमें सैकड़ों वर्षों के संघर्ष के बाद मिला है और आज जब असहमति देशद्रोह बन चुकी है तो हमें चैतन्य रहना होगा कि हम ऐसे अधिकार खो ना दें।

लेकिन हाल के वर्षों में CAA और कृषि कानूनों के प्रतिरोध में उठी आवाज़ों ने उम्मीद ज़िंदा रखी है।लोग बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं। यह वो लोग हैं जिनका मानना है कि नफरत की आँधी इस देश के संस्थापक मूल्यों में से नहीं है।आवश्यकता है अपने विवेक, तर्कशीलता और अहिंसा का प्रयोग करते हुए संगठित रहने की। क्या आप चाहेंगे कि जिस संदर्भ में आज जनमानस सीरिया सरीख़े देशों का नाम लेता है वैसे ही कोई देश या समाज हिन्दुस्तान का भी नाम ले?

 

 

सतनाम सिंह

(यह लेखक के निजी विचार हैं)